सुख की अवधारणा का शेष धर्म के आधार पर जीवन की रचना की तो वह जीवन अखंड सुख, चिरंतन सुख, घनीभूत सुख, की प्राप्ति कर सकता है। इस तरह का जो आश्वासन है, श्रेष्ठ आश्वासन है वह हमारे द्रष्टाओ ने हमें दिया है। यह धर्म हमारा मार्गदर्शन करता है। तो व्यष्टि जीवन, समिष्टी जीवन किस तरह चिरंतन, घनीभूत, और अखंड सुख की प्राप्ति कर सकता है, इसका मार्गदर्शन धर्म करता है। और इसलिए मैंने कहा कि स्वयं अपने लिए विचार करना कठिन होता है। निर्णय लेना तो और भी कठिन हो जाता है। इससे हर एक को लगता है कि कोई बताने वाला होगा तो और भी अच्छा होगा। हमारे सौभाग्य से हिंदू समाज को यह मार्गदर्शन उपलब्ध है। और कहीं यह बात नहीं है। इतने स्पष्ट रूप से, विशद रूप से कहीं बताया गया होगा तो वह धर्म है। वह धर्म हमारे सभी विचारों का आधार है, सभी आचारों का आधार है। जीवन का मार्गदर्शन करने वाला सिद्धांत है। इस नाते हम धर्म को लेंगे, उसके अनुसार हम अपने जीवन को बनाएं। अपनी प्रार्थना में भी कहा गया है 'परम वैभवम नेतु मेतत स्व राष्ट्रम।' राष्ट्र का परम वैभव भी प्राप्त करना हो तो उसके लिए भी जो पूर्व शर्त है, प्री रिक्वेस्ट है, वह है धर्म की रक्षा। व्यक्ति को चिरंतन सुख प्राप्त करना है तो उसका आधार है धर्म की रक्षा तो हम अपना मन, हम अपनी बुद्धि, हम अपना शरीर, जिसे परम पूजनीय श्री गुरुजी ने कहा कि यह एक प्रकार से ट्रस्ट है। तुम्हारा शरीर, तुम्हारी बुद्धि, तुम्हारा मन, यह सब ट्रस्ट है। यह भगवान घड़ता है, भगवान ने तुम्हें दिया है, एक ट्रस्टी के नाते तुम्हें इसका उपयोग करना चाहिए। यह ट्रस्टी के नाते इसका सही उपयोग हम कैसे कर सकते हैं इसका ठीक मार्गदर्शन हम धर्म से पाते हैं। तो ऐसे धर्म का पालन करें और इस धर्म के अनुकूल स्वयं को बनाएं। अपने शरीर को बनाएं, मन को बनाएं, बुद्धि को बनाए, आत्मा को बनाएं, धर्म के अनुकूल बनाएं और इस दृष्टि से धर्म के अनुकूल बनाना केवल बुद्धि से संभव नहीं, तो इसके अनुसार संस्कार हम ग्रहण करें। यह संस्कार हम प्रतिदिन ग्रहण करें ताकि प्रतिदिन संस्कार देने के कारण शरीर, मन, बुद्धि, आत्मा का उस तरह का विकास हो सके और इस तरह हम पूर्णरूपेण धर्म प्रवण बने और धर्म की योजना में स्वयं को बिठायें, स्वयं अपने को बिठाए इन संस्कारों के आधार पर, दिन प्रतिदिन जो संस्कार हम ग्रहण करते हैं उनके आधार पर, हम अपने शरीर, मन, बुद्धि, आत्मा को धर्म की योजना में बराबर बिठायें और इस तरह से व्यष्टि जीवन का संपूर्ण विकास, समिष्टी जीवन का संपूर्ण विकास यह इसका अभिप्राय है, यह उसका उद्दिष्ट है। दूसरा धर्म की योजना में स्वयं को बिठाने के कारण हम अपने व्यष्टि जीवन को चिरंतन सुख प्राप्त करा दे सके, समिष्टी जीवन को परम वैभव प्राप्त करा दे सके, इस तरह की जो योजना है वही हमारे लिए श्रेयष्कर है, यह सारा विचार हम अपने जीवन के बारे में करें क्योंकि जैसे मैंने कहा हम अभी अपना जीवन बनाने जा रहे हैं। अभी हमें विचार करना है कि आगे हम क्या करेंगे तो। इस दृष्टि से अपने जीवन के बारे में हम पूरा विचार करें। मार्गदर्शन प्राप्त होता है, वह मार्गदर्शन प्राप्त कर के जीवन के बारे में विचार करें और वह विचार करने के पश्चात एक बार यदि हमारा ध्येय निश्चित हो जाता है, तो फिर उस ध्येय के अनुसार, इधर-उधर न देखते हुए, विचलित, चंचलता मन में ना आने देते हुए, मन को दोलायमान, आंदोलित ना होने देते हुए, उस ध्येय के मार्ग पर हम अखंड चलते रहें, यही वास्तव में हमारे लिए श्रेयष्कर मार्ग है। इतना कहना पर्याप्त है।
इस बौद्धिक के बाद में एक दूसरा बौद्धिक वर्ग अगले दिन भी दिया गया है। इन दोनों बौद्धिक को आप लिखित भाषण के रूप में पढ़ सकते हैं। यहां लिंक दे रहा हूं- hinduway.org
*क्या केवल खुद के सुख के लिए ही यह अनमोल जीवन प्राप्त हुआ है..???* *धारण करे सो धर्म..! तो धारणा क्या है..?? जिस ज्ञान के बल पर ईश्वर के अस्तित्व का खंडन कर देना मात्र ही धर्म नही है, वैसे ही तर्कों के बल पर ईश्वर के अस्तित्व को सिद्ध कर देना मात्र भी धर्म नही है। "भदन्त आनंद कौसल्यायान किसी धर्म प्रसंगवश वे अपने जीवन का कोई एक रोचक संस्मरण सुनाते हुए उन्होंने बताया - "पुरानी बात है। कानपुर के किसी एक बड़े व्यापारी के यहां ठहरा था, जो कि कट्टर आर्य समाजी था और बड़ा ईश्वर भक्त भी था। रोज प्रातःकाल वह अपने दुकान के सभी कर्मचारियों को घर पर एकत्र करता। हवन-यज्ञ, मंत्र-जाप और पाठ करने के बाद कुछ देर धर्म-चर्चा करता। यदि संयोगवश बाहर से कोई विद्वान आया होता तो उसी का धर्म-प्रवचन रखा जाता, अन्यथा सेठजी स्वयं धर्म-उपदेश देते। उस दिन मुझे ही धर्म प्रवचन के लिए कहा गया। उन दिनों मैं नया-नया बौद्ध भिक्षु बना था, इसलिए बड़ा जोश था। अतः उन ईश्वरवादियों के सामने ईश्वर के अस्तित्व का खंडन करने में मेरे पास जितने तर्क थे, उन सबका प्रयोग किया। खूब जोश-खरोश से भरा हुआ अपना वह लंबा प्रवचन जब समाप्त किया तब सेठजी ने हाथ जोड़ कर कहा, _"महाराज..! यह तो प्रवचन हुआ, अब जरा मतलब की बात हो जाय, कुछ धर्म की बाते हो जायँ।"_ संस्मरण सुनाकर आनंदजी ने हँसते हुए कहा कि मुझ पर घड़ों पानी पड़ गया। उस दिन मुझे जितना हतप्रभ होना पड़ा, उतना मैं कभी नही हुआ। मुझे लगा कि मेरी सारी ज्ञान-गरिमा, सारा तर्क-कौशल इस आदमी ने एक ही वाक्य में निरर्थक साबित कर दिया।" सचमुच..! धर्म का सार कोरी तर्कबाजी में कहा धरा है..? धर्म के क्षेत्र में बुद्धि का उपयोग अत्यंत आवश्यक है, अन्यथा धर्म अंधश्रद्धा और मिथ्या दृष्टियों का गढ़ बन जाय। लेकिन धर्म को केवल मात्र तर्कजन्य बुद्धि किलोल का ही रूप दे दें तो भी वह निष्प्राण हो जाय। *_जिस प्रकार तर्को के बल पर ईश्वर के अस्तित्व का खंडन कर देना मात्र ही धर्म नही है, वैसे ही तर्कों के बल पर ईश्वर के अस्तित्व को सिद्ध कर देना मात्र भी धर्म नही है। और जहां धर्म नही है, वहां सचमुच मतलब की बात नहीं है। निरर्थक थूक-बिलोवन है, जिसमे कोई सार नही, कोई नवनीत नही। जिसमें किसी का कोई हित-सुख नही, किसी का कोई मंगल-कल्याण नही। किसी को कोई प्राप्ति उपलब्धि नही।_* ईश्वरवादियों और निरीश्वरवादियों के अथवा ईश्वरवादियों में भी त्रैत, द्वैत, अद्वैत, विशिष्टाद्वैत, द्वैताद्वैत वादियों के या सगुण साकार, सगुण निराकार, अथवा निर्गुण निराकार वादियों के पारस्परिक वादविवादों में उलझकर किसी को क्या मिल जाने वाला है..? हर दार्शनिक विवाद बुद्धि-किलोल है, बुद्धि विलास है, दिमागी द्वन्द है, जिसमें जीतने वाला अभिमान से अपना सिर सुजा लेता है और हारने वाला अपमान से दिल जला लेता है। दोनों ही विग्रह बढ़ाने के कारण बनते हैं। विग्रह से आज तक किसी को कोई लाभ हुआ नहीं, कोई शांति मिली नहीं। अतः इस दिमागी कसरत की बात छोड़ कर मतलब की बात करें, लाभ की बात करें, सही धर्म की बात करें। एक रोगी के मतलब की बात यही है कि वह अपना सही रोग जाने, रोग का कारण जाने, इस तथ्य को जाने की रोग का कारण दूर करके रोग निवारण किया जा सकता है अन्यथा नहीं। मतलब की बात करें।" - गुरु सत्यनारायण गोयनका कहते है: धम्म क्या है..? बोधिसत्व बाबासाहेब ने अपने ग्रंथ "बुद्ध और उनका धम्म" में धम्म, अधम्म और सद्धम की व्याख्या की है। वहीं सही धर्म है बाकी कोरी कल्पना और वाणी विलास है। बुद्ध ने कहा- "सब्ब पापस्स अकरणं, कुसलस्स उपसम्पदा। सचितपरियोदपनं एतं बुद्धान सासनं ।।" पाप कर्मों से बचें, पुण्य कर्मों को करें, अपने मन को परिशुद्ध करें। जीवन आनंदमय हो जाएगा। *इसी जीवन को आनंदमय रखकर, कुटुंब, समाज और अंत में देश में आनंद की निरमिती करना जीवन का लक्ष हो, यही सभी की धारणा हो..! इसी धारणा के साथ यह मिली अनमोल जीवन यात्रा की समाप्ति "निर्वाण याने शून्य में, अमरत्व में" समाप्त करनी है..! यही प्रज्ञा है..!! यही भारतीय संविधान का उद्देश्य है..!! यही भगवान बुद्ध का सूत्र है* आप की सुख की परिभाषा ये है..? फिर ब्राह्मणी हिन्दू धर्म में सभी लोग ब्राह्मण क्यो नही है..! उस में ब.क.वा.स. क्यो.?? ( ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र..) वसुधैव कुटुंबकम केवल मंचपर बोलना सुख है..? जीवन प्रवास के आचरन क्या..?? समज के प्रत्येक घटक को दु:ख दे कर ऐसे ही मारना जीवन का उद्देश्य होता है..?
पूजनीय दत्तोपंत जी ठेंगड़ी के विस्तृत भाषण अपलोड करने के लिये आप का बहुत आभार। वास्तव में परम पूजनीय डॉक्टर जी का सारा जीवन संघ की ठीक प्रकार से नींव रखने के महत्वपूर्ण कार्य में समर्पित हो गया। परम पूजनीय श्री गुरुजी के सार्वजनिक उद्बोधन ही अधिकांश में उपलब्ध है, अधिकांश नीतिगत विषय बहुधा अनौपचारिक बैठकों में या वरिष्ठ कार्यकर्ताऔ के साथ बात-चीत या गपशप में ही प्रकट किये गये जो आज उपलब्ध नहीं है। फिर पंडित दीनदयाल जी से बहुत अपेक्षायें थी, लेकिन दुर्भाग्यवश उनका अल्पवय में देहावसान हो गया। हिन्दू विचार या संघ विचार के सभी आयामों पर अधिकृत मार्गदर्शन के लिये सभी कार्यकर्ता दत्तोपंत जी की और ही देखते है। इस दृष्टि से इन बौधिक वर्गों का राष्ट्रीय महत्व है।पुन:आपका बहुत बहुत आभार।
सुख की अवधारणा का शेष धर्म के आधार पर जीवन की रचना की तो वह जीवन अखंड सुख, चिरंतन सुख, घनीभूत सुख, की प्राप्ति कर सकता है। इस तरह का जो आश्वासन है, श्रेष्ठ आश्वासन है वह हमारे द्रष्टाओ ने हमें दिया है। यह धर्म हमारा मार्गदर्शन करता है। तो व्यष्टि जीवन, समिष्टी जीवन किस तरह चिरंतन, घनीभूत, और अखंड सुख की प्राप्ति कर सकता है, इसका मार्गदर्शन धर्म करता है। और इसलिए मैंने कहा कि स्वयं अपने लिए विचार करना कठिन होता है। निर्णय लेना तो और भी कठिन हो जाता है। इससे हर एक को लगता है कि कोई बताने वाला होगा तो और भी अच्छा होगा। हमारे सौभाग्य से हिंदू समाज को यह मार्गदर्शन उपलब्ध है। और कहीं यह बात नहीं है। इतने स्पष्ट रूप से, विशद रूप से कहीं बताया गया होगा तो वह धर्म है। वह धर्म हमारे सभी विचारों का आधार है, सभी आचारों का आधार है। जीवन का मार्गदर्शन करने वाला सिद्धांत है। इस नाते हम धर्म को लेंगे, उसके अनुसार हम अपने जीवन को बनाएं। अपनी प्रार्थना में भी कहा गया है 'परम वैभवम नेतु मेतत स्व राष्ट्रम।' राष्ट्र का परम वैभव भी प्राप्त करना हो तो उसके लिए भी जो पूर्व शर्त है, प्री रिक्वेस्ट है, वह है धर्म की रक्षा। व्यक्ति को चिरंतन सुख प्राप्त करना है तो उसका आधार है धर्म की रक्षा तो हम अपना मन, हम अपनी बुद्धि, हम अपना शरीर, जिसे परम पूजनीय श्री गुरुजी ने कहा कि यह एक प्रकार से ट्रस्ट है। तुम्हारा शरीर, तुम्हारी बुद्धि, तुम्हारा मन, यह सब ट्रस्ट है। यह भगवान घड़ता है, भगवान ने तुम्हें दिया है, एक ट्रस्टी के नाते तुम्हें इसका उपयोग करना चाहिए। यह ट्रस्टी के नाते इसका सही उपयोग हम कैसे कर सकते हैं इसका ठीक मार्गदर्शन हम धर्म से पाते हैं। तो ऐसे धर्म का पालन करें और इस धर्म के अनुकूल स्वयं को बनाएं। अपने शरीर को बनाएं, मन को बनाएं, बुद्धि को बनाए, आत्मा को बनाएं, धर्म के अनुकूल बनाएं और इस दृष्टि से धर्म के अनुकूल बनाना केवल बुद्धि से संभव नहीं, तो इसके अनुसार संस्कार हम ग्रहण करें। यह संस्कार हम प्रतिदिन ग्रहण करें ताकि प्रतिदिन संस्कार देने के कारण शरीर, मन, बुद्धि, आत्मा का उस तरह का विकास हो सके और इस तरह हम पूर्णरूपेण धर्म प्रवण बने और धर्म की योजना में स्वयं को बिठायें, स्वयं अपने को बिठाए इन संस्कारों के आधार पर, दिन प्रतिदिन जो संस्कार हम ग्रहण करते हैं उनके आधार पर, हम अपने शरीर, मन, बुद्धि, आत्मा को धर्म की योजना में बराबर बिठायें और इस तरह से व्यष्टि जीवन का संपूर्ण विकास, समिष्टी जीवन का संपूर्ण विकास यह इसका अभिप्राय है, यह उसका उद्दिष्ट है। दूसरा धर्म की योजना में स्वयं को बिठाने के कारण हम अपने व्यष्टि जीवन को चिरंतन सुख प्राप्त करा दे सके, समिष्टी जीवन को परम वैभव प्राप्त करा दे सके, इस तरह की जो योजना है वही हमारे लिए श्रेयष्कर है, यह सारा विचार हम अपने जीवन के बारे में करें क्योंकि जैसे मैंने कहा हम अभी अपना जीवन बनाने जा रहे हैं। अभी हमें विचार करना है कि आगे हम क्या करेंगे तो। इस दृष्टि से अपने जीवन के बारे में हम पूरा विचार करें। मार्गदर्शन प्राप्त होता है, वह मार्गदर्शन प्राप्त कर के जीवन के बारे में विचार करें और वह विचार करने के पश्चात एक बार यदि हमारा ध्येय निश्चित हो जाता है, तो फिर उस ध्येय के अनुसार, इधर-उधर न देखते हुए, विचलित, चंचलता मन में ना आने देते हुए, मन को दोलायमान, आंदोलित ना होने देते हुए, उस ध्येय के मार्ग पर हम अखंड चलते रहें, यही वास्तव में हमारे लिए श्रेयष्कर मार्ग है। इतना कहना पर्याप्त है।
अन्तिम भाग अत्यंत अस्पष्ट है। उसको सैकड़ों बार सुनने के बाद में कुछ अनुमान के आधार पर हमने लिपिबद्ध किया है। उसको किसी दिन हम यहां कमेंट में लिखेंगे ऐसा विचार किया है। मेरा अनुरोध है कि इस विषय पर दत्तोपंत ठेंगड़ी जी की विख्यात पुस्तक कार्यकर्ता के प्रथम भाग में सुख की अवधारणा पर बहुत विस्तृत आलेख है। जो आपको अत्यंत अच्छा लगेगा ऐसा मेरा निवेदन है।
सुख की अवधारणा का शेष धर्म के आधार पर जीवन की रचना की तो वह जीवन अखंड सुख, चिरंतन सुख, घनीभूत सुख, की प्राप्ति कर सकता है। इस तरह का जो आश्वासन है, श्रेष्ठ आश्वासन है वह हमारे द्रष्टाओ ने हमें दिया है। यह धर्म हमारा मार्गदर्शन करता है। तो व्यष्टि जीवन, समिष्टी जीवन किस तरह चिरंतन, घनीभूत, और अखंड सुख की प्राप्ति कर सकता है, इसका मार्गदर्शन धर्म करता है। और इसलिए मैंने कहा कि स्वयं अपने लिए विचार करना कठिन होता है। निर्णय लेना तो और भी कठिन हो जाता है। इससे हर एक को लगता है कि कोई बताने वाला होगा तो और भी अच्छा होगा। हमारे सौभाग्य से हिंदू समाज को यह मार्गदर्शन उपलब्ध है। और कहीं यह बात नहीं है। इतने स्पष्ट रूप से, विशद रूप से कहीं बताया गया होगा तो वह धर्म है। वह धर्म हमारे सभी विचारों का आधार है, सभी आचारों का आधार है। जीवन का मार्गदर्शन करने वाला सिद्धांत है। इस नाते हम धर्म को लेंगे, उसके अनुसार हम अपने जीवन को बनाएं। अपनी प्रार्थना में भी कहा गया है 'परम वैभवम नेतु मेतत स्व राष्ट्रम।' राष्ट्र का परम वैभव भी प्राप्त करना हो तो उसके लिए भी जो पूर्व शर्त है, प्री रिक्वेस्ट है, वह है धर्म की रक्षा। व्यक्ति को चिरंतन सुख प्राप्त करना है तो उसका आधार है धर्म की रक्षा तो हम अपना मन, हम अपनी बुद्धि, हम अपना शरीर, जिसे परम पूजनीय श्री गुरुजी ने कहा कि यह एक प्रकार से ट्रस्ट है। तुम्हारा शरीर, तुम्हारी बुद्धि, तुम्हारा मन, यह सब ट्रस्ट है। यह भगवान घड़ता है, भगवान ने तुम्हें दिया है, एक ट्रस्टी के नाते तुम्हें इसका उपयोग करना चाहिए। यह ट्रस्टी के नाते इसका सही उपयोग हम कैसे कर सकते हैं इसका ठीक मार्गदर्शन हम धर्म से पाते हैं। तो ऐसे धर्म का पालन करें और इस धर्म के अनुकूल स्वयं को बनाएं। अपने शरीर को बनाएं, मन को बनाएं, बुद्धि को बनाए, आत्मा को बनाएं, धर्म के अनुकूल बनाएं और इस दृष्टि से धर्म के अनुकूल बनाना केवल बुद्धि से संभव नहीं, तो इसके अनुसार संस्कार हम ग्रहण करें। यह संस्कार हम प्रतिदिन ग्रहण करें ताकि प्रतिदिन संस्कार देने के कारण शरीर, मन, बुद्धि, आत्मा का उस तरह का विकास हो सके और इस तरह हम पूर्णरूपेण धर्म प्रवण बने और धर्म की योजना में स्वयं को बिठायें, स्वयं अपने को बिठाए इन संस्कारों के आधार पर, दिन प्रतिदिन जो संस्कार हम ग्रहण करते हैं उनके आधार पर, हम अपने शरीर, मन, बुद्धि, आत्मा को धर्म की योजना में बराबर बिठायें और इस तरह से व्यष्टि जीवन का संपूर्ण विकास, समिष्टी जीवन का संपूर्ण विकास यह इसका अभिप्राय है, यह उसका उद्दिष्ट है। दूसरा धर्म की योजना में स्वयं को बिठाने के कारण हम अपने व्यष्टि जीवन को चिरंतन सुख प्राप्त करा दे सके, समिष्टी जीवन को परम वैभव प्राप्त करा दे सके, इस तरह की जो योजना है वही हमारे लिए श्रेयष्कर है, यह सारा विचार हम अपने जीवन के बारे में करें क्योंकि जैसे मैंने कहा हम अभी अपना जीवन बनाने जा रहे हैं। अभी हमें विचार करना है कि आगे हम क्या करेंगे तो। इस दृष्टि से अपने जीवन के बारे में हम पूरा विचार करें। मार्गदर्शन प्राप्त होता है, वह मार्गदर्शन प्राप्त कर के जीवन के बारे में विचार करें और वह विचार करने के पश्चात एक बार यदि हमारा ध्येय निश्चित हो जाता है, तो फिर उस ध्येय के अनुसार, इधर-उधर न देखते हुए, विचलित, चंचलता मन में ना आने देते हुए, मन को दोलायमान, आंदोलित ना होने देते हुए, उस ध्येय के मार्ग पर हम अखंड चलते रहें, यही वास्तव में हमारे लिए श्रेयष्कर मार्ग है। इतना कहना पर्याप्त है।
जी नमस्कार । अपने प्रचारकों द्वारा समय-समय पर दिया गया मार्ग दर्शन/ उनका बौद्धिक संग्रह यदि उपलब्ध हो तो ,कृपया उसे श्रंखलाबद्ध ढंग से प्रसारित करें।पूरे विश्व के लिए विभिन्न भाषाओं में इसकी व्यवस्था हो जाए तो,यह उनके लिए भी कल्याणकारी सिद्ध हो सकता है ।
सुख की अवधारणा का शेष धर्म के आधार पर जीवन की रचना की तो वह जीवन अखंड सुख, चिरंतन सुख, घनीभूत सुख, की प्राप्ति कर सकता है। इस तरह का जो आश्वासन है, श्रेष्ठ आश्वासन है वह हमारे द्रष्टाओ ने हमें दिया है। यह धर्म हमारा मार्गदर्शन करता है। तो व्यष्टि जीवन, समिष्टी जीवन किस तरह चिरंतन, घनीभूत, और अखंड सुख की प्राप्ति कर सकता है, इसका मार्गदर्शन धर्म करता है। और इसलिए मैंने कहा कि स्वयं अपने लिए विचार करना कठिन होता है। निर्णय लेना तो और भी कठिन हो जाता है। इससे हर एक को लगता है कि कोई बताने वाला होगा तो और भी अच्छा होगा। हमारे सौभाग्य से हिंदू समाज को यह मार्गदर्शन उपलब्ध है। और कहीं यह बात नहीं है। इतने स्पष्ट रूप से, विशद रूप से कहीं बताया गया होगा तो वह धर्म है। वह धर्म हमारे सभी विचारों का आधार है, सभी आचारों का आधार है। जीवन का मार्गदर्शन करने वाला सिद्धांत है। इस नाते हम धर्म को लेंगे, उसके अनुसार हम अपने जीवन को बनाएं। अपनी प्रार्थना में भी कहा गया है 'परम वैभवम नेतु मेतत स्व राष्ट्रम।' राष्ट्र का परम वैभव भी प्राप्त करना हो तो उसके लिए भी जो पूर्व शर्त है, प्री रिक्वेस्ट है, वह है धर्म की रक्षा। व्यक्ति को चिरंतन सुख प्राप्त करना है तो उसका आधार है धर्म की रक्षा तो हम अपना मन, हम अपनी बुद्धि, हम अपना शरीर, जिसे परम पूजनीय श्री गुरुजी ने कहा कि यह एक प्रकार से ट्रस्ट है। तुम्हारा शरीर, तुम्हारी बुद्धि, तुम्हारा मन, यह सब ट्रस्ट है। यह भगवान घड़ता है, भगवान ने तुम्हें दिया है, एक ट्रस्टी के नाते तुम्हें इसका उपयोग करना चाहिए। यह ट्रस्टी के नाते इसका सही उपयोग हम कैसे कर सकते हैं इसका ठीक मार्गदर्शन हम धर्म से पाते हैं। तो ऐसे धर्म का पालन करें और इस धर्म के अनुकूल स्वयं को बनाएं। अपने शरीर को बनाएं, मन को बनाएं, बुद्धि को बनाए, आत्मा को बनाएं, धर्म के अनुकूल बनाएं और इस दृष्टि से धर्म के अनुकूल बनाना केवल बुद्धि से संभव नहीं, तो इसके अनुसार संस्कार हम ग्रहण करें। यह संस्कार हम प्रतिदिन ग्रहण करें ताकि प्रतिदिन संस्कार देने के कारण शरीर, मन, बुद्धि, आत्मा का उस तरह का विकास हो सके और इस तरह हम पूर्णरूपेण धर्म प्रवण बने और धर्म की योजना में स्वयं को बिठायें, स्वयं अपने को बिठाए इन संस्कारों के आधार पर, दिन प्रतिदिन जो संस्कार हम ग्रहण करते हैं उनके आधार पर, हम अपने शरीर, मन, बुद्धि, आत्मा को धर्म की योजना में बराबर बिठायें और इस तरह से व्यष्टि जीवन का संपूर्ण विकास, समिष्टी जीवन का संपूर्ण विकास यह इसका अभिप्राय है, यह उसका उद्दिष्ट है। दूसरा धर्म की योजना में स्वयं को बिठाने के कारण हम अपने व्यष्टि जीवन को चिरंतन सुख प्राप्त करा दे सके, समिष्टी जीवन को परम वैभव प्राप्त करा दे सके, इस तरह की जो योजना है वही हमारे लिए श्रेयष्कर है, यह सारा विचार हम अपने जीवन के बारे में करें क्योंकि जैसे मैंने कहा हम अभी अपना जीवन बनाने जा रहे हैं। अभी हमें विचार करना है कि आगे हम क्या करेंगे तो। इस दृष्टि से अपने जीवन के बारे में हम पूरा विचार करें। मार्गदर्शन प्राप्त होता है, वह मार्गदर्शन प्राप्त कर के जीवन के बारे में विचार करें और वह विचार करने के पश्चात एक बार यदि हमारा ध्येय निश्चित हो जाता है, तो फिर उस ध्येय के अनुसार, इधर-उधर न देखते हुए, विचलित, चंचलता मन में ना आने देते हुए, मन को दोलायमान, आंदोलित ना होने देते हुए, उस ध्येय के मार्ग पर हम अखंड चलते रहें, यही वास्तव में हमारे लिए श्रेयष्कर मार्ग है। इतना कहना पर्याप्त है।
सुख की अवधारणा का शेष धर्म के आधार पर जीवन की रचना की तो वह जीवन अखंड सुख, चिरंतन सुख, घनीभूत सुख, की प्राप्ति कर सकता है। इस तरह का जो आश्वासन है, श्रेष्ठ आश्वासन है वह हमारे द्रष्टाओ ने हमें दिया है। यह धर्म हमारा मार्गदर्शन करता है। तो व्यष्टि जीवन, समिष्टी जीवन किस तरह चिरंतन, घनीभूत, और अखंड सुख की प्राप्ति कर सकता है, इसका मार्गदर्शन धर्म करता है। और इसलिए मैंने कहा कि स्वयं अपने लिए विचार करना कठिन होता है। निर्णय लेना तो और भी कठिन हो जाता है। इससे हर एक को लगता है कि कोई बताने वाला होगा तो और भी अच्छा होगा। हमारे सौभाग्य से हिंदू समाज को यह मार्गदर्शन उपलब्ध है। और कहीं यह बात नहीं है। इतने स्पष्ट रूप से, विशद रूप से कहीं बताया गया होगा तो वह धर्म है। वह धर्म हमारे सभी विचारों का आधार है, सभी आचारों का आधार है। जीवन का मार्गदर्शन करने वाला सिद्धांत है। इस नाते हम धर्म को लेंगे, उसके अनुसार हम अपने जीवन को बनाएं। अपनी प्रार्थना में भी कहा गया है 'परम वैभवम नेतु मेतत स्व राष्ट्रम।' राष्ट्र का परम वैभव भी प्राप्त करना हो तो उसके लिए भी जो पूर्व शर्त है, प्री रिक्वेस्ट है, वह है धर्म की रक्षा। व्यक्ति को चिरंतन सुख प्राप्त करना है तो उसका आधार है धर्म की रक्षा तो हम अपना मन, हम अपनी बुद्धि, हम अपना शरीर, जिसे परम पूजनीय श्री गुरुजी ने कहा कि यह एक प्रकार से ट्रस्ट है। तुम्हारा शरीर, तुम्हारी बुद्धि, तुम्हारा मन, यह सब ट्रस्ट है। यह भगवान घड़ता है, भगवान ने तुम्हें दिया है, एक ट्रस्टी के नाते तुम्हें इसका उपयोग करना चाहिए। यह ट्रस्टी के नाते इसका सही उपयोग हम कैसे कर सकते हैं इसका ठीक मार्गदर्शन हम धर्म से पाते हैं। तो ऐसे धर्म का पालन करें और इस धर्म के अनुकूल स्वयं को बनाएं। अपने शरीर को बनाएं, मन को बनाएं, बुद्धि को बनाए, आत्मा को बनाएं, धर्म के अनुकूल बनाएं और इस दृष्टि से धर्म के अनुकूल बनाना केवल बुद्धि से संभव नहीं, तो इसके अनुसार संस्कार हम ग्रहण करें। यह संस्कार हम प्रतिदिन ग्रहण करें ताकि प्रतिदिन संस्कार देने के कारण शरीर, मन, बुद्धि, आत्मा का उस तरह का विकास हो सके और इस तरह हम पूर्णरूपेण धर्म प्रवण बने और धर्म की योजना में स्वयं को बिठायें, स्वयं अपने को बिठाए इन संस्कारों के आधार पर, दिन प्रतिदिन जो संस्कार हम ग्रहण करते हैं उनके आधार पर, हम अपने शरीर, मन, बुद्धि, आत्मा को धर्म की योजना में बराबर बिठायें और इस तरह से व्यष्टि जीवन का संपूर्ण विकास, समिष्टी जीवन का संपूर्ण विकास यह इसका अभिप्राय है, यह उसका उद्दिष्ट है। दूसरा धर्म की योजना में स्वयं को बिठाने के कारण हम अपने व्यष्टि जीवन को चिरंतन सुख प्राप्त करा दे सके, समिष्टी जीवन को परम वैभव प्राप्त करा दे सके, इस तरह की जो योजना है वही हमारे लिए श्रेयष्कर है, यह सारा विचार हम अपने जीवन के बारे में करें क्योंकि जैसे मैंने कहा हम अभी अपना जीवन बनाने जा रहे हैं। अभी हमें विचार करना है कि आगे हम क्या करेंगे तो। इस दृष्टि से अपने जीवन के बारे में हम पूरा विचार करें। मार्गदर्शन प्राप्त होता है, वह मार्गदर्शन प्राप्त कर के जीवन के बारे में विचार करें और वह विचार करने के पश्चात एक बार यदि हमारा ध्येय निश्चित हो जाता है, तो फिर उस ध्येय के अनुसार, इधर-उधर न देखते हुए, विचलित, चंचलता मन में ना आने देते हुए, मन को दोलायमान, आंदोलित ना होने देते हुए, उस ध्येय के मार्ग पर हम अखंड चलते रहें, यही वास्तव में हमारे लिए श्रेयष्कर मार्ग है। इतना कहना पर्याप्त है।
सुख की अवधारणा का शेष धर्म के आधार पर जीवन की रचना की तो वह जीवन अखंड सुख, चिरंतन सुख, घनीभूत सुख, की प्राप्ति कर सकता है। इस तरह का जो आश्वासन है, श्रेष्ठ आश्वासन है वह हमारे द्रष्टाओ ने हमें दिया है। यह धर्म हमारा मार्गदर्शन करता है। तो व्यष्टि जीवन, समिष्टी जीवन किस तरह चिरंतन, घनीभूत, और अखंड सुख की प्राप्ति कर सकता है, इसका मार्गदर्शन धर्म करता है। और इसलिए मैंने कहा कि स्वयं अपने लिए विचार करना कठिन होता है। निर्णय लेना तो और भी कठिन हो जाता है। इससे हर एक को लगता है कि कोई बताने वाला होगा तो और भी अच्छा होगा। हमारे सौभाग्य से हिंदू समाज को यह मार्गदर्शन उपलब्ध है। और कहीं यह बात नहीं है। इतने स्पष्ट रूप से, विशद रूप से कहीं बताया गया होगा तो वह धर्म है। वह धर्म हमारे सभी विचारों का आधार है, सभी आचारों का आधार है। जीवन का मार्गदर्शन करने वाला सिद्धांत है। इस नाते हम धर्म को लेंगे, उसके अनुसार हम अपने जीवन को बनाएं। अपनी प्रार्थना में भी कहा गया है 'परम वैभवम नेतु मेतत स्व राष्ट्रम।' राष्ट्र का परम वैभव भी प्राप्त करना हो तो उसके लिए भी जो पूर्व शर्त है, प्री रिक्वेस्ट है, वह है धर्म की रक्षा। व्यक्ति को चिरंतन सुख प्राप्त करना है तो उसका आधार है धर्म की रक्षा तो हम अपना मन, हम अपनी बुद्धि, हम अपना शरीर, जिसे परम पूजनीय श्री गुरुजी ने कहा कि यह एक प्रकार से ट्रस्ट है। तुम्हारा शरीर, तुम्हारी बुद्धि, तुम्हारा मन, यह सब ट्रस्ट है। यह भगवान घड़ता है, भगवान ने तुम्हें दिया है, एक ट्रस्टी के नाते तुम्हें इसका उपयोग करना चाहिए। यह ट्रस्टी के नाते इसका सही उपयोग हम कैसे कर सकते हैं इसका ठीक मार्गदर्शन हम धर्म से पाते हैं। तो ऐसे धर्म का पालन करें और इस धर्म के अनुकूल स्वयं को बनाएं। अपने शरीर को बनाएं, मन को बनाएं, बुद्धि को बनाए, आत्मा को बनाएं, धर्म के अनुकूल बनाएं और इस दृष्टि से धर्म के अनुकूल बनाना केवल बुद्धि से संभव नहीं, तो इसके अनुसार संस्कार हम ग्रहण करें। यह संस्कार हम प्रतिदिन ग्रहण करें ताकि प्रतिदिन संस्कार देने के कारण शरीर, मन, बुद्धि, आत्मा का उस तरह का विकास हो सके और इस तरह हम पूर्णरूपेण धर्म प्रवण बने और धर्म की योजना में स्वयं को बिठायें, स्वयं अपने को बिठाए इन संस्कारों के आधार पर, दिन प्रतिदिन जो संस्कार हम ग्रहण करते हैं उनके आधार पर, हम अपने शरीर, मन, बुद्धि, आत्मा को धर्म की योजना में बराबर बिठायें और इस तरह से व्यष्टि जीवन का संपूर्ण विकास, समिष्टी जीवन का संपूर्ण विकास यह इसका अभिप्राय है, यह उसका उद्दिष्ट है। दूसरा धर्म की योजना में स्वयं को बिठाने के कारण हम अपने व्यष्टि जीवन को चिरंतन सुख प्राप्त करा दे सके, समिष्टी जीवन को परम वैभव प्राप्त करा दे सके, इस तरह की जो योजना है वही हमारे लिए श्रेयष्कर है, यह सारा विचार हम अपने जीवन के बारे में करें क्योंकि जैसे मैंने कहा हम अभी अपना जीवन बनाने जा रहे हैं। अभी हमें विचार करना है कि आगे हम क्या करेंगे तो। इस दृष्टि से अपने जीवन के बारे में हम पूरा विचार करें। मार्गदर्शन प्राप्त होता है, वह मार्गदर्शन प्राप्त कर के जीवन के बारे में विचार करें और वह विचार करने के पश्चात एक बार यदि हमारा ध्येय निश्चित हो जाता है, तो फिर उस ध्येय के अनुसार, इधर-उधर न देखते हुए, विचलित, चंचलता मन में ना आने देते हुए, मन को दोलायमान, आंदोलित ना होने देते हुए, उस ध्येय के मार्ग पर हम अखंड चलते रहें, यही वास्तव में हमारे लिए श्रेयष्कर मार्ग है। इतना कहना पर्याप्त है।
प्रयत्न करते हैं क्योंकि वह एकदम स्पष्ट नहीं सुनाई देता है फिर भी उसको लिखने का प्रयत्न किया है जैसा उपलब्ध है वैसा ही आपको भेजने का प्रयत्न करेंगे । नमस्कार।
सुख की अवधारणा का शेष धर्म के आधार पर जीवन की रचना की तो वह जीवन अखंड सुख, चिरंतन सुख, घनीभूत सुख, की प्राप्ति कर सकता है। इस तरह का जो आश्वासन है, श्रेष्ठ आश्वासन है वह हमारे द्रष्टाओ ने हमें दिया है। यह धर्म हमारा मार्गदर्शन करता है। तो व्यष्टि जीवन, समिष्टी जीवन किस तरह चिरंतन, घनीभूत, और अखंड सुख की प्राप्ति कर सकता है, इसका मार्गदर्शन धर्म करता है। और इसलिए मैंने कहा कि स्वयं अपने लिए विचार करना कठिन होता है। निर्णय लेना तो और भी कठिन हो जाता है। इससे हर एक को लगता है कि कोई बताने वाला होगा तो और भी अच्छा होगा। हमारे सौभाग्य से हिंदू समाज को यह मार्गदर्शन उपलब्ध है। और कहीं यह बात नहीं है। इतने स्पष्ट रूप से, विशद रूप से कहीं बताया गया होगा तो वह धर्म है। वह धर्म हमारे सभी विचारों का आधार है, सभी आचारों का आधार है। जीवन का मार्गदर्शन करने वाला सिद्धांत है। इस नाते हम धर्म को लेंगे, उसके अनुसार हम अपने जीवन को बनाएं। अपनी प्रार्थना में भी कहा गया है 'परम वैभवम नेतु मेतत स्व राष्ट्रम।' राष्ट्र का परम वैभव भी प्राप्त करना हो तो उसके लिए भी जो पूर्व शर्त है, प्री रिक्वेस्ट है, वह है धर्म की रक्षा। व्यक्ति को चिरंतन सुख प्राप्त करना है तो उसका आधार है धर्म की रक्षा तो हम अपना मन, हम अपनी बुद्धि, हम अपना शरीर, जिसे परम पूजनीय श्री गुरुजी ने कहा कि यह एक प्रकार से ट्रस्ट है। तुम्हारा शरीर, तुम्हारी बुद्धि, तुम्हारा मन, यह सब ट्रस्ट है। यह भगवान घड़ता है, भगवान ने तुम्हें दिया है, एक ट्रस्टी के नाते तुम्हें इसका उपयोग करना चाहिए। यह ट्रस्टी के नाते इसका सही उपयोग हम कैसे कर सकते हैं इसका ठीक मार्गदर्शन हम धर्म से पाते हैं। तो ऐसे धर्म का पालन करें और इस धर्म के अनुकूल स्वयं को बनाएं। अपने शरीर को बनाएं, मन को बनाएं, बुद्धि को बनाए, आत्मा को बनाएं, धर्म के अनुकूल बनाएं और इस दृष्टि से धर्म के अनुकूल बनाना केवल बुद्धि से संभव नहीं, तो इसके अनुसार संस्कार हम ग्रहण करें। यह संस्कार हम प्रतिदिन ग्रहण करें ताकि प्रतिदिन संस्कार देने के कारण शरीर, मन, बुद्धि, आत्मा का उस तरह का विकास हो सके और इस तरह हम पूर्णरूपेण धर्म प्रवण बने और धर्म की योजना में स्वयं को बिठायें, स्वयं अपने को बिठाए इन संस्कारों के आधार पर, दिन प्रतिदिन जो संस्कार हम ग्रहण करते हैं उनके आधार पर, हम अपने शरीर, मन, बुद्धि, आत्मा को धर्म की योजना में बराबर बिठायें और इस तरह से व्यष्टि जीवन का संपूर्ण विकास, समिष्टी जीवन का संपूर्ण विकास यह इसका अभिप्राय है, यह उसका उद्दिष्ट है। दूसरा धर्म की योजना में स्वयं को बिठाने के कारण हम अपने व्यष्टि जीवन को चिरंतन सुख प्राप्त करा दे सके, समिष्टी जीवन को परम वैभव प्राप्त करा दे सके, इस तरह की जो योजना है वही हमारे लिए श्रेयष्कर है, यह सारा विचार हम अपने जीवन के बारे में करें क्योंकि जैसे मैंने कहा हम अभी अपना जीवन बनाने जा रहे हैं। अभी हमें विचार करना है कि आगे हम क्या करेंगे तो। इस दृष्टि से अपने जीवन के बारे में हम पूरा विचार करें। मार्गदर्शन प्राप्त होता है, वह मार्गदर्शन प्राप्त कर के जीवन के बारे में विचार करें और वह विचार करने के पश्चात एक बार यदि हमारा ध्येय निश्चित हो जाता है, तो फिर उस ध्येय के अनुसार, इधर-उधर न देखते हुए, विचलित, चंचलता मन में ना आने देते हुए, मन को दोलायमान, आंदोलित ना होने देते हुए, उस ध्येय के मार्ग पर हम अखंड चलते रहें, यही वास्तव में हमारे लिए श्रेयष्कर मार्ग है। इतना कहना पर्याप्त है।
सुख की अवधारणा का शेष
धर्म के आधार पर जीवन की रचना की तो वह जीवन अखंड सुख, चिरंतन सुख, घनीभूत सुख, की प्राप्ति कर सकता है। इस तरह का जो आश्वासन है, श्रेष्ठ आश्वासन है वह हमारे द्रष्टाओ ने हमें दिया है। यह धर्म हमारा मार्गदर्शन करता है। तो व्यष्टि जीवन, समिष्टी जीवन किस तरह चिरंतन, घनीभूत, और अखंड सुख की प्राप्ति कर सकता है, इसका मार्गदर्शन धर्म करता है। और इसलिए मैंने कहा कि स्वयं अपने लिए विचार करना कठिन होता है। निर्णय लेना तो और भी कठिन हो जाता है। इससे हर एक को लगता है कि कोई बताने वाला होगा तो और भी अच्छा होगा। हमारे सौभाग्य से हिंदू समाज को यह मार्गदर्शन उपलब्ध है। और कहीं यह बात नहीं है। इतने स्पष्ट रूप से, विशद रूप से कहीं बताया गया होगा तो वह धर्म है। वह धर्म हमारे सभी विचारों का आधार है, सभी आचारों का आधार है। जीवन का मार्गदर्शन करने वाला सिद्धांत है। इस नाते हम धर्म को लेंगे, उसके अनुसार हम अपने जीवन को बनाएं। अपनी प्रार्थना में भी कहा गया है 'परम वैभवम नेतु मेतत स्व राष्ट्रम।'
राष्ट्र का परम वैभव भी प्राप्त करना हो तो उसके लिए भी जो पूर्व शर्त है, प्री रिक्वेस्ट है, वह है धर्म की रक्षा। व्यक्ति को चिरंतन सुख प्राप्त करना है तो उसका आधार है धर्म की रक्षा
तो हम अपना मन, हम अपनी बुद्धि, हम अपना शरीर, जिसे परम पूजनीय श्री गुरुजी ने कहा कि यह एक प्रकार से ट्रस्ट है। तुम्हारा शरीर, तुम्हारी बुद्धि, तुम्हारा मन, यह सब ट्रस्ट है। यह भगवान घड़ता है, भगवान ने तुम्हें दिया है, एक ट्रस्टी के नाते तुम्हें इसका उपयोग करना चाहिए। यह ट्रस्टी के नाते इसका सही उपयोग हम कैसे कर सकते हैं इसका ठीक मार्गदर्शन हम धर्म से पाते हैं। तो ऐसे धर्म का पालन करें और इस धर्म के अनुकूल स्वयं को बनाएं। अपने शरीर को बनाएं, मन को बनाएं, बुद्धि को बनाए, आत्मा को बनाएं, धर्म के अनुकूल बनाएं और इस दृष्टि से धर्म के अनुकूल बनाना केवल बुद्धि से संभव नहीं, तो इसके अनुसार संस्कार हम ग्रहण करें। यह संस्कार हम प्रतिदिन ग्रहण करें ताकि प्रतिदिन संस्कार देने के कारण शरीर, मन, बुद्धि, आत्मा का उस तरह का विकास हो सके और इस तरह हम पूर्णरूपेण धर्म प्रवण बने और धर्म की योजना में स्वयं को बिठायें, स्वयं अपने को बिठाए इन संस्कारों के आधार पर, दिन प्रतिदिन जो संस्कार हम ग्रहण करते हैं उनके आधार पर, हम अपने शरीर, मन, बुद्धि, आत्मा को धर्म की योजना में बराबर बिठायें और इस तरह से व्यष्टि जीवन का संपूर्ण विकास, समिष्टी जीवन का संपूर्ण विकास यह इसका अभिप्राय है, यह उसका उद्दिष्ट है। दूसरा धर्म की योजना में स्वयं को बिठाने के कारण हम अपने व्यष्टि जीवन को चिरंतन सुख प्राप्त करा दे सके, समिष्टी जीवन को परम वैभव प्राप्त करा दे सके, इस तरह की जो योजना है वही हमारे लिए श्रेयष्कर है, यह सारा विचार हम अपने जीवन के बारे में करें क्योंकि जैसे मैंने कहा हम अभी अपना जीवन बनाने जा रहे हैं। अभी हमें विचार करना है कि आगे हम क्या करेंगे तो। इस दृष्टि से अपने जीवन के बारे में हम पूरा विचार करें। मार्गदर्शन प्राप्त होता है, वह मार्गदर्शन प्राप्त कर के जीवन के बारे में विचार करें और वह विचार करने के पश्चात एक बार यदि हमारा ध्येय निश्चित हो जाता है, तो फिर उस ध्येय के अनुसार, इधर-उधर न देखते हुए, विचलित, चंचलता मन में ना आने देते हुए, मन को दोलायमान, आंदोलित ना होने देते हुए, उस ध्येय के मार्ग पर हम अखंड चलते रहें, यही वास्तव में हमारे लिए श्रेयष्कर मार्ग है। इतना कहना पर्याप्त है।
मोक्ष अर्थात् घनीभूत सुख ।
बहुत-बहुत धन्यवाद आभार !
"केवल धर्म ही व्यक्ति, समाज, देश और वैश्विक सुख का आधार है " यह सामाजिक विज्ञान का एक चिरंतन सिद्धांत है।
Jai Shree ram
बहुत-बहुत धन्यवाद आभार
सदैव प्रेरक कोटिश वंदन
बहुत-बहुत धन्यवाद आभार !
Naman
बहुत-बहुत धन्यवाद आभार !
वंदे मातरम💐💐
बहुत-बहुत धन्यवाद आभार !
अनमोल कल्प वृक्ष रूपी विचार उपलब्ध करवाने हेतु कोटि कोटि धन्यवाद
बहुत-बहुत धन्यवाद आभार !
Bahut sunder...
बहुत-बहुत धन्यवाद आभार!
इस बौद्धिक के बाद में एक दूसरा बौद्धिक वर्ग अगले दिन भी दिया गया है। इन दोनों बौद्धिक को आप लिखित भाषण के रूप में पढ़ सकते हैं। यहां लिंक दे रहा हूं- hinduway.org
ठेंगङी जी को जहाँ पहुंचना चाहिए था वहाँ नहीं पहुँच पाये।
श्रद्धेय दत्तोपंत ठेंगड़ी जी को जहां पहुंचना था वहां निश्चित रूप से पहुंच गए। लेकिन इस विश्व में उनको जिस स्थान पर रखना था वह काम हमको करना है।
सामयिक समय में मा. दत्तोपंत जी के इस उद्बोधन से अन्तःस्थल में एक अलौकिक शांति संचार हुआ। कोटि-कोटि वंदन।
बहुत-बहुत धन्यवाद आभार !
*क्या केवल खुद के सुख के लिए ही यह अनमोल जीवन प्राप्त हुआ है..???*
*धारण करे सो धर्म..! तो धारणा क्या है..??
जिस ज्ञान के बल पर ईश्वर के अस्तित्व का खंडन कर देना मात्र ही धर्म नही है, वैसे ही तर्कों के बल पर ईश्वर के अस्तित्व को सिद्ध कर देना मात्र भी धर्म नही है।
"भदन्त आनंद कौसल्यायान किसी धर्म प्रसंगवश वे अपने जीवन का कोई एक रोचक संस्मरण सुनाते हुए उन्होंने बताया - "पुरानी बात है। कानपुर के किसी एक बड़े व्यापारी के यहां ठहरा था, जो कि कट्टर आर्य समाजी था और बड़ा ईश्वर भक्त भी था। रोज प्रातःकाल वह अपने दुकान के सभी कर्मचारियों को घर पर एकत्र करता। हवन-यज्ञ, मंत्र-जाप और पाठ करने के बाद कुछ देर धर्म-चर्चा करता। यदि संयोगवश बाहर से कोई विद्वान आया होता तो उसी का धर्म-प्रवचन रखा जाता, अन्यथा सेठजी स्वयं धर्म-उपदेश देते। उस दिन मुझे ही धर्म प्रवचन के लिए कहा गया। उन दिनों मैं नया-नया बौद्ध भिक्षु बना था, इसलिए बड़ा जोश था। अतः उन ईश्वरवादियों के सामने ईश्वर के अस्तित्व का खंडन करने में मेरे पास जितने तर्क थे, उन सबका प्रयोग किया। खूब जोश-खरोश से भरा हुआ अपना वह लंबा प्रवचन जब समाप्त किया तब सेठजी ने हाथ जोड़ कर कहा, _"महाराज..! यह तो प्रवचन हुआ, अब जरा मतलब की बात हो जाय, कुछ धर्म की बाते हो जायँ।"_ संस्मरण सुनाकर आनंदजी ने हँसते हुए कहा कि मुझ पर घड़ों पानी पड़ गया। उस दिन मुझे जितना हतप्रभ होना पड़ा, उतना मैं कभी नही हुआ। मुझे लगा कि मेरी सारी ज्ञान-गरिमा, सारा तर्क-कौशल इस आदमी ने एक ही वाक्य में निरर्थक साबित कर दिया।"
सचमुच..! धर्म का सार कोरी तर्कबाजी में कहा धरा है..? धर्म के क्षेत्र में बुद्धि का उपयोग अत्यंत आवश्यक है, अन्यथा धर्म अंधश्रद्धा और मिथ्या दृष्टियों का गढ़ बन जाय। लेकिन धर्म को केवल मात्र तर्कजन्य बुद्धि किलोल का ही रूप दे दें तो भी वह निष्प्राण हो जाय। *_जिस प्रकार तर्को के बल पर ईश्वर के अस्तित्व का खंडन कर देना मात्र ही धर्म नही है, वैसे ही तर्कों के बल पर ईश्वर के अस्तित्व को सिद्ध कर देना मात्र भी धर्म नही है। और जहां धर्म नही है, वहां सचमुच मतलब की बात नहीं है। निरर्थक थूक-बिलोवन है, जिसमे कोई सार नही, कोई नवनीत नही। जिसमें किसी का कोई हित-सुख नही, किसी का कोई मंगल-कल्याण नही। किसी को कोई प्राप्ति उपलब्धि नही।_*
ईश्वरवादियों और निरीश्वरवादियों के अथवा ईश्वरवादियों में भी त्रैत, द्वैत, अद्वैत, विशिष्टाद्वैत, द्वैताद्वैत वादियों के या सगुण साकार, सगुण निराकार, अथवा निर्गुण निराकार वादियों के पारस्परिक वादविवादों में उलझकर किसी को क्या मिल जाने वाला है..? हर दार्शनिक विवाद बुद्धि-किलोल है, बुद्धि विलास है, दिमागी द्वन्द है, जिसमें जीतने वाला अभिमान से अपना सिर सुजा लेता है और हारने वाला अपमान से दिल जला लेता है। दोनों ही विग्रह बढ़ाने के कारण बनते हैं। विग्रह से आज तक किसी को कोई लाभ हुआ नहीं, कोई शांति मिली नहीं। अतः इस दिमागी कसरत की बात छोड़ कर मतलब की बात करें, लाभ की बात करें, सही धर्म की बात करें।
एक रोगी के मतलब की बात यही है कि वह अपना सही रोग जाने, रोग का कारण जाने, इस तथ्य को जाने की रोग का कारण दूर करके रोग निवारण किया जा सकता है अन्यथा नहीं।
मतलब की बात करें।"
- गुरु सत्यनारायण गोयनका कहते है: धम्म क्या है..?
बोधिसत्व बाबासाहेब ने अपने ग्रंथ "बुद्ध और उनका धम्म" में धम्म, अधम्म और सद्धम की व्याख्या की है। वहीं सही धर्म है बाकी कोरी कल्पना और वाणी विलास है।
बुद्ध ने कहा-
"सब्ब पापस्स अकरणं,
कुसलस्स उपसम्पदा।
सचितपरियोदपनं
एतं बुद्धान सासनं ।।"
पाप कर्मों से बचें,
पुण्य कर्मों को करें, अपने मन को परिशुद्ध करें।
जीवन आनंदमय हो जाएगा।
*इसी जीवन को आनंदमय रखकर, कुटुंब, समाज और अंत में देश में आनंद की निरमिती करना जीवन का लक्ष हो, यही सभी की धारणा हो..! इसी धारणा के साथ यह मिली अनमोल जीवन यात्रा की समाप्ति "निर्वाण याने शून्य में, अमरत्व में" समाप्त करनी है..! यही प्रज्ञा है..!! यही भारतीय संविधान का उद्देश्य है..!! यही भगवान बुद्ध का सूत्र है*
आप की सुख की परिभाषा ये है..?
फिर ब्राह्मणी हिन्दू धर्म में सभी लोग ब्राह्मण क्यो नही है..! उस में ब.क.वा.स. क्यो.?? ( ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र..) वसुधैव कुटुंबकम केवल मंचपर बोलना सुख है..? जीवन प्रवास के आचरन क्या..?? समज के प्रत्येक घटक को दु:ख दे कर ऐसे ही मारना जीवन का उद्देश्य होता है..?
आप अभि भी प्रवचन ही कर रहे है, मतलब की बात करने के लिये अनुभूती की आवशकता जरुरी होती है
Aap ek diamond ho Sanatan Samaaj ke liye.
बहुत बहुत धन्यवाद आभार
कुछ महीने पहले मैं श्रद्धेय दत्तोपंत जी की चीन यात्रा का वृत्तांत सुना था । पुनः सुनना चाहता हूँ । मैं उस व्याख्यान का शीर्षक भूल गया हूँ ।
ruclips.net/video/6I6nMhlHu_U/видео.html
चीन यात्रा के संस्मरण यहां लिंक दिया गया है
शत शत नमन
बहुत-बहुत धन्यवाद आभार !
पूजनीय दत्तोपंत जी ठेंगड़ी के विस्तृत भाषण अपलोड करने के लिये आप का बहुत आभार। वास्तव में परम पूजनीय डॉक्टर जी का सारा जीवन संघ की ठीक प्रकार से नींव रखने के महत्वपूर्ण कार्य में समर्पित हो गया। परम पूजनीय श्री गुरुजी के सार्वजनिक उद्बोधन ही अधिकांश में उपलब्ध है, अधिकांश नीतिगत विषय बहुधा अनौपचारिक बैठकों में या वरिष्ठ कार्यकर्ताऔ के साथ बात-चीत या गपशप में ही प्रकट किये गये जो आज उपलब्ध नहीं है। फिर पंडित दीनदयाल जी से बहुत अपेक्षायें थी, लेकिन दुर्भाग्यवश उनका अल्पवय में देहावसान हो गया। हिन्दू विचार या संघ विचार के सभी आयामों पर अधिकृत मार्गदर्शन के लिये सभी कार्यकर्ता दत्तोपंत जी की और ही देखते है। इस दृष्टि से इन बौधिक वर्गों का राष्ट्रीय महत्व है।पुन:आपका बहुत बहुत आभार।
बहुत-बहुत धन्यवाद आभार !
हृदयस्पर्शी ... एक-एक शब्द ऊर्जा व ज्ञान से ओतप्रोत ... अद्भुत 💐💐💐
बहुत-बहुत धन्यवाद आभार !
Bharat Mata ki Jai
बहुत-बहुत धन्यवाद आभार !
Naman to great personality 🙏
His wisdom will guide many generations to come.
Namami Bharat Mata....Jaytu Jaytu Bharat...
बहुत-बहुत धन्यवाद आभार !
सभी के खुशियों में हमारा सुख छुपा रहता है।
बहुत-बहुत धन्यवाद आभार !
🙏🏻🙏🏻🙏🏻
Please upload full video ji
Very poor quality audio cassette. But by experienced ears, It tried to pan down on comment.
ईस बौद्धिक का अंतिम चरण सबसे महत्वपूर्ण है. हो सके तो कृपया ईसे upload किजीए.
बहुत-बहुत धन्यवाद आभार !
वंदे मातृभूमि
लिखित स्वरूप का वो 5 मिनिट का भाषण आप अगर कंमेंट में लिख देंगे तो बडी अच्छी बात होगी...!💐
Pkk)
=
सुख की अवधारणा का शेष
धर्म के आधार पर जीवन की रचना की तो वह जीवन अखंड सुख, चिरंतन सुख, घनीभूत सुख, की प्राप्ति कर सकता है। इस तरह का जो आश्वासन है, श्रेष्ठ आश्वासन है वह हमारे द्रष्टाओ ने हमें दिया है। यह धर्म हमारा मार्गदर्शन करता है। तो व्यष्टि जीवन, समिष्टी जीवन किस तरह चिरंतन, घनीभूत, और अखंड सुख की प्राप्ति कर सकता है, इसका मार्गदर्शन धर्म करता है। और इसलिए मैंने कहा कि स्वयं अपने लिए विचार करना कठिन होता है। निर्णय लेना तो और भी कठिन हो जाता है। इससे हर एक को लगता है कि कोई बताने वाला होगा तो और भी अच्छा होगा। हमारे सौभाग्य से हिंदू समाज को यह मार्गदर्शन उपलब्ध है। और कहीं यह बात नहीं है। इतने स्पष्ट रूप से, विशद रूप से कहीं बताया गया होगा तो वह धर्म है। वह धर्म हमारे सभी विचारों का आधार है, सभी आचारों का आधार है। जीवन का मार्गदर्शन करने वाला सिद्धांत है। इस नाते हम धर्म को लेंगे, उसके अनुसार हम अपने जीवन को बनाएं। अपनी प्रार्थना में भी कहा गया है 'परम वैभवम नेतु मेतत स्व राष्ट्रम।'
राष्ट्र का परम वैभव भी प्राप्त करना हो तो उसके लिए भी जो पूर्व शर्त है, प्री रिक्वेस्ट है, वह है धर्म की रक्षा। व्यक्ति को चिरंतन सुख प्राप्त करना है तो उसका आधार है धर्म की रक्षा
तो हम अपना मन, हम अपनी बुद्धि, हम अपना शरीर, जिसे परम पूजनीय श्री गुरुजी ने कहा कि यह एक प्रकार से ट्रस्ट है। तुम्हारा शरीर, तुम्हारी बुद्धि, तुम्हारा मन, यह सब ट्रस्ट है। यह भगवान घड़ता है, भगवान ने तुम्हें दिया है, एक ट्रस्टी के नाते तुम्हें इसका उपयोग करना चाहिए। यह ट्रस्टी के नाते इसका सही उपयोग हम कैसे कर सकते हैं इसका ठीक मार्गदर्शन हम धर्म से पाते हैं। तो ऐसे धर्म का पालन करें और इस धर्म के अनुकूल स्वयं को बनाएं। अपने शरीर को बनाएं, मन को बनाएं, बुद्धि को बनाए, आत्मा को बनाएं, धर्म के अनुकूल बनाएं और इस दृष्टि से धर्म के अनुकूल बनाना केवल बुद्धि से संभव नहीं, तो इसके अनुसार संस्कार हम ग्रहण करें। यह संस्कार हम प्रतिदिन ग्रहण करें ताकि प्रतिदिन संस्कार देने के कारण शरीर, मन, बुद्धि, आत्मा का उस तरह का विकास हो सके और इस तरह हम पूर्णरूपेण धर्म प्रवण बने और धर्म की योजना में स्वयं को बिठायें, स्वयं अपने को बिठाए इन संस्कारों के आधार पर, दिन प्रतिदिन जो संस्कार हम ग्रहण करते हैं उनके आधार पर, हम अपने शरीर, मन, बुद्धि, आत्मा को धर्म की योजना में बराबर बिठायें और इस तरह से व्यष्टि जीवन का संपूर्ण विकास, समिष्टी जीवन का संपूर्ण विकास यह इसका अभिप्राय है, यह उसका उद्दिष्ट है। दूसरा धर्म की योजना में स्वयं को बिठाने के कारण हम अपने व्यष्टि जीवन को चिरंतन सुख प्राप्त करा दे सके, समिष्टी जीवन को परम वैभव प्राप्त करा दे सके, इस तरह की जो योजना है वही हमारे लिए श्रेयष्कर है, यह सारा विचार हम अपने जीवन के बारे में करें क्योंकि जैसे मैंने कहा हम अभी अपना जीवन बनाने जा रहे हैं। अभी हमें विचार करना है कि आगे हम क्या करेंगे तो। इस दृष्टि से अपने जीवन के बारे में हम पूरा विचार करें। मार्गदर्शन प्राप्त होता है, वह मार्गदर्शन प्राप्त कर के जीवन के बारे में विचार करें और वह विचार करने के पश्चात एक बार यदि हमारा ध्येय निश्चित हो जाता है, तो फिर उस ध्येय के अनुसार, इधर-उधर न देखते हुए, विचलित, चंचलता मन में ना आने देते हुए, मन को दोलायमान, आंदोलित ना होने देते हुए, उस ध्येय के मार्ग पर हम अखंड चलते रहें, यही वास्तव में हमारे लिए श्रेयष्कर मार्ग है। इतना कहना पर्याप्त है।
राष्ट्राय स्वाहा इदम् राष्ट्राय इदम् न मम
बहुत-बहुत धन्यवाद आभार !
भारत माता की जय।
बहुत-बहुत धन्यवाद आभार !
धन्यवाद यह व्हिडीओ उपलब्ध करने के लिये.
लेकिन जो सबसे महत्त्वपूर्ण भाग था, अंतिम भाग, वही अपूर्ण है . कृपया पूर्ण विडिओ उपलब्ध कर सकते है क्या ?
अन्तिम भाग अत्यंत अस्पष्ट है। उसको सैकड़ों बार सुनने के बाद में कुछ अनुमान के आधार पर हमने लिपिबद्ध किया है। उसको किसी दिन हम यहां कमेंट में लिखेंगे ऐसा विचार किया है।
मेरा अनुरोध है कि इस विषय पर दत्तोपंत ठेंगड़ी जी की विख्यात पुस्तक कार्यकर्ता के प्रथम भाग में सुख की अवधारणा पर बहुत विस्तृत आलेख है। जो आपको अत्यंत अच्छा लगेगा ऐसा मेरा निवेदन है।
सुख की अवधारणा का शेष
धर्म के आधार पर जीवन की रचना की तो वह जीवन अखंड सुख, चिरंतन सुख, घनीभूत सुख, की प्राप्ति कर सकता है। इस तरह का जो आश्वासन है, श्रेष्ठ आश्वासन है वह हमारे द्रष्टाओ ने हमें दिया है। यह धर्म हमारा मार्गदर्शन करता है। तो व्यष्टि जीवन, समिष्टी जीवन किस तरह चिरंतन, घनीभूत, और अखंड सुख की प्राप्ति कर सकता है, इसका मार्गदर्शन धर्म करता है। और इसलिए मैंने कहा कि स्वयं अपने लिए विचार करना कठिन होता है। निर्णय लेना तो और भी कठिन हो जाता है। इससे हर एक को लगता है कि कोई बताने वाला होगा तो और भी अच्छा होगा। हमारे सौभाग्य से हिंदू समाज को यह मार्गदर्शन उपलब्ध है। और कहीं यह बात नहीं है। इतने स्पष्ट रूप से, विशद रूप से कहीं बताया गया होगा तो वह धर्म है। वह धर्म हमारे सभी विचारों का आधार है, सभी आचारों का आधार है। जीवन का मार्गदर्शन करने वाला सिद्धांत है। इस नाते हम धर्म को लेंगे, उसके अनुसार हम अपने जीवन को बनाएं। अपनी प्रार्थना में भी कहा गया है 'परम वैभवम नेतु मेतत स्व राष्ट्रम।'
राष्ट्र का परम वैभव भी प्राप्त करना हो तो उसके लिए भी जो पूर्व शर्त है, प्री रिक्वेस्ट है, वह है धर्म की रक्षा। व्यक्ति को चिरंतन सुख प्राप्त करना है तो उसका आधार है धर्म की रक्षा
तो हम अपना मन, हम अपनी बुद्धि, हम अपना शरीर, जिसे परम पूजनीय श्री गुरुजी ने कहा कि यह एक प्रकार से ट्रस्ट है। तुम्हारा शरीर, तुम्हारी बुद्धि, तुम्हारा मन, यह सब ट्रस्ट है। यह भगवान घड़ता है, भगवान ने तुम्हें दिया है, एक ट्रस्टी के नाते तुम्हें इसका उपयोग करना चाहिए। यह ट्रस्टी के नाते इसका सही उपयोग हम कैसे कर सकते हैं इसका ठीक मार्गदर्शन हम धर्म से पाते हैं। तो ऐसे धर्म का पालन करें और इस धर्म के अनुकूल स्वयं को बनाएं। अपने शरीर को बनाएं, मन को बनाएं, बुद्धि को बनाए, आत्मा को बनाएं, धर्म के अनुकूल बनाएं और इस दृष्टि से धर्म के अनुकूल बनाना केवल बुद्धि से संभव नहीं, तो इसके अनुसार संस्कार हम ग्रहण करें। यह संस्कार हम प्रतिदिन ग्रहण करें ताकि प्रतिदिन संस्कार देने के कारण शरीर, मन, बुद्धि, आत्मा का उस तरह का विकास हो सके और इस तरह हम पूर्णरूपेण धर्म प्रवण बने और धर्म की योजना में स्वयं को बिठायें, स्वयं अपने को बिठाए इन संस्कारों के आधार पर, दिन प्रतिदिन जो संस्कार हम ग्रहण करते हैं उनके आधार पर, हम अपने शरीर, मन, बुद्धि, आत्मा को धर्म की योजना में बराबर बिठायें और इस तरह से व्यष्टि जीवन का संपूर्ण विकास, समिष्टी जीवन का संपूर्ण विकास यह इसका अभिप्राय है, यह उसका उद्दिष्ट है। दूसरा धर्म की योजना में स्वयं को बिठाने के कारण हम अपने व्यष्टि जीवन को चिरंतन सुख प्राप्त करा दे सके, समिष्टी जीवन को परम वैभव प्राप्त करा दे सके, इस तरह की जो योजना है वही हमारे लिए श्रेयष्कर है, यह सारा विचार हम अपने जीवन के बारे में करें क्योंकि जैसे मैंने कहा हम अभी अपना जीवन बनाने जा रहे हैं। अभी हमें विचार करना है कि आगे हम क्या करेंगे तो। इस दृष्टि से अपने जीवन के बारे में हम पूरा विचार करें। मार्गदर्शन प्राप्त होता है, वह मार्गदर्शन प्राप्त कर के जीवन के बारे में विचार करें और वह विचार करने के पश्चात एक बार यदि हमारा ध्येय निश्चित हो जाता है, तो फिर उस ध्येय के अनुसार, इधर-उधर न देखते हुए, विचलित, चंचलता मन में ना आने देते हुए, मन को दोलायमान, आंदोलित ना होने देते हुए, उस ध्येय के मार्ग पर हम अखंड चलते रहें, यही वास्तव में हमारे लिए श्रेयष्कर मार्ग है। इतना कहना पर्याप्त है।
जी नमस्कार । अपने प्रचारकों द्वारा समय-समय पर दिया गया मार्ग दर्शन/ उनका बौद्धिक संग्रह यदि उपलब्ध हो तो ,कृपया उसे श्रंखलाबद्ध ढंग से प्रसारित करें।पूरे विश्व के लिए विभिन्न भाषाओं में इसकी व्यवस्था हो जाए तो,यह उनके लिए भी कल्याणकारी सिद्ध हो सकता है ।
शेष भाग अपलोड करे, कृपया 🙏⛳
सुख की अवधारणा का शेष
धर्म के आधार पर जीवन की रचना की तो वह जीवन अखंड सुख, चिरंतन सुख, घनीभूत सुख, की प्राप्ति कर सकता है। इस तरह का जो आश्वासन है, श्रेष्ठ आश्वासन है वह हमारे द्रष्टाओ ने हमें दिया है। यह धर्म हमारा मार्गदर्शन करता है। तो व्यष्टि जीवन, समिष्टी जीवन किस तरह चिरंतन, घनीभूत, और अखंड सुख की प्राप्ति कर सकता है, इसका मार्गदर्शन धर्म करता है। और इसलिए मैंने कहा कि स्वयं अपने लिए विचार करना कठिन होता है। निर्णय लेना तो और भी कठिन हो जाता है। इससे हर एक को लगता है कि कोई बताने वाला होगा तो और भी अच्छा होगा। हमारे सौभाग्य से हिंदू समाज को यह मार्गदर्शन उपलब्ध है। और कहीं यह बात नहीं है। इतने स्पष्ट रूप से, विशद रूप से कहीं बताया गया होगा तो वह धर्म है। वह धर्म हमारे सभी विचारों का आधार है, सभी आचारों का आधार है। जीवन का मार्गदर्शन करने वाला सिद्धांत है। इस नाते हम धर्म को लेंगे, उसके अनुसार हम अपने जीवन को बनाएं। अपनी प्रार्थना में भी कहा गया है 'परम वैभवम नेतु मेतत स्व राष्ट्रम।'
राष्ट्र का परम वैभव भी प्राप्त करना हो तो उसके लिए भी जो पूर्व शर्त है, प्री रिक्वेस्ट है, वह है धर्म की रक्षा। व्यक्ति को चिरंतन सुख प्राप्त करना है तो उसका आधार है धर्म की रक्षा
तो हम अपना मन, हम अपनी बुद्धि, हम अपना शरीर, जिसे परम पूजनीय श्री गुरुजी ने कहा कि यह एक प्रकार से ट्रस्ट है। तुम्हारा शरीर, तुम्हारी बुद्धि, तुम्हारा मन, यह सब ट्रस्ट है। यह भगवान घड़ता है, भगवान ने तुम्हें दिया है, एक ट्रस्टी के नाते तुम्हें इसका उपयोग करना चाहिए। यह ट्रस्टी के नाते इसका सही उपयोग हम कैसे कर सकते हैं इसका ठीक मार्गदर्शन हम धर्म से पाते हैं। तो ऐसे धर्म का पालन करें और इस धर्म के अनुकूल स्वयं को बनाएं। अपने शरीर को बनाएं, मन को बनाएं, बुद्धि को बनाए, आत्मा को बनाएं, धर्म के अनुकूल बनाएं और इस दृष्टि से धर्म के अनुकूल बनाना केवल बुद्धि से संभव नहीं, तो इसके अनुसार संस्कार हम ग्रहण करें। यह संस्कार हम प्रतिदिन ग्रहण करें ताकि प्रतिदिन संस्कार देने के कारण शरीर, मन, बुद्धि, आत्मा का उस तरह का विकास हो सके और इस तरह हम पूर्णरूपेण धर्म प्रवण बने और धर्म की योजना में स्वयं को बिठायें, स्वयं अपने को बिठाए इन संस्कारों के आधार पर, दिन प्रतिदिन जो संस्कार हम ग्रहण करते हैं उनके आधार पर, हम अपने शरीर, मन, बुद्धि, आत्मा को धर्म की योजना में बराबर बिठायें और इस तरह से व्यष्टि जीवन का संपूर्ण विकास, समिष्टी जीवन का संपूर्ण विकास यह इसका अभिप्राय है, यह उसका उद्दिष्ट है। दूसरा धर्म की योजना में स्वयं को बिठाने के कारण हम अपने व्यष्टि जीवन को चिरंतन सुख प्राप्त करा दे सके, समिष्टी जीवन को परम वैभव प्राप्त करा दे सके, इस तरह की जो योजना है वही हमारे लिए श्रेयष्कर है, यह सारा विचार हम अपने जीवन के बारे में करें क्योंकि जैसे मैंने कहा हम अभी अपना जीवन बनाने जा रहे हैं। अभी हमें विचार करना है कि आगे हम क्या करेंगे तो। इस दृष्टि से अपने जीवन के बारे में हम पूरा विचार करें। मार्गदर्शन प्राप्त होता है, वह मार्गदर्शन प्राप्त कर के जीवन के बारे में विचार करें और वह विचार करने के पश्चात एक बार यदि हमारा ध्येय निश्चित हो जाता है, तो फिर उस ध्येय के अनुसार, इधर-उधर न देखते हुए, विचलित, चंचलता मन में ना आने देते हुए, मन को दोलायमान, आंदोलित ना होने देते हुए, उस ध्येय के मार्ग पर हम अखंड चलते रहें, यही वास्तव में हमारे लिए श्रेयष्कर मार्ग है। इतना कहना पर्याप्त है।
सुख की अवधारणा का शेष
धर्म के आधार पर जीवन की रचना की तो वह जीवन अखंड सुख, चिरंतन सुख, घनीभूत सुख, की प्राप्ति कर सकता है। इस तरह का जो आश्वासन है, श्रेष्ठ आश्वासन है वह हमारे द्रष्टाओ ने हमें दिया है। यह धर्म हमारा मार्गदर्शन करता है। तो व्यष्टि जीवन, समिष्टी जीवन किस तरह चिरंतन, घनीभूत, और अखंड सुख की प्राप्ति कर सकता है, इसका मार्गदर्शन धर्म करता है। और इसलिए मैंने कहा कि स्वयं अपने लिए विचार करना कठिन होता है। निर्णय लेना तो और भी कठिन हो जाता है। इससे हर एक को लगता है कि कोई बताने वाला होगा तो और भी अच्छा होगा। हमारे सौभाग्य से हिंदू समाज को यह मार्गदर्शन उपलब्ध है। और कहीं यह बात नहीं है। इतने स्पष्ट रूप से, विशद रूप से कहीं बताया गया होगा तो वह धर्म है। वह धर्म हमारे सभी विचारों का आधार है, सभी आचारों का आधार है। जीवन का मार्गदर्शन करने वाला सिद्धांत है। इस नाते हम धर्म को लेंगे, उसके अनुसार हम अपने जीवन को बनाएं। अपनी प्रार्थना में भी कहा गया है 'परम वैभवम नेतु मेतत स्व राष्ट्रम।'
राष्ट्र का परम वैभव भी प्राप्त करना हो तो उसके लिए भी जो पूर्व शर्त है, प्री रिक्वेस्ट है, वह है धर्म की रक्षा। व्यक्ति को चिरंतन सुख प्राप्त करना है तो उसका आधार है धर्म की रक्षा
तो हम अपना मन, हम अपनी बुद्धि, हम अपना शरीर, जिसे परम पूजनीय श्री गुरुजी ने कहा कि यह एक प्रकार से ट्रस्ट है। तुम्हारा शरीर, तुम्हारी बुद्धि, तुम्हारा मन, यह सब ट्रस्ट है। यह भगवान घड़ता है, भगवान ने तुम्हें दिया है, एक ट्रस्टी के नाते तुम्हें इसका उपयोग करना चाहिए। यह ट्रस्टी के नाते इसका सही उपयोग हम कैसे कर सकते हैं इसका ठीक मार्गदर्शन हम धर्म से पाते हैं। तो ऐसे धर्म का पालन करें और इस धर्म के अनुकूल स्वयं को बनाएं। अपने शरीर को बनाएं, मन को बनाएं, बुद्धि को बनाए, आत्मा को बनाएं, धर्म के अनुकूल बनाएं और इस दृष्टि से धर्म के अनुकूल बनाना केवल बुद्धि से संभव नहीं, तो इसके अनुसार संस्कार हम ग्रहण करें। यह संस्कार हम प्रतिदिन ग्रहण करें ताकि प्रतिदिन संस्कार देने के कारण शरीर, मन, बुद्धि, आत्मा का उस तरह का विकास हो सके और इस तरह हम पूर्णरूपेण धर्म प्रवण बने और धर्म की योजना में स्वयं को बिठायें, स्वयं अपने को बिठाए इन संस्कारों के आधार पर, दिन प्रतिदिन जो संस्कार हम ग्रहण करते हैं उनके आधार पर, हम अपने शरीर, मन, बुद्धि, आत्मा को धर्म की योजना में बराबर बिठायें और इस तरह से व्यष्टि जीवन का संपूर्ण विकास, समिष्टी जीवन का संपूर्ण विकास यह इसका अभिप्राय है, यह उसका उद्दिष्ट है। दूसरा धर्म की योजना में स्वयं को बिठाने के कारण हम अपने व्यष्टि जीवन को चिरंतन सुख प्राप्त करा दे सके, समिष्टी जीवन को परम वैभव प्राप्त करा दे सके, इस तरह की जो योजना है वही हमारे लिए श्रेयष्कर है, यह सारा विचार हम अपने जीवन के बारे में करें क्योंकि जैसे मैंने कहा हम अभी अपना जीवन बनाने जा रहे हैं। अभी हमें विचार करना है कि आगे हम क्या करेंगे तो। इस दृष्टि से अपने जीवन के बारे में हम पूरा विचार करें। मार्गदर्शन प्राप्त होता है, वह मार्गदर्शन प्राप्त कर के जीवन के बारे में विचार करें और वह विचार करने के पश्चात एक बार यदि हमारा ध्येय निश्चित हो जाता है, तो फिर उस ध्येय के अनुसार, इधर-उधर न देखते हुए, विचलित, चंचलता मन में ना आने देते हुए, मन को दोलायमान, आंदोलित ना होने देते हुए, उस ध्येय के मार्ग पर हम अखंड चलते रहें, यही वास्तव में हमारे लिए श्रेयष्कर मार्ग है। इतना कहना पर्याप्त है।
What is guru g tell us many years ago than now many foreign writter write in books
बहुत-बहुत धन्यवाद आभार !
❤❤
नमस्ते जी आप की सहायता की अवश्यक्ता है मुझे औदियोबूक का निर्माण करना है तो आप सहायता कर सकते हैं क्या
जी भावेश जी बताइए क्या सहयोग करें आपका
आप कहाँ रहते हैं?
आप के सम्पर्क सूत्र लिखे
Akhri 5 min ka bouddhik comment me prastur kijiye
जी भाई साहब आज या कल तक पोस्ट कर देंगे। प्रणाम।
भेजिय आखिर का नहीं है
सुख की अवधारणा का शेष
धर्म के आधार पर जीवन की रचना की तो वह जीवन अखंड सुख, चिरंतन सुख, घनीभूत सुख, की प्राप्ति कर सकता है। इस तरह का जो आश्वासन है, श्रेष्ठ आश्वासन है वह हमारे द्रष्टाओ ने हमें दिया है। यह धर्म हमारा मार्गदर्शन करता है। तो व्यष्टि जीवन, समिष्टी जीवन किस तरह चिरंतन, घनीभूत, और अखंड सुख की प्राप्ति कर सकता है, इसका मार्गदर्शन धर्म करता है। और इसलिए मैंने कहा कि स्वयं अपने लिए विचार करना कठिन होता है। निर्णय लेना तो और भी कठिन हो जाता है। इससे हर एक को लगता है कि कोई बताने वाला होगा तो और भी अच्छा होगा। हमारे सौभाग्य से हिंदू समाज को यह मार्गदर्शन उपलब्ध है। और कहीं यह बात नहीं है। इतने स्पष्ट रूप से, विशद रूप से कहीं बताया गया होगा तो वह धर्म है। वह धर्म हमारे सभी विचारों का आधार है, सभी आचारों का आधार है। जीवन का मार्गदर्शन करने वाला सिद्धांत है। इस नाते हम धर्म को लेंगे, उसके अनुसार हम अपने जीवन को बनाएं। अपनी प्रार्थना में भी कहा गया है 'परम वैभवम नेतु मेतत स्व राष्ट्रम।'
राष्ट्र का परम वैभव भी प्राप्त करना हो तो उसके लिए भी जो पूर्व शर्त है, प्री रिक्वेस्ट है, वह है धर्म की रक्षा। व्यक्ति को चिरंतन सुख प्राप्त करना है तो उसका आधार है धर्म की रक्षा
तो हम अपना मन, हम अपनी बुद्धि, हम अपना शरीर, जिसे परम पूजनीय श्री गुरुजी ने कहा कि यह एक प्रकार से ट्रस्ट है। तुम्हारा शरीर, तुम्हारी बुद्धि, तुम्हारा मन, यह सब ट्रस्ट है। यह भगवान घड़ता है, भगवान ने तुम्हें दिया है, एक ट्रस्टी के नाते तुम्हें इसका उपयोग करना चाहिए। यह ट्रस्टी के नाते इसका सही उपयोग हम कैसे कर सकते हैं इसका ठीक मार्गदर्शन हम धर्म से पाते हैं। तो ऐसे धर्म का पालन करें और इस धर्म के अनुकूल स्वयं को बनाएं। अपने शरीर को बनाएं, मन को बनाएं, बुद्धि को बनाए, आत्मा को बनाएं, धर्म के अनुकूल बनाएं और इस दृष्टि से धर्म के अनुकूल बनाना केवल बुद्धि से संभव नहीं, तो इसके अनुसार संस्कार हम ग्रहण करें। यह संस्कार हम प्रतिदिन ग्रहण करें ताकि प्रतिदिन संस्कार देने के कारण शरीर, मन, बुद्धि, आत्मा का उस तरह का विकास हो सके और इस तरह हम पूर्णरूपेण धर्म प्रवण बने और धर्म की योजना में स्वयं को बिठायें, स्वयं अपने को बिठाए इन संस्कारों के आधार पर, दिन प्रतिदिन जो संस्कार हम ग्रहण करते हैं उनके आधार पर, हम अपने शरीर, मन, बुद्धि, आत्मा को धर्म की योजना में बराबर बिठायें और इस तरह से व्यष्टि जीवन का संपूर्ण विकास, समिष्टी जीवन का संपूर्ण विकास यह इसका अभिप्राय है, यह उसका उद्दिष्ट है। दूसरा धर्म की योजना में स्वयं को बिठाने के कारण हम अपने व्यष्टि जीवन को चिरंतन सुख प्राप्त करा दे सके, समिष्टी जीवन को परम वैभव प्राप्त करा दे सके, इस तरह की जो योजना है वही हमारे लिए श्रेयष्कर है, यह सारा विचार हम अपने जीवन के बारे में करें क्योंकि जैसे मैंने कहा हम अभी अपना जीवन बनाने जा रहे हैं। अभी हमें विचार करना है कि आगे हम क्या करेंगे तो। इस दृष्टि से अपने जीवन के बारे में हम पूरा विचार करें। मार्गदर्शन प्राप्त होता है, वह मार्गदर्शन प्राप्त कर के जीवन के बारे में विचार करें और वह विचार करने के पश्चात एक बार यदि हमारा ध्येय निश्चित हो जाता है, तो फिर उस ध्येय के अनुसार, इधर-उधर न देखते हुए, विचलित, चंचलता मन में ना आने देते हुए, मन को दोलायमान, आंदोलित ना होने देते हुए, उस ध्येय के मार्ग पर हम अखंड चलते रहें, यही वास्तव में हमारे लिए श्रेयष्कर मार्ग है। इतना कहना पर्याप्त है।
Antim 5 min kaa send kr dijiye rahultiwarinbd@gmail.com
प्रयत्न करते हैं क्योंकि वह एकदम स्पष्ट नहीं सुनाई देता है फिर भी उसको लिखने का प्रयत्न किया है जैसा उपलब्ध है वैसा ही आपको भेजने का प्रयत्न करेंगे । नमस्कार।
सुख की अवधारणा का शेष
धर्म के आधार पर जीवन की रचना की तो वह जीवन अखंड सुख, चिरंतन सुख, घनीभूत सुख, की प्राप्ति कर सकता है। इस तरह का जो आश्वासन है, श्रेष्ठ आश्वासन है वह हमारे द्रष्टाओ ने हमें दिया है। यह धर्म हमारा मार्गदर्शन करता है। तो व्यष्टि जीवन, समिष्टी जीवन किस तरह चिरंतन, घनीभूत, और अखंड सुख की प्राप्ति कर सकता है, इसका मार्गदर्शन धर्म करता है। और इसलिए मैंने कहा कि स्वयं अपने लिए विचार करना कठिन होता है। निर्णय लेना तो और भी कठिन हो जाता है। इससे हर एक को लगता है कि कोई बताने वाला होगा तो और भी अच्छा होगा। हमारे सौभाग्य से हिंदू समाज को यह मार्गदर्शन उपलब्ध है। और कहीं यह बात नहीं है। इतने स्पष्ट रूप से, विशद रूप से कहीं बताया गया होगा तो वह धर्म है। वह धर्म हमारे सभी विचारों का आधार है, सभी आचारों का आधार है। जीवन का मार्गदर्शन करने वाला सिद्धांत है। इस नाते हम धर्म को लेंगे, उसके अनुसार हम अपने जीवन को बनाएं। अपनी प्रार्थना में भी कहा गया है 'परम वैभवम नेतु मेतत स्व राष्ट्रम।'
राष्ट्र का परम वैभव भी प्राप्त करना हो तो उसके लिए भी जो पूर्व शर्त है, प्री रिक्वेस्ट है, वह है धर्म की रक्षा। व्यक्ति को चिरंतन सुख प्राप्त करना है तो उसका आधार है धर्म की रक्षा
तो हम अपना मन, हम अपनी बुद्धि, हम अपना शरीर, जिसे परम पूजनीय श्री गुरुजी ने कहा कि यह एक प्रकार से ट्रस्ट है। तुम्हारा शरीर, तुम्हारी बुद्धि, तुम्हारा मन, यह सब ट्रस्ट है। यह भगवान घड़ता है, भगवान ने तुम्हें दिया है, एक ट्रस्टी के नाते तुम्हें इसका उपयोग करना चाहिए। यह ट्रस्टी के नाते इसका सही उपयोग हम कैसे कर सकते हैं इसका ठीक मार्गदर्शन हम धर्म से पाते हैं। तो ऐसे धर्म का पालन करें और इस धर्म के अनुकूल स्वयं को बनाएं। अपने शरीर को बनाएं, मन को बनाएं, बुद्धि को बनाए, आत्मा को बनाएं, धर्म के अनुकूल बनाएं और इस दृष्टि से धर्म के अनुकूल बनाना केवल बुद्धि से संभव नहीं, तो इसके अनुसार संस्कार हम ग्रहण करें। यह संस्कार हम प्रतिदिन ग्रहण करें ताकि प्रतिदिन संस्कार देने के कारण शरीर, मन, बुद्धि, आत्मा का उस तरह का विकास हो सके और इस तरह हम पूर्णरूपेण धर्म प्रवण बने और धर्म की योजना में स्वयं को बिठायें, स्वयं अपने को बिठाए इन संस्कारों के आधार पर, दिन प्रतिदिन जो संस्कार हम ग्रहण करते हैं उनके आधार पर, हम अपने शरीर, मन, बुद्धि, आत्मा को धर्म की योजना में बराबर बिठायें और इस तरह से व्यष्टि जीवन का संपूर्ण विकास, समिष्टी जीवन का संपूर्ण विकास यह इसका अभिप्राय है, यह उसका उद्दिष्ट है। दूसरा धर्म की योजना में स्वयं को बिठाने के कारण हम अपने व्यष्टि जीवन को चिरंतन सुख प्राप्त करा दे सके, समिष्टी जीवन को परम वैभव प्राप्त करा दे सके, इस तरह की जो योजना है वही हमारे लिए श्रेयष्कर है, यह सारा विचार हम अपने जीवन के बारे में करें क्योंकि जैसे मैंने कहा हम अभी अपना जीवन बनाने जा रहे हैं। अभी हमें विचार करना है कि आगे हम क्या करेंगे तो। इस दृष्टि से अपने जीवन के बारे में हम पूरा विचार करें। मार्गदर्शन प्राप्त होता है, वह मार्गदर्शन प्राप्त कर के जीवन के बारे में विचार करें और वह विचार करने के पश्चात एक बार यदि हमारा ध्येय निश्चित हो जाता है, तो फिर उस ध्येय के अनुसार, इधर-उधर न देखते हुए, विचलित, चंचलता मन में ना आने देते हुए, मन को दोलायमान, आंदोलित ना होने देते हुए, उस ध्येय के मार्ग पर हम अखंड चलते रहें, यही वास्तव में हमारे लिए श्रेयष्कर मार्ग है। इतना कहना पर्याप्त है।
Prati Padan kya hota hai ?? Can somebody explain please ..
1.
भली-भाँति ज्ञात कराना, अच्छी तरह समझाना।
2.
निरूपण, निष्पादन।
प्रस्तुतीकरण यह भी प्रतिपादन के समानार्थी है
@@hinduway thanks for the reply Bhaiyya ☀️