सत्संग १२०, प्रेम रस जो चाखी ले, समुंद्र मीठा हुई जाए।
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- Опубликовано: 6 сен 2024
- सत्संग १२०, ३० दिसंबर २३
१) असंभव प्रश्न लगाने की कीमिया, जिसे किस तरह से इसको प्रयोग में लाई जाए जिससे कि अधिकतम गहराई तक असंभव प्रश्न की चोट की जा सके, कृपया बताने की कृपा करें। थोड़ा बहुत तो मैं लगा पाता हूं परंतु शीध्र ही मन कुछ और पकड़ लेता है।
जैसे वह जीवन क्या है जो मैं से मुक्त है,
वह विचार क्या है जो मैं से मुक्त है,
वह देखना क्या है जो मैं से मुक्त है।
क्या बिना मैं को पैदा किए विचार किया जा सकता है? और विचार का केंद्र कहां होगा?
विचारों ने मैं को बनाया और अब मैं ही विचार कर रहा है, और विचारों को जानना चाहता है, तो मतलब हुआ की विचार ही विचारों को कर रहा है। इसका मतलब क्या एक विचार ही निर्विचार होने का भी प्रयास कर रहा है?
आपके स्वयं के अनुभव से यदि आप कुछ बताना चाहे तो कृपा होगी।
२) ये कहा जाता है कि साक्षी भाव से अपने विचारों को देखो, पर अपने विचारों को देखने वाला भी तो एक विचार ही है, तो उस विचार से कैसे मुक्त हुआ जाए? कृपया मार्ग दर्शन करें।
३) साधु सीप समुद्र के, सतगुरु स्वाती बून्द। तृषा गई एक बून्द से, क्या ले करो समुन्द।।
भावार्थ - कबीरदास जी कहते हैं सच्चे साधु लोग सीप के समान होते हैं। जैसे एक सीप सागर के बीच मे रहते हुए भी सिर्फ स्वाती नक्षत्र में गिरी बूंद को ही अपने अंदर ग्रहण करती है, उसे सागर के पानी से कुछ लेना देना नहीं होता। वैसे ही साधु को सीप मानो, वे भी चारों तरफ फैली माया से आकर्षित नहीं होते और सद्गुरु उनके लिए स्वाती बूंद की तरह होते हैं उनकी प्यास सिर्फ सद्गुरु से ही बुझ सकती है, वे उन्ही से संतुष्ट हो सकते हैं।
सदगुरु के प्रति प्रेम की एक बूंद से जन्मों की प्यास बुझ जाती है, एक बूंद से बरसों का ताप चला जाता है।
इस वीडियो में इस विषय पर चर्चा करी गई है।
यदि कोई सत्संग में जुड़ना चाहता है तो हम हर शनिवार सुबह ७ से ८ बजे टेलिग्राम पर सत्संग करते हैं, जिसमें कोई भी भाग ले सकता है, उसका लिंक है:
t.me/aatmbodh
मैं का केंद्र का मिटना ही प्रेम है 😊
🙏🙏🙏