2) श्री योगसार हिंदी हरिगीतिका पद्धानुवाद गाथाएँ Shri Yogsaar Hindi Harigeetika Gatha दोहा 28 से 57

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  • Опубликовано: 28 авг 2024
  • त्रैलोक्य के जो ध्येय वे जिनदेव ही हैं आतमा ।
    परमार्थ का यह कथन है निर्धान्त यह तुम जान लो ।।
    जबतक न जाने जीव परमपवित्र केवल आतमा ।
    तबतक न व्रत तप शील संयम मुक्ति के कारण कहे ।।
    जिनदेव का है कथन यह व्रत शील से संयुक्त हो ।
    जो आतमा को जानता वह सिद्धसुख को प्राप्त हो ।।
    जबतक न जाने जीव परमपवित्र केवल आतमा ।
    तबतक सभी व्रत शील संयम कार्यकारी हों नहीं ।।
    पुण्य से हो स्वर्ग नर्क निवास होवे पाप से ।
    पर मुक्ति-रमणी प्राप्त होती आत्मा के ध्यान से ।।
    व्रत शील संयम तप सभी हैं मुक्तिमग व्यवहार से ।
    त्रैलोक्य में जो सार है वह आतमा परमार्थ से ।।
    परभाव को परित्याग कर अपनत्व आतम में करे ।
    जिनदेव ने ऐसा कहा शिवपुर गमन वह नर करे ।।
    व्यवहार से जिनदेव ने छह द्रव्य तत्त्वारथ कहे ।
    हे भव्यज़न ! तुम विधीपूर्वक उन्हें भी पहिचान लो।।
    है आतमा बस एक चेतन आतमा ही सार है ।
    बस और सब हैं अचेतन यह जान मुनिजन शिव लहैं।।
    जिनदेव ने ऐसा कहा निज आतमा को जान लो ।
    यदि छोड़कर व्यवहार सब तो शीघ्र ही भवपार हो ।।
    जो जीव और अजीव के गुणभेद को पहिचानता।
    है वही ज्ञानी जीव वह ही मोक्ष का कारण कहा ।।
    यदि चाहते हो मोक्षसुख तो योगियों का कथन यह ।
    हे जीव! केवलज्ञानमय निज आतमा को जान लो ।।
    सुसमाधि अर्चन मित्रता अर कलह एवं वंचना।
    हम करें किसके साथ किसकी हैं सभी जब आतमा ।।
    गुरुकृपा से जबतक कि आतमदेव को नहिं जानता।
    तबतक भ्रमे कुत्तीर्थ में अर ना तजे जन धूर्तता ।।
    श्रुतकेवली ने यह कहा ना देव मन्दिर तीर्थ में ।
    बस देह-देवल में रहे जिनदेव निश्चय जानिये ।।
    जिनदेव तनमन्दिर रहें जन मन्दिरों में खोजते ।
    हँसी आती है कि मानो सिद्ध भोजन खोजते ।।
    देव देवल में नहीं रे मूड! ना चित्राम में ।
    वे देह-देवल में रहें सम चित्त से यह जान ले ।।
    सारा जगत यह कहे श्री जिनदेव देवल में रहें ।
    पर विरल ज्ञानी जन कहें कि देह-देवल में रहें ।।
    यदि जरा भी भय है तुझे इस जरा एवं मरण से ।
    तो धर्मरस का पान कर हो जाय अजरा-अमर तू ।।
    पोथी पढ़े से धर्म ना ना धर्म मठ के वास से ।
    ना धर्म मस्तक लुंच से ना धर्म पीछी ग्रहण से ।।
    परिहार कर रुष-राग आतम में बसे जो आतमा।
    बस पायगा पंचम गति वह आतमा धर्मातमा ।।
    आयु गले मन ना गले ना गले आशा जीव की।
    मोह स्फुरे हित ना स्फुरे यह दुर्गति इस जीव की ।।
    ज्यों मन रमे विषयानि में यदि आतमा में त्यों रमे ।
    योगी कहें हे योगिजन! तो शीघ्र जावे मोक्ष में ।।
    'जनजरित है नरक सम यह देह ' - ऐसा जानकर ।
    यदि करो आतम भावना तो शीघ्र ही भव पार हो ।।
    धंधे पड़ा सारा जगत निज आतमा जाने नहीं।
    बस इसलिए ही जीव यह निर्वाण को पाता नहीं ।।
    शास्त्र पढ़ता जीव जड़ पर आतमा जाने नहीं।
    बस इसलिए ही जीव यह निर्वाण को पाता नहीं ।।
    परतंत्रता मन-इन्द्रियों की जाय फिर क्या पूछना।
    रुक जाय राग-द्वेष तो हो उदित आतम भावना ।।
    जीव पुद्गल भिन्न हैं अर भिन्न सब व्यवहार है।
    यदि तजे पुद्गल गहे आतम सहज ही भवपार है ।।
    ना जानते -पहिचानते निज आतमा गहराई से ।
    जिनवर कहें संसार-सागर पार वे होते नहीं ।।
    रतन दीपक सूर्य घी दधि दूध पत्थर अर दहन ।
    सुवर्ण रूपा स्फटिक मणि से जानिये निज आत्मन् ।।

Комментарии • 4

  • @prakashjhanjhari5773
    @prakashjhanjhari5773 Год назад

    बहुत बहुत सुंदर कथ्य भी और प्रस्तुति भी,,,

  • @vishaljain8050
    @vishaljain8050 2 года назад

    🙏🙏🙏🙏🙏👍

  • @ankitjain7706
    @ankitjain7706 Год назад

    ये ad बंद करो भैया। अच्छा स्वाध्याय चल रहा होता he बीच मे बहुत disturb हो जाता है।