सत्संग १३६ - उपदेश सारम्, रमन महर्षि। सूत्र १ - ५, कर्म और भक्ति, भाग - १

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  • Опубликовано: 6 сен 2024
  • सत्संग १३५, १८ मई २४
    १) कर्तुः आज्ञया प्राप्यते फलम्।
    कर्म किम् परम्, कर्म तत् जडम्॥1॥
    कर्म जड़ हैं, इसलिए एक जीवंत नियम है, जिसके अनुसार सभी कर्म और उनके फल घटते हैं। तो जो नियम से बंधा है, वह श्रेष्ठ कैसे हो सकता है, और जो नियम से बंधा है, वह कर्म वास्तव में जड़ है।
    कृति महा उदधौ पतन कारणम् ।
    फलम अशाश्वतम् गति निरोधकम् ॥2॥
    कर्म वासनाओं के कारण होते हैं, इसलिए वह मुक्ति का कारण नहीं हैं। कोई भी करने वाला यदि है, वह एक महासागर की तरह है जो अपने में डुबो देता है, और वो पतन का कारण है। कर्म करने से भी उसका वैसा ही फल मिलेगा जो आप चाहते हैं, ऐसा भी कुछ निश्चित नहीं है, कर्ता भाव से उत्पन्न कोई भी गति आत्म अन्वेषण में बाधा है।
    ईश्वर अर्पितं न इच्छया कृतम् ।
    चित्त शोधकं मुक्ति साधकम् ॥3॥
    ईश्वर यानी यथार्थ की वह सत्ता, जो कि होश स्वरूप है, यदि उसमें मैं अर्पित हो गया, तो सारी इच्छाएं वहीं उसी नैसर्गिक होश की उपस्थिति यानी निर्विकल्प स्वीकार में विलीन हो जाती हैं। तभी वास्तव में निष्काम कर्म होते हैं, जो उसी होश की सत्ता में उठते हैं, उसिको समर्पित होते हैं, और उसीमें विलीन हो जाते हैं। इस निष्काम कर्म या निर्विकल्प स्वीकार में होश अपने परम शुद्ध रूप में प्रकट है, यही शुभता है, और होश का प्रकट पाया जाना ही मुक्ति का साधन है, यही अमृत का पाया जाना है।
    काय वाच् मनः कार्यम उत्तमम् ।
    पूजनं जपः चिन्तनम् क्रमात् ॥4॥
    अपने शरीर से ईश्वर की पूजा की जाए, उससे श्रेष्ठ है की वाणी से जप किया जाए, और उससे भी श्रेष्ठ है कि मन को इस चिंतन में लगा दिया जाए कि मेरा तत्व या मेरा सत्य स्वरूप क्या है? मैं कौन हूं, या मैं क्या हूं? वह नैसर्गिक होश क्या है, जिसमें मैं की कोई भूमिका नहीं है?
    जगत ईशधी युक्त सेवनम् ।
    अष्टमूर्ति भृद् देव पूजनम् ॥5॥
    यदि शरीर से कुछ कर्म होता भी हो, तो उसको यह समझ कर किया जाए कि यह जो जगत है, यह ईश्वर यानी नैसर्गिक होश से युक्त है, वास्तव में यह होश का प्रकट स्वरूप ही है, इस तरह देखते हुए उसकी होश पूर्वक सेवा करी जा सकती है। इस जगत की अभिव्यक्ति आठ भूतों में होती है, पंच महाभूत, सूर्य, चांद और जीव (मन, बुद्धि और अहंकार), जो दिव्य हैं, और वही पूजनीय हैं।
    २) पूर्णम् अदः पूर्णम् ईदम
    पूर्णात पूर्णम उदच्यते
    पूर्णस्य पूर्णम आदाय
    पूर्णम इव वशिष्यते
    ओम् शान्ति शान्ति शान्तिः
    ३) क्या प्रार्थना भी मानसिक कर्म हैं?
    जब स्थूल शरीर से भी पूजा की जाती है,और जीव मानसिक रूप से स्थिर नहीं है, किसी उलझन अथवा प्रश्न में उलझा है तो वह पूजा गौण हो जाएगी, और मन में चल रहे विचार के प्रभाव आयेंगे।
    ऐसा है?
    इस वीडियो में इस विषय पर चर्चा करी गई है।
    यदि कोई सत्संग में जुड़ना चाहता है तो हम हर शनिवार सुबह ७ से ८ बजे टेलिग्राम पर सत्संग करते हैं, जिसमें कोई भी भाग ले सकता है, उसका लिंक है:
    t.me/aatmbodh

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