12.शुद्धोपयोग अधिकार श्री नियमसार हिंदी पद्धानुवाद Shri Niyamsar Hindi Gatha 159 to 187

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  • Опубликовано: 28 авг 2024
  • शुद्धोपयोग अधिकार श्री नियमसार हिंदी पद्धानुवाद
    व्यवहारसे प्रभु केवली सब जानते अरु देखते ।
    निश्चयनयात्मक-द्वारसे निज आत्मको प्रभु पेखते ॥१५९॥
    ज्यों ताप और प्रकाश रविके एक सँग ही वर्तते ।
    त्यों केवलीके ज्ञानदर्शन एक साथ प्रवर्तते ॥१६०॥
    दर्शन प्रकाशक आत्मका, परका प्रकाशक ज्ञान है ।
    निज पर प्रकाशक आत्मा,रे यह विरुद्ध विधान है ॥१६१॥
    पर ही प्रकाशे ज्ञान तो हो ज्ञानसे दृग भिन्न रे ।
    परद्रव्यगत नहिं दर्श ! वर्णित पूर्व तव मंतव्य रे ॥१६२॥
    पर ही प्रकाशे जीव तो हो आत्मसे दृग् भिन्न रे ।
    परद्रव्यगत नहिं दर्श - वर्णित पूर्व तव मंतव्य रे ॥१६३॥
    व्यवहारसे है ज्ञान परगत, दर्श भी अतएव है ।
    व्यवहारसे है जीव परगत, दर्श भी अतएव है ॥१६४॥
    है ज्ञान निश्चय निजप्रकाशक ,अतः त्यों ही दर्श है ।
    है जीव निश्चय निजप्रकाशक, अतः त्यों ही दर्श है ॥१६५॥
    प्रभु केवली निजरूप देखें और लोकालोक ना ।
    यदि कोइ यों कहता अरे उसमें कहो है दोष क्या ? ॥१६६॥
    जो मूर्त और अमूर्त जड़ चेतन स्वपर सव द्रव्य हैं ।
    देखे उन्हें उसको अतीन्द्रिय ज्ञान है, प्रत्यक्ष है ॥१६७॥
    जो विविध गुण पर्यायसे संयुक्त सारी सृष्टि है ।
    देखे न जो सम्यक् प्रकार, परोक्ष रे वह दृष्टि है ॥१६८॥
    भगवान केवलि लोक और अलोक जाने, आत्म ना ।
    यदि कोई यों कहता अरे उसमें कहो है दोष क्या ? ॥१६९॥
    है ज्ञान जीवस्वरूप, इससे जीव जाने जीवको ।
    निजको न जाने ज्ञान तो वह आतमासे भिन्न हो ॥१७०॥
    संदेह नहिं, है ज्ञान आत्मा, आतमा है ज्ञान रे ।
    अतएव निजपरके प्रकाशक ज्ञान-दर्शन मान रे ॥१७१॥
    जाने तथा देखें तदपि इच्छा विना भगवान है ।
    अतएव ‘केवलज्ञानी' वे अतएव ही ‘निर्बन्ध' है ॥१७२॥
    रे बन्ध कारण जीवको परिणामपूर्वक वचन हैं ।
    है बन्ध ज्ञानीको नहीं परिणाम विरहित वचन है ॥१७३॥
    है बन्ध कारण जीवको इच्छा सहित वाणी अरे ।
    इच्छा रहित वाणी अतः ही बन्ध नहिं ज्ञानी करे ॥१७४॥
    अभिलाषयुक्त विहार, आसन, स्थान जिनवरको नहीं ।
    निर्बन्ध इससे, वन्ध करता मोह-वश साक्षार्थ ही ॥१७५॥
    हो आयुक्षयसे शेष सव ही कर्मप्रकृति विनाश रे ।
    सत्वर समयमें पहुँचते अर्हन्तप्रभु लोकाग्र रे ॥१७६॥
    विन कर्म, परम, विशुद्ध, जन्म-जरा-मरणसे हीन है ।
    ज्ञानादि चार स्वभावमय, अक्षय, अछेद, अछीन है ॥१७७॥
    निर्वाध, अनुपम अरु अतीन्द्रिय, पुण्यपापविहीन है ।
    निश्चल, निरालम्बन, अमर-पुनरागमनसे हीन है ॥१७८॥
    दुख-सुख नहीं, पीड़ा जहाँ नहिं और बाधा है नहीं ।
    नहिं जन्म है, नहिं मरण है, निर्वाण जानो रे वहीं ॥१७९॥
    इन्द्रिय जहाँ नहिं, मोह नहिं, उपसर्ग, विस्मय भी नहीं ।
    निद्रा, क्षुधा, तृष्णा नहीं, निर्वाण जानो रे वहीं ॥१८०॥
    रे कर्म नहिं नोकर्म, चिंता, आर्तरौद्र जहाँ नहीं ।
    है धर्म-शुक्ल सुध्यान नहिं, निर्वाण जानो रे वहीं ॥१८१॥
    दृग्-ज्ञान केवल, सौख्य केवल और केवल वीर्यता ।
    होते उन्हें सप्रदेशता, अस्तित्व, मूर्तिविहीनता ॥१८२॥
    निर्वाण ही तो सिद्ध है, है सिद्ध ही निर्वाण रे ।
    हो कर्मसे प्रविमुक्त आत्मा पहुँचता लोकान्त रे ॥१८३॥
    जानो वहीं तक जीव-पुद्गलगति, जहाँ धर्मास्ति है ।
    धर्मास्तिकाय-अभावमें आगे गमनकी नास्ति है ॥१८४॥
    जिनदेव-प्रवचन-भक्तिवलसे नियम, तत्फलमें कहे ।
    यदि हो कहीं, समयज्ञ पूर्वापर विरोध सुधारिये ॥१८५॥
    जो कोइ सुन्दर मार्गकी निन्दा करे मात्सर्यमें ।
    सुनकर वचन उसके अभक्ति न कीजिये जिनमार्गमें ॥१८६॥
    निज भावना के निमित्त मैंने नियमसार सुश्रुत लिखा ।
    सब दोष पूर्वापर रहित उपदेश जान जिनदेवका ॥१८७॥

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