3) श्री योगसार हिंदी हरिगीतिका पद्धानुवाद गाथाएँ Shri Yogsaar Hindi Harigeetika Gatha दोहा 58 से 84

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  • Опубликовано: 28 авг 2024
  • शून्य नभ सम भिन्न जाने देह को जो आतमा ।
    सर्वज्ञता को प्राप्त हो अर शीघ्र पावे आतमा ।।
    आकाश सम ही शुद्ध है निज आतमा परमातमा।
    आकाश है जड़ किन्तु चेतन तत्त्व तेरा आतमा ।।
    नासाग्र दृष्टिवंत हो देखें अदेही जीव को।
    वे जनम धारण ना करें ना पियें जननी-क्षीर को ।।
    अशरीर को सुशरीर अर इस देह को जड़ जान लो।
    सब छोड़ मिथ्या-मोह इस जड़ देह को पर मान लो।।
    अपनत्व आतम में रहे तो कौन-सा फल ना मिले?
    बस होय केवलज्ञान एवं अखय आनंद परिणमे ।।
    परभाव को परित्याग जो अपनत्व आतम में करें ।
    वे लहें केवलज्ञान अर संसार-सागर परिहरें ।।
    हैं धन्य वे भगवन्त बुध परभाव जो परित्यागते ।
    जो लोक और अलोक ज्ञायक आतमा को जानते ।।
    सागार या अनगार हो पर आतमा में वास हो ।
    जिनवर कहें अतिशीघ्र ही वह परमसुख को प्राप्त हो ।।
    विरले पुरुष ही जानते निज तत्त्व को विरले सुनें ।
    विरले करें निज ध्यान अर विरले पुरुष धारण करें ।।
    सुख-दुःख के हैं हेतु परिजन किन्तु वे परमार्थ से।
    मेरे नहीं' - यह सोचने से मुक्त हों भवभार से ।।
    नागेन्द्र इन्द्र नरेन्द्र भी ना आतमा को शरण दें।
    यह जानकर हि मुनीन्द्रजन निज आतमा शरणा गहें ।।
    जन्मे-मरे सुख-दुःख भोगे नरक जावे एकला।
    अरे! मुक्तीमहल में भी जायेगा जिय एकला ।।
    यदि एकला है जीव तो परभाव सब परित्याग कर ।
    ध्या ज्ञानमय निज आतमा अर शीघ्र शिवसुख प्राप्त कर ।।
    हर पाप को सारा जगत ही बोलता - यह पाप है।
    पर कोई विरला बुध कहे कि पुण्य भी तो पाप है ।।
    लोह और सुवर्ण की बेड़ी में अन्तर है नहीं ।
    शुभ-अशुभ छोड़ें ज्ञानिजन दोनों में अन्तर है नहीं।।
    हो जाय जब निर्ग्रन्थ मन निर्ग्रन्थ तब ही तू बने ।
    निर्ग्रन्थ जब हो जाय तू तब मुक्ति का मार्ग मिले ।।
    जिस भाँति बड़ में बीज है उस भाँति बड़ भी बीज में।
    बस इस तरह त्रैलोक्य जिन आतम बसे इस देह में।।
    जिनदेव जो में भी वही इस भाँति मन निर्धान्त हो।
    है यही शिवमग योगिजन ! ना मंत्र एवं तंत्र है ।।
    दो तीन चउ अर पाँच नव अर सात छह अर पाँच फिर।
    अर चार गुण जिसमें बसें उस आतमा को जानिए ।।
    दो छोड़कर दो गुण सहित परमातमा में जो बसे।
    शिवपद लहें वे शीघ्र ही - इस भाँति सब जिनवर कहें ।।
    तज तीन त्रयगुण सहित निज परमातमा में जो बसे।
    शिवपद लहें वे शीघ्र ही - इस भाँति सब जिनवर कहें ।।
    जो रहित चार कषाय संज्ञा चार गुण से सहित हो ।
    तुम उसे जानो आतमा तो परमपावन हो सको।।
    जो दश रहित दश सहित एवं दश गुणों से सहित हो।
    तुम उसे जानो आतमा अर उसी में नित रत रहो।।
    निज आतमा है ज्ञान दर्शन चरण भी निज आतमा।
    तप शील प्रत्याख्यान संयम भी कहे निज आतमा ।।
    जो जान लेता स्व-पर को निर्धान्त हो वह पर तजे।
    जिन-केवली ने यह कहा कि बस यही संन्यास है।।
    रतनत्रय से युक्त जो वह आतमा ही तीर्थ है।
    है मोक्ष का कारण वही ना मंत्र है ना तंत्र है ।।
    निज देखना दर्शन तथा निज जानना ही ज्ञान है।
    जो हो सतत वह आतमा की भावना चारित्र है ।।

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