सत्संग १३९ - उपदेश सारम्, रमन महर्षि। सूत्र १६ - २०, आत्म अन्वेषण, भाग - ४

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  • Опубликовано: 16 окт 2024
  • सत्संग १३९, १ जून २४
    १) दृश्य वारितं चित्तम आत्मनः ।
    चित्व दर्शनं तत्त्व दर्शनं ॥16॥
    ऐसा योगी फिर देखते हुए भी नहीं देखता, या उसको जो दिखता है उसमें कोई देखने वाला नहीं होता है, वह मन दर्शन करते हुए भी अपने स्वरूप में, यानी होश में ही स्थित रहता है। दृश्य के यथावत दर्शन में, नैसर्गिक होश में, या तत्व के दर्शन में कोई भेद नहीं है। दृश्य का सम्यक दर्शन ही तत्व, अज्ञेय सत्ता का दर्शन है, यानी वहां चुनाव रहित होश सहज उपस्थित है। चित्तम आत्मनः चित्व दर्शनं, यह एक साथ होता है, यानी चुनाव रहित होश ही मूल तत्व है, वही दर्शन स्वयं का दर्शन है, आत्म स्वरूप का दर्शन, हृदय या आत्म स्वरूप में स्थिति है।
    मानसं तु किं मार्गणे कृते ।
    नैव मानसं मार्ग आर्जवात् ॥17॥
    जब असंभव प्रश्न के द्वारा, मन का अन्वेषण किया जाता है कि मन क्या है, और मन की गति या उसकी प्रकृति क्या है, या मैं कौन हूं, मैं क्या है, तो पाया जाता है की मन जैसा कुछ होता ही नहीं है। आत्म अन्वेषण या मन को ढूंढने पर मन कहीं मिलता नहीं है, यही सबसे सीधा, सरल और मार्गहीन मार्ग है, या मार्गहीन भूमि है।
    वृत्तयः त्व अहं वृत्तिम आश्रिता ।
    वृत्तयो मनो विद्ध्य अहं मनः ॥18॥
    मन में जो भी विचार उठते हैं वह सभी के सभी अहम वृत्ति पर आश्रित होते हैं, अहम वृत्ति पर निर्भर करते हैं, या मैं हूं, मेरा होना, इस भाव पर निर्भर करते हैं। संस्कार जनित उठने वाले सोच विचार, संकल्प विकल्प ही मन है, और क्योंकि मन अहम वृत्ति पर आश्रित है, इसीलिए यह आभासीय अहम ही मन है। आभासीय अहम और मन ये दो अलग अलग बातें नहीं हैं।
    अहम अयं कुतो भवति चिन्वतः ।
    अयि पतति अहं निज विचारणम् ॥19॥
    अब यह प्रश्न उठता है कि यह आभासीय अहम क्या है, या मैं क्या हूं, मैं कौन हूं, इस पर सीधा अभेद, निर्मल, बिना किसी पूर्वाग्रह के यथावत चिंतन होता है। जब यह देखा जाता है कि अहम कहां से उठता है, तब पता चलता है कि अहम जैसी कोई चीज होती ही नहीं है, अहम एक विचार मात्र है, यही आभासीय अहम का समूल अंत है। आभासीय अहम एक विचार मात्र है, इसकी अपनी कोई स्वतंत्र सत्ता नहीं है, पर यह ऐसा प्रतीत होता है कि मेरा होना ही परम सत्य है। जब आभासीय अहम की मिथ्या स्पष्ट प्रकट हो जाती है, तो नैसर्गिक होश वहां सहज ही पाया जाता है, और आत्म स्वरूप में सहज ही एक नित्य निष्ठा बन जाती है। आत्म स्वरूप क्या है, यही आत्म अन्वेषण या निज विचार की मौलिक प्रक्रिया है।
    अहमि नाश भाज्य अहम अहंतया ।
    स्फुरति हृत् स्वयं परम पूर्ण सत ॥20॥
    जब आभासीय अहम की मिथ्या स्पष्ट हो जाती है, और आभासीय अहम की मिथ्या के नष्ट हो जाने पर, सूक्ष्म रूप से हृदय में पूर्ण सत्य, नैसर्गिक होश सहज ही स्फुरित होता है। नैसर्गिक होश, यथाभूत दर्शन में एक ऐसे शुद्ध अहम का उदय होता है, जिसका कोई केंद्र नहीं है, जो सब जगह व्याप्त है, सारा अस्तित्व उसमें है, और वह सारे अस्तित्व में है।
    २) जेहि घट प्रेम न सँचरै, सो घट जानि मसान।।
    जैसे खाल लोहार की, साँस लेत बिनु प्रान।।
    इस वीडियो में इस विषय पर चर्चा करी गई है।
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