धर्म के मार्ग का रास्ता प्रशस्त करने की ओर अग्रसर हो रहे नागदा के नाति ''संयम''

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  • Опубликовано: 14 май 2024
  • धर्म के मार्ग का रास्ता प्रशस्त करने की ओर अग्रसर हो रहे नागदा के नाति ''संयम''
    - दो साल पहले तक कंस्ट्रक्शन का काम सीखते हुए एमबीए करने का सपना था, फिर जैन संतों से सीखी धर्म की महत्ता तो बदला विचार
    नागदा। दो साल पहले तक कंस्ट्रक्शन का काम सीखते हुए एमबीए करने का सपना बून रहे रतलाम के बेटे व नागदा के नाति संयम अब धर्म के रास्ते पर प्रशस्त होने जा रहें है। नागदा के दूध व्यवसायी प्रकाश चौधरी के आंगन में पला बढा 18 साल का यह नौजवान 12 जून को रतलाम में पदमचंद्र सागरजी व आनंदचंद्रसागरजी की निश्रा में दीक्षा अंगीकार करने के साथ ही धर्म की नए सफर पर निकल पडेगा। पत्रिका से चर्चा में संयम ने कहा- करीब एक साल पहले गुरुजनों के सानिध्य में आकर धर्म को करीब से जानने का मौका मिला। हम जो भी कार्य कर रहें है वो शरीर के लिए कर रहे है, लेकिन गुरुजनों का सानिध्य पाकर यह पता चला कि आप शरीर नहीं आत्मा हो। गुरुजनों द्वारा बताएं जीवन जीने के तरीकों को जानकर पता चला कि जीवन के 18 साल बर्बाद हो गए। क्योंकि इतने समय हमने आत्मा के लिए कुछ किया ही नहीं। जीवन का असली सार समाज में धर्म का अलख जगाने में ही है। बकौल संयम रतलाम के मेडिकल व्यवसायी प्रवीण पालरेचा के इकलौते बेटे है। दीक्षा अंगीकार करने के बाद पिता का क्या होगा? इस सवाल पर संयम बोले- जीवन का भरोसा नहीं? यदि इसी पल मेरी मृत्यु हो जाती है , या फिर मुझे कुछ हो जाए और मेरे पिता को मेरी सेवा करना पडे ये संभव है। जिन परिवारों में सिर्फ बेटियां होती है उनका क्या होता होगा। कहने का अर्थ ये है कि पुत्र से सेवा नहीं मिलेगी, पुण्य से सेवा मिलेगी।
    रास्तेभर उपयोगी वस्तुओं का दान करते चल रहे थे संयम
    दीक्षा ग्रहण करने से पहले बुधवार को नागदा में संयम का वर्षीदान चल समारोह निकला। सुबह 9 बजे रानी लक्ष्मीबाई मार्ग स्थित पाठशाला भवन से शुरू हुआ चल समारोह नगर के मुख्य मार्गो से गुजरकर पुन: पाठशाला भवन पहुंचा। चल समारोह के दौरान संयम रास्तेभर अपनी दैनिक वस्तुओं का दान करते हुए चल रहे थे। जिन्हें पाने की होड समाजजनों में रही। धर्मसभा में गणिवर्यश्री आनंदचंद्र सागरजी ने कहा- संसार में रहे हुए प्रत्येक व्यक्ति असंतोष है यदि वह पुरूषार्थ करके भौतिक सुख को प्रदान करने वाला किसी लक्ष्य को प्राप्त कर लेता है तो उसके द्वारा प्राप्त किया गया लक्ष्य पुनः एक नया लक्ष्य बना देता है और उदित हुए नए लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए फिर प्रयत्न करने लग जाता है। इस प्रकार भौतिक सुख को प्राप्त करने वाली लक्ष्य बनने की यह प्रक्रिया सतत् रूप से चलती रहती है और व्यक्ति दुखों के इस माया जाल में उलझता चला जाता है।

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