पुण्य एक, नहीं जग में दूजा, मन क्रम वचन, विप्र पद पूजा |आध्यात्मिक भागवत कथा | पं.अवधेश मिश्रा किंकर
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- Опубликовано: 7 сен 2024
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सत्कर्म (शुभ कर्म): यदि हम अच्छे कर्म करते हैं, जैसे कि वृक्ष लगाना, उनका संवर्द्धन करना, पथिकों की सेवा करना और प्रपा की व्यवस्था करना, तो यह पुण्यप्रद होता है।
सत्वशुद्धिकारक पुण्यकर्म: यज्ञीय कर्म, जैसे कि अग्निहोत्रादि यज्ञ, स्वर्गप्राप्ति के लिए मान्य होते हैं।
इष्टापूर्वकर्म: यह रूपलौकिक कर्म भी पुण्य कर्म माने जाते हैं।
इसके अलावा, गीता में भी पाप और पुण्य के बारे में शिक्षा दी गई है। यदि हम पुनर्जन्म को मानते हैं और कर्मों के फल को मानते हैं, तो हमें हमारे कर्मों के आधार पर पुण्य और पाप को समझना चाहिए
जय 🙏 सचिदानंद जी