श्री गुरु चालीसा@लेखिका:- अनन्त श्री विभूषित महामण्डलेश्वर1008 स्वामी वेद भारती जी महाराज
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- Опубликовано: 7 фев 2025
- श्री गुरु चालीसा
दोहा
गुरु चरणन का ध्यान धर, करू में गुरु यश गान ।
गुरु आशिष ही लेखनी, गुरु कृपा ही ज्ञान ॥
नहीं बुद्धि नहीं विद्या, नहीं विवेक नहीं ज्ञान ।
बरनऊं सतगुरु विमल यश, भवसागर जलयान ।।
चौपाई
ब्रह्म रुप गुरु अन्तर्यामी,
तीन लोक के आप स्वामी ।
गुरु की महिमा अपरम्पार,
पा न सके कोई जिसका पार ।
नेति-नेति जेहि वेद बतावे,
सगुण रुप सतगुरु कहलावे ।
सतगुरु पूर्ण दीनदयाला,
सदा रहे भकतन प्रतिपाला ।
गुरु कृपा से पावे ज्ञान,
जिससे मिटता मोह अज्ञान ।
गुरु कृपा से मुक्ति पावे,
पूर्ण सतगुरु भेद बतावे ।
जो सतगुरु की शरणी आवे,
जन्म-मरण के रोग मिटावे ।
गुरु भक्ति भिलनी मन भाई,
राम दर्श से मुक्ति पाई ।
गुरु वचन पर दृढ़ विश्वास,
पूर्ण हो गई उसकी आस ।
गुरु निष्ठा एकलव्य कीन्हीं,
गुरु मूर्त से शिक्षा लिन्हीं ।
अर्जुन का अभिमान गिराया,
गुरु भक्तों में नाम है पाया ।
गुरु दशमेश का भक्त कन्हैया,
सतगुरु पार लगाई नैया ।
ऐसी कृपा सतगुरु कीन्हीं,
बख्शीश में समदृष्टि दीन्हीं ।
हर में रुप गुरु का देखा,
मिट गया जन्म-मरण का लेखा ।
गुरु नानक का सेवक लैहणा,
सेवक लेहणा सतगुरु देना ।
गुरु हुक्म से सेवा कमाई,
गुरु अंगद की पदवी पाई ।
गुरु को महिमा बड़ी अनूप,
दे देते हैं अपना रुप ।
गुरु नारद उपदेश जो दीन्हा,
पार्वती ने उर धर लीन्हा ।
घोर तपस्या का फल पाया,
शिव शम्भू वर उसने पाया ।
अमरकथा जब शम्भू बखानी,
गुरु कृपा भई अमर भवानी ।
जिसने ध्याया उसने पाया,
सतगुरु तेरी अद्भुत माया ।
गुरु की मूर्त्त मन में लाओ,
घट भीतर गुरु दर्शन पाओ ।
गुरु चरणों में शीश झुकाओ,
चार पदार्थ गुरु से पाओ ।
गुरु के वचन हुक्म कर मानो,
सकल मनोरथ पूर्ण जानो ।
गुरु की कृपा विरति जोड़े,
आवागमन के बन्धन तोड़े ।
नैनन से गुरु दर्शन कीजे,
कान सफल वाणी से कीजे ।
मुख से जपिये गुरु का नाम,
सफल होवे तेरे पूर्ण काम ।
हाथों से करो गुरु की सेवा,
सेवा से मिलता है मेवा ।
श्वास-2 करो गुरु को पूजा,
एहि सम उत्तम कर्म न दूजा ।
सकल देव करें गुरु में वास,
बन जा गुरु चरणों का दास ।
गुरु दृष्टि से परम गति होय,
गुरु बिन ज्ञान न पावे कोय ।
राम कृष्ण जो थे भगवान,
गुरु चरणों में पाया ज्ञान ।
गुरु बिन मार्ग कौन दिखावे,
गुरु ही पर्दा दूर हटावे ।
गुरु से पाइए सच्चा प्यार,
गुरु से मिलता मोक्ष द्वार ।
अन्त समय जो गुरु को ध्याता,
यम न उसका खोले खाता ।
उसका लेखा गुरु के हाथ,
पग-पग देता सतगुरु साथ ।
बांह पकड़ गुरु पार लगावे,
गुरु का सेवक क्यों घबरावे ।
अंहकार न आवे पास,
बनकर रहिए गुरु के दास ।
नित उठ ध्यान गुरु का कीजे,
तन-मन-धन सब अर्पण कीजे ।
पाठ करे जो गुरु चालीसा,
उसको आन मिले जगदीशा ।
दोहा
गुरु की कीजे वन्दना, चरण कमल चित्त लाय ।
विवेक ज्ञान को पाइए, अन्त मुक्त हो जाय ।।
विवेक ज्ञान की धार से, काटे सतगुरु फन्द ।
जीवन कटे आनंद में, अंत में परमानन्द ।।
लेखिका:- अनन्त श्री विभूषित महामण्डलेश्वर
1008 स्वामी वेद भारती जी महाराज
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