श्रीमद् राजचंद्र विरचित आत्मसिद्धि- गुजराती गाथा AatmaSiddhi Gujrati Gatha By Shrimad Rajchandra

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  • Опубликовано: 28 авг 2024
  • जे स्वरूप समज्या विना, पाम्यो दुःख अनंत
    समजाव्युं ते पद नमुं, श्री सद्गुरु भगवंत ।।१।।
    वर्तमान आ काळमां मोक्षमार्ग बहु लोप
    विचारवा आत्मार्थीने, भाख्यो अत्र अगोप्य ।।२।।
    कोई क्रिया-जड़ थई रह्या, शुष्कज्ञानमां कोई
    माने मारग मोक्षनो, करुणा ऊपजे जोई ।। ३ ।।
    बाह्य क्रियामां राचता, अंतर्भेद न कांई
    ज्ञानमार्ग नीषेधता, तेह क्रिया-जड़ आई ।।४।।
    बंध मोक्ष छे कल्पना, भाखे वाणी मांहि
    वर्ते मोहावेशमां, शुष्क ज्ञानी ते आंहि ।।५।।
    वैराग्यादि सफल तो, जो सह आतमज्ञान
    तेमज आतमज्ञाननी, प्राप्तितणां निदान ।।६।।
    त्याग विराग न चित्तमां, थाय न तेने ज्ञान
    अटके त्याग विरागमां, तो भूले निजभान ।।७।।
    ज्यां ज्यां जे जे योग्य छे, तहां समजवुं तेह
    त्यां त्यां ते ते आचरे, आत्मार्थी जन एह ।।८।।
    सेवे सद्गुरु चरणने, त्यागी दई निजपक्ष
    पामे ते परमार्थने, निजपदनो ले लक्ष ।।९।।
    आत्मज्ञान समदर्शिता, विचरे उदयप्रयोग
    अपूर्व वाणी परमश्रुत, सद्गुरु लक्षण योग्य ।।१०।।
    प्रत्यक्ष सद्गुरु सम नहीं, परोक्ष जिन उपकार
    एवो लक्ष थया विना, उगे न आत्मविचार ।।११।।
    सदगुरुना उपदेश वण, समजाय न जिनरूप
    समज्या वण उपकार शो समज्ये जिनस्वरूप ।।१२।।
    आत्मादी अस्तित्वनां, जेह निरूपक शास्त्र
    प्रत्यक्ष सद्गुरु योग नहि, त्यां आधार सुपात्र ।।१३।।
    अथवा सद्गुरु ए कह्यां, जे अवगाहन काज
    ते ते नित्य विचारवा, करी मतांतर त्याज।।१४।।
    रोके जीव स्वच्छंद तो, पामे अवश्य मोक्ष
    पाम्या एम अनंत छे, भाख्युं जिन निर्दोष ।।१५।।
    प्रत्यक्ष सद्गुरु योगथी, स्वच्छंद ते रोकाय
    अन्य उपाय कर्या थकी, प्रायें बमणो थाय ।।१६।।
    स्वच्छंद मत आग्रह तजी, वर्ते सद्गुरु लक्ष
    समकित तेने भाखियुं, कारण गणी प्रत्यक्ष ।।१७।।
    मानादिक शत्रु महा, निज छंदे न मराय
    जातां सद्गुरु शरणमां, अल्प प्रयासे जाय।।१८।।
    जे सद्गुरु उपदेश थी, पाम्यो केवलज्ञान
    गुरु रह्या छद्मस्थ पण, विनय करे भगवान ।।१९।।
    एवो मार्ग विनय तणो, भाख्यो श्री वीतराग
    मूल हेतु ए मार्गनो, समजे कोई सुभाग्य।।२०।।
    असद्गुरु ए विनयनो, लाभ लहे जो कांई
    महामोहिनी कर्मथी, वूडे भवजल मांही।।२१।।
    होय मुमुक्षु जीव ते, समजे एह विचार
    होय मतार्थि जीव ते, अवळो ले निर्धार ।।२२।।
    होय मतार्थि तेहने, थाय न आतम लक्ष ।
    तेह मतार्थि लक्षणो, अहीं कह्या निर्पक्ष ।।२३।।
    बाह्य त्याग पण ज्ञान नही, ते माने गुरु सत्य
    अथवा निजकुळधर्मना, ते गुरुमां ज ममत्व ।।२४।।
    जे जिनदेहप्रमाण ने, समवसरणादि सिद्धि
    वर्णन समजे जिननुं, रोकी रहे निजबुद्धि।। २५ ।।
    प्रत्यक्ष सद्गुरु योगमां, वर्त्ते दृष्टि विमुख
    असद्गुरुने दृढ़ करे, निज मानार्थे मुख्य।।२६ ।।
    देवादी गति भंगमां, जे समजे श्रुतज्ञान
    माने निज मत वेषनो, आग्रह मुक्ति निदान ।।२७ ।।
    लह्ययूं स्वरूप न वृत्तिनुं, गृह्णयूं व्रत अभिमान
    ग्रहे नहीं परमार्थने, लेवा लौकिक मान।।२८ ।।
    अथवा निश्चय नय ग्रहे, मात्र शब्दनी मांय
    लोपे सद्व्यवहारने, साधन रहीत थाय।।२९।।
    ज्ञानदशा पामे नहीं, साधन दशा न कांई
    पामे तेनो संग जे, ते बुडे भवमांहि।।३०।।
    ए पण जीव मतार्थमां, निज मानादि काज
    पामे नहीं परमार्थने, अन अधिकारीमाज।। ३१ ।।
    नहिं कषाय उपशांतता, नहिं अंतर वैराग्य
    सरलपणुं न मध्यस्थता, ए मतार्थी दुर्भाग्य ।।३२ ।।
    लक्षण कह्यां मतार्थिना, मतार्थ जावा काज।
    हवे कहुं अब आत्मार्थिना , आत्मअर्थ सुखसाज ।।३३।।
    आत्मज्ञान त्यां मुनिपणुं, ते साचा गुरु होय
    बाकी कुळगुरु कल्पना, आत्मार्थी नहि जोय ।।३४।।
    प्रत्यक्ष सद्गुरु प्राप्तिनो, गणे परम उपकार
    त्रणे योग एकत्वथी, वर्ते आज्ञा धार ।।३५।।
    एक होय त्रण काळमां, परमारथनो पंथ
    प्रेरे ते परमार्थने, ते व्यवहार समंत ।।३६।।
    एम विचारी अंतरे, शोधे सद्गुरु योग
    काम एक आत्मार्थनुं, बीजो नहि मन रोग ।।३७।।
    कषायनी उपशांतता, मात्र मोक्ष अभिलाष
    भवे खेद प्राणीदया, त्यां आत्मार्थ निवास ।।३८।।
    दशा न एवी ज्यां सुधी, जीव लहे नहि जोग
    मोक्षमार्ग पामे नहीं, मटे न अंतररोग ।।३९।।
    आवे ज्यां एवी दशा, सद्गुरुबोध सुहाय
    ते बोधे सुविचारणा, त्यां प्रगटे सुखदाय ।।४०।।
    ज्यां प्रगटे सुविचारणा, त्यां प्रगटे निजज्ञान
    जे ज्ञाने क्षय मोह थई, पामे पद निर्वाण ।।४१।।
    ऊपजे ते सुविचारणा, मोक्षमार्ग समजाय
    गुरु-शिष्य संवादथी, भाखुं षट्पद आंही ।।४२।।
    आत्मा छे ते नित्य छे,छे कर्ता निजकर्म
    छे भोक्ता वलि 'मोक्ष छे,' मोक्ष उपाय सुधर्म । ४३
    षट्स्थानक संक्षेपमां, षट्दर्शन पण तेह
    समजावा परमार्थने, कह्यां ज्ञानीये एह।। ४४ ।।
    नथी दृष्टि मां आवतो, नथी जणातुं रूप
    बीजो पण अनुभव नहीं, तेथि न जीवस्वरूप।।४५ ।।
    अथवा देह ज आत्मा, अथवा इन्द्रिय प्राण
    मिथ्या जूदो मानवो, नहिं जुदूं एंधाण।। ४६ ।।
    वळी जो आत्मा होय तो, जणाय ते नहिं केम ?
    जणाय जो ते होय तो, घट पट आदि जेम।। ४७ ।।
    माटे छे नहिं आतमा, मिथ्या मोक्ष उपाय
    ए अंतर शंका तणो, समजावो सदुपाय।। ४८।।
    भास्यो देहाध्यासथी, आत्मा देह समान
    पण ते बन्ने भिन्न छे, प्रगट लक्षणे भान।। ४९।।
    भास्यो देहाध्यासथी, आत्मा देह समान
    पण ते बन्ने भिन्न छे, जेम असि ने म्यान।। ५० ।।
    जे दृष्टा छे दृष्टिनो, जे जाणे छे रूप
    अबाध्य अनुभव जे रहे, ते छे जीवस्वरूप।। ५१ ।।
    छे इन्द्रिय प्रत्येकने, निज निज विषयनुं भान
    पांच इन्द्रिना विषयनुं, पण आत्माने भान ।। ५२ ।।
    देह न जाणे तेहने, जाणे न इन्द्रि प्राण
    आत्मानी सत्ता वडे, तेह प्रवर्ते जाण।। ५३ ।।
    सर्व अवस्थाने विषे, न्यारो सदा जणाय
    प्रगट रूप चैतन्यमय, ए एंधाण सदाय।। ५४।।
    घट, पट आदि जाण तु, तेथी तेने मान
    जाणनार ते मान नहि, कहिये केवुं ज्ञान ?।। ५५ ।।
    परमबुद्धि कृष देहमां, स्थूळ देह मति अल्प
    देह होय जो आतमा, घटे न आम विकल्प।। ५६ ।।
    जड़ चेतननो भिन्न छे, केवळ प्रगट स्वभाव
    एकपणुं पामे नहि, त्रणे काल द्वय भाव।। ५७।।
    आत्मानी शंका कर, आत्मा पोते आप
    शंकानो करनार ते, अचरज एह अमाप ।।५८ ।।
    आत्माना अस्तित्वना, आपे कह्या प्रकार
    संभव तेनो थाय छे, अंतर कर्ये विचार ।। ५९ ।।

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