कुरुक्षेत्र - सातवां सर्ग By रामधारी सिंह दिनकर (Kurukshetra - Canto 7 By Ramdhari Singh Dinkar)

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  • Опубликовано: 16 окт 2024
  • यह कहना बिल्कुल सही है कि आत्मविश्वास, कर्मठता, सामयिक प्रश्नों के प्रति जागरुकता, चुनौती भरा आशावादी स्वर, उदात्त सांस्कृतिक दृष्टिकोण, प्रखर राष्ट्राभिमान आदि ऐसे तत्व हैं, जो रामधारी सिंह 'दिनकर' को परंपरावादी कवियों से अलग कर देते हैं। सच्चे अर्थों में वे ‘युगचारण’ तथा ‘जनकवि’ थे। अपने कुरुक्षेत्र प्रबन्ध काव्य के सातवें सर्ग में भी दिनकर ने मानवतावादी संस्कृति की पुरजोर वकालत की है और क्रोध, घृणा, बदले की भावना आदि मानवीय दुर्बलताओं के कारण होने वाले संहार को मानवता के भविष्य के लिए विनाशकारी बताया है।
    दिनकर ने लिखा है " कुरूक्षेत्र की रचना भगवान व्यास के अनुसरण पर नहीं हुई है और न महाभारत को दुहराना मेरा उद्देश्य था।मुझे जो कुछ कहना था वह युधिष्ठिर और भीष्म का प्रसंग उठाए बिना कह सकता था, किन्तु तब यह प्रबन्ध न होकर मुक्तक हो जाता।"
    सातवें और अन्तिम सर्ग में कवि सन्देश देता है कि युधिष्ठिर की विरक्ति का मूल कारण कुरूक्षेत्र की विनाश लीला है और यह युधिष्ठिर आधुनिक मानव की नैतिकता का प्रतीक है। यही प्रतीक काव्य के अन्त में मानवतावाद की प्रतिष्ठा की आशा के रूप में हम सबको प्रेरित करता है।

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