सत्संग १४३ - बोध क्या है? मैं ही सब कुछ कैसे हूं?
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- Опубликовано: 27 июн 2024
- सत्संग १४३, २९ जून २४
१) क्या बोध के भी कई चरण हैं, या इसे बुद्धत्व भी कहा जा सकता है?
२) अगर मैं सबकुछ हूं, तो मुझे सभी शरीरों का अनुभव एक साथ क्यों नहीं होता?
३) कुछ भी न पाने के लिए अध्यात्म है, वो अवस्था जहां कुछ भी न हो। तो हम वो पहले से हैं, ये सोच सकते हैं, या ये अनुभव करना जरूरी है?
४) कुछ बातें खुद अनुभव करके ही समझ सकते हैं, कोई ये बातें दुसरे को कैसे समझा सकता है?
५) मुझे लगता है कि हम विश्व ही हैं, जैसे हम विश्व को नहीं पहचानते, वैसे ही हम खुद को भी नहीं पहचानते हैं। क्या ये बात सही है?
६) हमारी सारी भाग दौड़ इस सारहीन संसार को सारवान बनाने की क्यों होती है? क्यों हम चाहते हैं कि घटनाओं की एक निश्चित परिणति होनी ही चाहिए, जिसके लिए हम अथक प्रयास करते हैं?
७) जब कोई हमारे साथ अन्याय करता है तो हमें उसे कुछ कहना चाहिए, अपने न्याय के लिए हमें बोलना ही पड़ेगा। थोड़ा गुस्सा भी आ जाता है उस व्यक्ति के ऊपर, या हमें शांत रहना चाहिए?
इस वीडियो में इस विषय पर चर्चा करी गई है।
यदि कोई सत्संग में जुड़ना चाहता है तो हम हर शनिवार सुबह ७ से ८ बजे टेलिग्राम पर सत्संग करते हैं, जिसमें कोई भी भाग ले सकता है, उसका लिंक है:
t.me/aatmbodh
प्रेम नमन ❤🙏🙏🙏
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Aap sabhi ko naman,,,,,,,..
आपको भी।
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Me ka kendra mann hai mann gira to Satya pragat hai pranam sir.
जी, अध्यात्म बहुत सरल है, यही मूल अंतर्दृष्टि है।
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आप जी द्वारा प्रश्नों के जो उत्तर दिये गए वे मेरे मन को शांति देने वाले हैं। क्योंकि वे सत्य हैं। क्योंकि सिर्फ मैं ही एक ऐसा है। जिसके होने से ही से ही मुझे सब कुछ प्राप्त हुआ है। जैसे: -- सूरज चाँद धरती आकाश घर द्वार नाते रिश्ते लेकिन लोग उसको कुछ नहीं समझते। जिस समय वह मुझसे पीठ करेगा , मेरी औकात एक बद्वूदार कचड़े से भी खराब होगी।
सबसे बड़ा भ्रम मैं ही है, कि मेरी कोई अलग सत्ता है जो उससे भिन्न है जो जाना जा रहा है, या जो जान रहा है। यानी जो जान रहा है वह वही है जो जाना जा रहा है, मैं जैसा कुछ नहीं होता।
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तोते को समझो सब समझ आ जाएगा मन तोता है जब तक मन शेष है संसार रहेगा मन के मरते ही संसार विदा
जी बिलकुल सही कहा आपने।
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Parnaam 🙏🙏
Aap ki baat bilkul sahi h
Aap se yeh janna chahti hu ki dhyan ki vidhi kya h
Mai kaisy dhyan ka aarambh kru
@@sangeeta4430
किसी भी विधि की अपनी एक सीमा है, यहां बात समझ की है कि यह "मैं" क्या है, जो ध्यान करना चाहता है। मैं ध्यान नहीं कर सकता हूं, ध्यान घटता है, जब सम्यक दृष्टि प्रकट होती है कि मैं ही मिथ्या है।