(गीता-10) दुख का अंत सुख पाकर नहीं होता || आचार्य प्रशांत, भगवद् गीता पर (2022)

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  • Опубликовано: 8 сен 2024
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    ⚡ आचार्य प्रशांत कौन हैं?
    अध्यात्म की दृष्टि कहेगी कि आचार्य प्रशांत वेदांत मर्मज्ञ हैं, जिन्होंने जनसामान्य में भगवद्गीता, उपनिषदों ऋषियों की बोधवाणी को पुनर्जीवित किया है। उनकी वाणी में आकाश मुखरित होता है।
    और सर्वसामान्य की दृष्टि कहेगी कि आचार्य प्रशांत प्रकृति और पशुओं की रक्षा हेतु सक्रिय, युवाओं में प्रकाश तथा ऊर्जा के संचारक, तथा प्रत्येक जीव की भौतिक स्वतंत्रता व आत्यंतिक मुक्ति के लिए संघर्षरत एक ज़मीनी संघर्षकर्ता हैं।
    संक्षेप में कहें तो,
    आचार्य प्रशांत उस बिंदु का नाम हैं जहाँ धरती आकाश से मिलती है!
    आइ.आइ.टी. दिल्ली एवं आइ.आइ.एम अहमदाबाद से शिक्षाप्राप्त आचार्य प्रशांत, एक पूर्व सिविल सेवा अधिकारी भी रह चुके हैं।
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    #acharyaprashant
    वीडियो जानकारी: 19.05.22, गीता सत्र, ग्रेटर नॉएडा
    प्रसंग:
    ~ निष्काम कर्म का अर्थ
    ~ कृष्ण हमें क्या समझाना चाह रहे हैं?
    ~ गीता का सही अर्थ
    ~ किन्हें गीता कभी समझ नहीं आती?
    ~ वेदों में कर्मकांड का कितना महत्त्व है?
    यदा ते मोहकलिलं बुद्धिर्व्यतितरिष्यति।
    तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च।।
    जब तुम्हारी बुद्धि मोह या अज्ञान रूप पाप को छोड़ देगी तब सुनने योग्य और सुने हुए विषयों में
    तुम्हें वैराग्य प्राप्त होगा अर्थात् वे विषय तुम्हारे सामने निरर्थक हो जाएंगे।
    श्रीमद्भगवद्गीता (अध्याय २, श्लोक ५२)
    श्रुतिविप्रतिपन्ना ते यदा स्थास्यति निश्चला।
    समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि।।
    जब अनेक प्रकार की लौकिक और वैदिक फल-श्रुतियों को सुनकर विक्षिप्त हुई तुम्हारी बुद्धि
    निश्चल हो जाएगी तब तुम समबुद्धि की अवस्था को प्राप्त होओगे।
    श्रीमद्भगवद्गीता (अध्याय २, श्लोक ५३)
    अर्जुन उवाच
    स्थितप्रज्ञस्य का भाषा समाधिस्थस्य केशव।
    स्थितधीः किं प्रभाषेत किमासीत व्रजेत किम्।।
    अर्जुन ने पूछा - हे केशव! समाधियुक्त स्थितप्रज्ञ व्यक्ति का क्या लक्षण है? अर्थात् स्थितप्रज्ञ व्यक्ति में
    कौन-कौन से विशिष्ट लक्षण प्रकट होते हैं? स्थितबुद्धि अर्थात् जिसकी बुद्धि आत्मा में स्थित है वह,
    कैसी बातें करता है, किस तरह रहता है? और कहाँ-कहाँ विचरण करता है?
    श्रीमद्भगवद्गीता (अध्याय २, श्लोक ५४)
    श्री भगवानुवाच
    प्रजहाति यदा कामान् सर्वान् पार्थ मनोगतान्।
    आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते।।
    कृष्ण कहते हैं कि आत्मा में ही अर्थात् बाहरी विषयों से हटकर स्वरूप के आनंद में संतुष्ट रहकर
    जब व्यक्ति मन की सभी कामनाएँ त्याग देता है तो उसको स्थितप्रज्ञ कहते हैं।
    श्रीमद्भगवद्गीता (अध्याय २, श्लोक ५५)
    दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः।
    वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते।।
    दुखों में जिसका मन उद्विग्न नहीं होता, सुखों में जो आकांक्षा-रहित है, आसक्ति, भय, क्रोध से रहित है,
    ऐसे व्यक्ति को स्थितधिय या स्थितप्रज्ञ या स्थितबुद्धि मुनि कहते हैं।
    श्रीमद्भगवद्गीता (अध्याय २, श्लोक ५६)
    संगीत: मिलिंद दाते
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