शरीर के जागृत सहस्त्रार चक्र पर अर्धनारीश्वर शिव,नवग्रह एवं आज्ञा चक्र पर त्रिदेवियां~पं प्रमोद गौतम

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  • Опубликовано: 5 янв 2025
  • शरीर के जागृत सहस्त्रार चक्र पर अर्धनारीश्वर शिव,नवग्रह एवं आज्ञा चक्र पर त्रिदेवियां~पं प्रमोद गौतम-‪@astrologerpramodgautamchai5923‬
    शरीर के जागृत सहस्त्रार चक्र पर अर्धनारीश्वर शिव,नवग्रह एवं आज्ञा चक्र पर त्रिदेवियां~पं प्रमोद गौतम
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    कुल मिलाकर पौराणिक ग्रंथों में रावण के बारे में कहा जाता है कि अपनी कठोर साधना और तपस्या से वह सर्वाधिक शक्तिशाली हो गया था उसने सभी नवग्रहों को बंदी बनाकर अपने सिंहासन से बाँध कर रखा हुआ था जिससे वो अजेय हो गया था प्रश्न ये है कि रावण जब सिंहासन पर बैठता था तब वह किसके ऊपर अपना पैर रखता था, ये एक महत्वपूर्ण प्रश्न है उसको गहराई से समझने की कोशिश करते हैं।
    सर्वमान्य है कि रावण ज्योतिष का प्रकांड विद्वान था। परन्तु फलित ज्योतिष शास्त्र का विरोधी, उसने लंका में फलित ज्योतिष के आधार पर भविष्यवाणी करने पर प्रतिबंध लगाया था। इसलिये जनता में तरह तरह की बातें चल पड़ी। मतलब वह पुरूषार्थ में विश्वास करता था। जो मैं चाहूंगा वो पुरुषार्थ से, और अपने भुजबल से पा लूंगा। कोई ग्रह उसे नही रोक सकता। कुल मिलाकर अपनी कठोर साधना और तपस्या के बल पर रावण के अंदर इतना सामर्थ्य आ गया था कि उसने नवग्रहों को भी अपने अधीन कर लिया था।
    कुल मिलाकर ब्रह्मांड में शनि को बहुत धीमी चाल चलने वाला न्याय का ग्रह माना जाता है। इसी धीमी चाल के कारण शनि एक राशि में करीब ढ़ाई साल रहता है। शनिदेव धीमे-धीमे क्यों चलते हैं, इस संबंध में शास्त्रों में बताया गया है। शनि देव की लंगड़ी और धीमी चाल का संबंध रावण के क्रोध और उसके पुत्र मेघनाद की अल्पायु से जुड़ा हुआ है।
    कुल मिलाकर रावण ज्योतिष शास्त्र का महान ज्ञाता था। रावण चाहता था कि उसका पुत्र दीर्घायु हो और कोई भी देवी देवता उसके प्राण न ले सके। इसलिए जब रावण की पत्नी मंदोदरी गर्भ से थी तब रावण ने इच्छा जताई कि उसका होने वाला पुत्र ऐसे ग्रह नक्षत्रों में पैदा हो जिससे कि वह महा-पराक्रमी, कुशल योद्धा और तेजस्वी बने। बस इसी इच्छा के कारण रावण ने सभी ग्रहों को मेघनाथ के जन्म के समय शुभ और सर्वश्रेष्ठ स्थिति में रहने का आदेश दिया था। क्योंकि सभी ग्रह रावण से काफी भयभीत थे, इसलिए उस समय शनिदेव को छोड़ कर सभी ग्रह रावण की इच्छानुसार मेघनाद की जन्मकुंडली में शुभ व उच्च स्थिति में विराजमान हो गए थे, केवल शनिदेव ही ऐसे ग्रह थे जो रावण से जरा भी नहीं डरते थे। रावण जानता था कि शनि देव आयु की रक्षा करते हैं लेकिन वह यह भी जानता था कि आसानी से तो शनि देव उसकी बात मानकर शुभ स्थिति में विराजित नहीं होंगे। इसलिए रावण ने अपने बल का प्रयोग करते हुए शनि देव को भी ऐसी स्थिति में रखा, जिससे उसके होने वाले पुत्र की आयु वृद्धि हो सके। लेकिन शनि तो न्याय के देवता हैं, इसलिए शनिदेव ने रावण की मनचाही स्थिति में तो रहे पर उन्होनें मेघनाद के जन्म के दौरान अपनी दृष्टि वक्री कर ली, जिसकी वजह से मेघनाद अल्पायु हो गया, पुत्र के जन्म के बाद शनि की इस हरकत से रावण काफी क्रोधित हो गया और रावण ने क्रोध में आकर अपनी गदा से शनि के पैर पर प्रहार किया। तभी से शनि देव रावण के पैरों के नीचे आ गए थे। जिसको हनुमानजी ने बाद में रावण की कैद से मुक्त कराया था।
    कुल मिलाकर भौतिक मायावी संसार में दसों इंद्रियों पर पूर्ण विजय प्राप्त करते हुए, जब मनुष्य पूर्णतः परिपक्व और शुद्ध हो जाता है, तो उसके सिर पर एक हजार पंखुड़ियों वाला कमल खिल जाता है, जिसे कुण्डलिनी जागरण में सातवां सहस्रार चक्र कहते हैं, कुल मिलाकर जब कुंडलिनी ऊर्जा के सातों चक्र पूरी तरह जागृत होते हैं, तो सिर में स्थित चेतन केंद्र, जिसे सहस्रार या 'हजार पंखुड़ियों वाला कमल' कहा जाता है, वह खुल जाता है, जिससे सीमित मानव चेतना या जीवात्मा को परमात्मा या सार्वभौमिक चेतना के साथ अपनी एकता का एहसास होता है, जो कुंडलिनी ब्रह्मांडीय शक्ति की भौतिक अभिव्यक्ति है, जब किसी व्यक्ति के शरीर के सातवें चक्र पर यह व्यक्तिगत शक्ति व्यक्तिगत चेतना (जीवात्मा) के रूप में प्रकट होकर परम शिव की चेतना के साथ विलीन हो जाती है, तब व्यक्ति को पूर्ण वास्तविक मोक्ष एवम अहं-ब्रह्मास्मि की सर्वोच्च पदवी दिव्य कृपा से प्राप्त हो जाती है।
    "अहं-ब्रह्मास्मि" यानि में ब्रह्म हूं, में ईश्वर हूं, यही साधना की पूर्ण अवस्था और भक्ति की पराकाष्ठा है, जो सिर्फ हमारे शरीर की कुण्डलिनी शक्ति के सातों चक्र जागृत होने पर संभव होती है, एक आध्यात्मिक विश्लेषण नीचे दी हुई यूटयूब लिंक में देखें और गहराई से समझें।
    • शरीर के सातों चक्र जाग...
    कुल मिलाकर उपरोक्त शीर्षक के सार के रूप में हम यह समझ सकते हैं कि जीव ईश्वर का अंश है। अतएव वह अविनाशी, चेतन, निर्मल और स्वभाव से ही सुख की राशि है, वह माया के वशीभूत होकर तोते और वानर की भाँति अपने आप ही बँध गया। भाव यह है कि जीवात्मा ईश्वर का अंश है, चेतन है पवित्र है और सुख स्वरूप है। किंतु माया के आवरण से घिर जाने के कारण इसने अपने वास्तविक स्वरूप ज्ञान को, और अपनी वास्तविक पहचान को भुला दिया है। इसी कारण यह नाना प्रकार के दुखों से व्यथित हो रहा है।
    कुल मिलाकर भौतिक मायावी संसार में बाहर के आकाश को महदाकाश कहते हैं, घर के अंदर के आकाश को मठाकाश कहते हैं और घड़े के अंदर के आकाश को घटाकाश कहते हैं। आकाश का तात्पर्य शून्य से है। घर बनने के बाद उसके अंदर के आकाश को मठाकाश कहते हैं। पर, क्या मठ के अंदर का आकाश बाहरी महदाकाश से भिन्न है? बिल्कुल नहीं। इसी तरह घड़े के अंदर भी आकाश है। वह वही आकाश है, जो कि बाहर का आकाश है। पर घड़ा बन जाने के कारण वह आकाश आवरण से घिर गया और उसका नाम महदाकाश नहीं रहा, बल्कि घटाकाश हो गया। ऐसे ही परमात्मा का अभिन्न अंग जो शरीर और इंद्रियों से घिर गया है वह जीवात्मा कहलाता है। किंतु, जीवात्मा कहलाने से उसके स्वरूप में कोई अंतर नहीं होता, वह दिव्य पुरुष बन सकता है।

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