Class 8.29 । कर्म बन्ध विज्ञान - मरने के बाद आत्मा को कौन और कहाँ ले जाता है ? सूत्र 11
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- Опубликовано: 2 окт 2024
- Class 8.29 summary
सूत्र ग्यारह में हमने नामकर्म के बारे में जाना
पहला नामकर्म गति नामकर्म है
इसके चार भेद होते हैं - नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव गति
गति नामकर्म गमन कराता है अर्थात
जीव को इस गति से दूसरी गति में ले जाता है
आत्मा शरीर छूटने पर इसके कारण दूसरी गत्यंतर को प्राप्त होता है
भगवान हमें उठाकर यहाँ वहाँ जन्म नहीं कराता
क्योंकि अगर भगवान यह करेगा
तो एक तरह से वह हमारा नौकर हो जाएगा
हमें कर्मों के ज्ञान से अपने और दूसरों के इस अज्ञान को दूर करना चाहिए
हमें बचपन से ज्ञात इन चार गतियाँ को महसूस भी करना चाहिए
हमने आयु कर्म और गति नामकर्म के अंतर को भी जाना
गति का काम, आयु के उदय के साथ, गति से गत्यंतर करना होता है
गति में शरीर के साथ पहुँचने पर,
जीव को शरीर में रोके रखने का मुख्य काम आयु कर्म का होता है
आयु और गति नामकर्म दोनों एक साथ उदय को प्राप्त होकर
जीव को शरीर सहित बना देते हैं
हमने जाना कि गति नामकर्म तो केवल गति में ले जाता है
हर गति में बहुत सारे समूह होते हैं
जैसे नरक गति में सात में से कौन सी पृथ्वी में जाना है?
जैसे अगर हम किसी शहर से दिल्ली platform पर पहुँच जाएँ
तो भी शक्तिनगर, रोहिणी आदि स्थानों पर जाने के लिए दूसरे साधन लेने होंगे
यहाँ गति के बाद जीव किस समूह में जाएगा यह जाति नामकर्म decide करता है
यहाँ जाति का अभिप्राय ब्राह्मण आदि जातियाँ नहीं है
जाति का अर्थ एक जैसे इन्द्रियों, काय आदि वाले जीवों का समूह है
एकेन्द्रिय से पंचेंद्रिय पाँच मुख्य जातियाँ हैं
जाति नाम कर्म के माध्यम से इनका भी आगे-आगे पर्यायों में विभाजन होता है
जैसे जीव एकेन्द्रिय में पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति रूप
दो इन्द्रिय में लट, कौड़ी, कुंथु आदि जीव
तीन इन्द्रिय में चींटी, चींटे, मकोड़े, खटमल आदि
पंचेंद्रिय जाति चारों गतियों में होती है
जहाँ तिर्यंच गति में सभी जातियाँ होती हैं
मनुष्य, देव और नरक गति में सिर्फ पंचेन्द्रिय जाति होती है
गति और जाति decide होने के उपरांत, शरीर नामकर्म द्वारा
जाति के अनुरूप शरीर की रचना होती है
हमने दूसरे अध्याय में जाना था कि
शरीर - औदारिक, वैक्रियक, आहारक, तेजस और कार्मण के भेद से पाँच प्रकार के होते हैं
देव और नरक गति में वैक्रियक शरीर मिलता है
मनुष्य और तिर्यंच गति में औदारिक शरीर
कार्मण और तेजस शरीर सभी जीव के साथ हमेशा रहते हैं
और आहारक शरीर मुनि-महाराज के शरीर से एक पुतला के रूप में निकलता है
अंगोपांग नामकर्म के माध्यम से शरीर के अन्दर अंग-उपांगों की रचना होती है
इनकी रचना केवल औदारिक, वैक्रियक और आहारक शरीर में ही होती है
अंग आठ होते हैं
दो हाथ, दो पैर, नितंब, पीठ, हृदय और मस्तक
अंगों के साथ की अनेक और चीजें उपांग कहलाते हैं
ये बहुत सारे हो सकते हैं
जैसे हाथ की उँगलियाँ, नाखून, पौरे इत्यादि
दोनों का अपना अलग महत्व है
आठों अंग भिन्न नहीं होने वाले व्यक्ति को सकलांग कहते हैं
इसी प्रकार जिस मूर्ति का अंग खण्डित है, तो उसे खण्डित मानते हैं
उपांग खण्डित मूर्ति को खण्डित नहीं मानते
जैसे मुख, ओंठ, आँख आदि उपांग कुछ दबने या घिसने से मूर्ति खण्डित नहीं होती है
लेकिन मस्तक, हृदय स्थान, पीठ आदि टूटने पर वह खण्डित मानी जाती है
इसी प्रकार विकलांग व्यक्ति को भी धर्म कार्यों में थोड़ा सा पीछे रहना पड़ता है
असाता कर्म, उपघात आदि नामकर्म के कारण
अंगोंपांग नामकर्म के माध्यम से हुई अंगोंपांगों की रचनायें
दुर्घटना आदि में छिन्न-भिन्न, नष्ट हो जाती हैं
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