धर्म क्या होता है व धर्म के 10 लक्षण BY Acharya Pragati Bharti Ji || Vaidik Prachar
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- Опубликовано: 27 авг 2024
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बेटी नमस्ते , सत्य सनातन वैदिक धर्म की जय
आचार्य विदुषी बहिन जी को आर्य समाज के प्रचार प्रसार कार्य के लिए बहुत बहुत धन्यवाद। सादर नमस्ते।। आर्य पुत्र।।
मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीरामचंद्र और योगेश्वर श्रीकृष्ण जी हमारे आदर्श है।। सत्य सनातन वैदिक धर्म के सर्वश्रेष्ठ पालन कर्ता और उपदेशक है।। शत शत नमन।। जय श्री राम।। जय श्री कृष्ण।। जय विश्व कर्मा भगवान्।। आर्य पुत्र।।
सत्य सनातन वैदिक धर्म को भुलाकर धर्म के ठेकेदारो के अन्ध विश्वास मे पड़कर समाज बर्बाद हो रहा है इसके सुधार के लिए ज्यादा से ज्यादा प्रचार करना चाहिए और गुरुकुल शिक्षा पद्धति लागू करनी चाहिए
ओम् जय श्रीं राम
धृति, क्षमा, दम, अस्तेय, शौच, इन्द्रिय निग्रह, धी, विद्या, सत्य, अस्तेय
सारगर्भित एवं सरल प्रवचन। सादर नमस्ते जी।
Awesome
Namaste maa g
Namaste guru mag,🙏🙏🙏🙏
आचार्य श्री जी सादर नमस्ते जी
🙏🙏om 🕉
Hare krisna
Om
वैदिक धर्म के अंदर केवल वेद ही नहीं आते। चार वेद छह शास्त्र 18 पुराण रामायण भागवत गीता आदि सभी आते हैं। सारे शास्त्रों का सर भागवत है और भागवत स्वप्न बुद्धि से नहीं खुलती। कलयुग बाद शाखा में पूर्ण ब्रह्म सच्चिदानंद के आवेश अवतार श्री विजियाभिनंद बुद्धनिष्कलंक ने अपनी जागृत बुद्धि से भागवत को खोल कर एक पूर्ण ब्रह्म सच्चिदानंद की पहचान कराई है।
Very good
❤
जी सादर अभिवादन नमो नमः ❤️🙏
🙏🙏🙏🙏👌👌👌👌
Namaste
सदुपदेश से दुष्ट शिष्ट होता नहीं।
गुड़ से सींचे निम्ब मिष्ट होता नहीं।
ब्रह्मा भी पढ़ाए चाहे दुष्ट को अकल ना लागै
कीचड़ बीच डालो पर सोने को मल ना लागै
क्योंकि सोना रखता अपना रंग है ना रंगत होती कुरंगी
वैदिक सनातनी "धार्मिक रीति.रिवाज" का अर्थ है…"मानवीय कर्तव्य" पूर्ण कर्म.क्रियाएं", जिसे गीता में वर्णित श्लोक है..जैसे..
जब "धर्म" का अर्थ "कर्म" और "कर्तव्य" हैं, जिसमे मानवता समाई हुई है।
तो "धार्मिक कट्टरता" का अर्थ होगा "कर्म करने और कर्त्तव्य निभाने का गहरा अनुशासन" …यहां तक तो वैदिक सनातनी हिंदुओं का तर्क सही है, जब तक कि, मानवता पूर्ण क्रिया.कर्म किए जाय।
विकृत मानसिकता के मजहबी आकाओं के अमानवीय कुकर्मों को "धर्म", या "कर्तव्य" नहीं मान सकते।
इन्हे राक्षसों के दानबीय कृकत्य कहते हैं, जिन्हें मानव.समाज मैं रहने का कोई अधिकार ही नहीं है।
"कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽedaस्त्वकर्मणि॥"
अर्थ:- मानवों को सिर्फ कर्म करने में अधिकार है इनके फलो में नही. मानव अपने कर्म के फल प्रति असक्त न हो या कर्म न करने के प्रति प्रेरित न हो। फल अपने आप मिलते रहेंगे।
"काम, क्रोध, मद, मोह, लोभ..
जाकै होत घेराव..
ता मानुष गति होत है, अंत बहुत डराव।
अहंकार.वश दुष्ट बढ़े, करने लगे अन्याय..
स्वार्थ.वश ईर्ष्या करे, और करे पापाय।"
…अब इन सबकी कोई खैर नहीं, रह नहीं पाएंगे और कहीं।…