कुरुक्षेत्र: द्वितीय सर्ग By रामधारी सिंह दिनकर (Kurukshetra - Canto 2 - Ramdhari Singh Dinkar)

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  • Опубликовано: 16 окт 2024
  • हिन्दी साहित्य में दिनकर का कुरूक्षेत्र अलग पहचान रखने वाला काव्य है। दूसरे सर्ग में भीषण युद्ध कि समाप्ति के पश्चात शाम के समय युधिष्ठिर अपने बंधु - बांधवों के साथ शर शैय्या पर उत्तरायण की प्रतीक्षा कर कर रहे कौरव-कुल-शिरोमणि भीष्मपितामह का कुशलक्षेम पूछने के लिए उनके पास जाते हैं I वहां पहुँचने पर प्रणाम कर युधिष्ठिर पितामह के चरणों के पास खड़े हो जाते हैं एवं प्रश्न करते हैं-----
    युधिष्ठिर :- पितामह ऐसा क्यों होता है , कि शुभ और पुण्य कर्म करने वालों को जीवन भर संघर्ष करना पड़ता है , जबकि पाप कर्मों में लिप्त और जीवन भर भोग - विलासमय जीवन व्यतीत करने वाले कभी भी समस्याओं के भंवर में फंसते हुए नहीं देखे जाते ।
    पितामह :- मैं जानता हूँ , कि तुमने आज मुझसे यह प्रश्न कौरवों और पांडवों के सम्बन्ध में पूछा है I मेरी बात गौर से सुनो कि मनुष्य को अपने जीवन- काल में केवल अपने कर्मों का फल ही नहीं भोगना पड़ता अपितु स्वयं के साथ -साथ उसे अपने पूर्वजों के कर्मों के फलों का लेखा जोखा भी संभालना पड़ता है I इसलिए कई बार व्यक्तियों को जीवन भर धर्मं के मार्ग पर अडिग रहते हुए भी सुख का एक भी क्षण प्राप्त नहीं होता है और कई व्यक्ति ऐसे होते है ,जो जीवन भर अधर्म में लिप्त रहते हुए भी सुख भोग करते हैं I इन दोनों का संवाद आज भी उतना ही प्रासांगिक है जितना उन दिनों था । अफसोस की बात है कि ऐसे काव्य पढ़ने के बावजूद भी आज हम अपने व्यक्तिगत एवं सामाजिक जीवन में कितने बौने नजर आते हैं । काश! हम सब इन संवादों के आशय को अपने जीवन में थोड़ी सी जगह दे पाते !

Комментарии • 2

  • @ashokvashisth4717
    @ashokvashisth4717 Год назад +3

    बहुत ही सुंदर प्रस्तुति है, लेकिन व्यख्या भी कर दे, सोने पर सुहागा हो जाएगा

  • @jyotikumari-zz3zf
    @jyotikumari-zz3zf Год назад +4

    Iska vyakhaya kar dijiyr plz