DAY 6 महाकुंभ प्रयागराज 2025 SWAMI PARAMANAND GIRI JI MAHARAJ

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  • Опубликовано: 8 фев 2025
  • यह व्याख्यान आध्यात्मिकता, ब्रह्मज्ञान और मुक्ति के विषयों पर केंद्रित है। वक्ता संतों, अच्छे लोगों, और दुष्टों के बारे में चर्चा करते हुए शुरूआत करते हैं, और फिर लोक और परलोक के सुख के बीच संतुलन बनाने की महत्ता पर जोर देते हैं।
    महाकुंभ का महत्व और जीवन की क्षणभंगुरता:
    वक्ता महाकुंभ के महत्व का उल्लेख करते हैं और जीवन की क्षणभंगुरता पर प्रकाश डालते हैं। वे कहते हैं कि एक महीने बाद जन्म लेने वालों को महाकुंभ का सौभाग्य प्राप्त नहीं होगा क्योंकि जीवन अनिश्चित है।
    विभिन्न मतों का एकीकरण:
    वक्ता विभिन्न धार्मिक मतों - वैष्णव, शैव, और शाक्त - का उल्लेख करते हैं और बताते हैं कि सभी देवता ब्रह्म का ही स्वरूप हैं। शिव, राम, कृष्ण सभी ब्रह्म हैं। वक्ता तुलसीदास जी का उदाहरण देते हुए राम को ब्रह्म का स्वरूप बताते हैं।
    गुरु और ब्रह्म की पहचान:
    वक्ता गुरु को ब्रह्मा, विष्णु, महेश्वर और परब्रह्म के समान बताते हैं। वे कहते हैं कि मनुष्य भी यदि समझ जाए तो ब्रह्म स्वरूप हो सकता है। कथा का उद्देश्य यही समझाना है कि हम सब शिव और ब्रह्म हैं।
    ध्यान का महत्व और अनुभव:
    वक्ता ध्यान के महत्व और अपने अनुभवों को साझा करते हैं। वे बताते हैं कि ध्यान से क्रोध, काम जैसे विकार दूर होते हैं और आनंद की प्राप्ति होती है। वे ध्यान के दौरान होने वाले कुछ अलौकिक अनुभवों का भी वर्णन करते हैं।
    कथा का सार और उपदेश:
    कथा के समापन पर, वक्ता उपदेश देते हैं कि जो ज्ञान यहाँ प्राप्त हुआ है उसे अपने साथ ले जाएं। वे कहते हैं कि शरीर नश्वर है, पर वाणी और पुण्य अमर हैं। ब्रह्मज्ञान लाभ-हानि से परे है।
    गीता का संदेश:
    गीता का उदाहरण देते हुए, वक्ता बताते हैं कि ज्ञानी को लाभ-हानि, जय-पराजय सब समान लगते हैं। ये सब मन के भ्रम हैं। जैसे स्वप्न में लाभ-हानि का कोई अर्थ नहीं, वैसे ही जागृत अवस्था में भी नहीं।
    आत्मा की प्रकृति:
    वक्ता आत्मा की प्रकृति के बारे में बताते हैं। वे कहते हैं कि आत्मा में संयोग-वियोग, कल्पना, बंधन कुछ नहीं होता। आत्मा निर्विकल्प है। बंधन और मुक्ति बुद्धि के कारण होती है।
    अंतिम उपदेश:
    अंत में, वक्ता ध्यान की एक विधि बताते हैं जिसमें आँखों को बंद करके, ध्यान को आँखों पर केंद्रित करके, फिर पूरे शरीर में फैलाना है। वे कहते हैं कि पूरे शरीर में चेतना व्याप्त होने पर, कहीं आने-जाने का प्रश्न ही नहीं रहता। जैसे आकाश सर्वव्यापी है, वैसे ही आत्मा भी।

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