ग़ज़ल-57 || तुम हिन्दू न मुसलमाँ समझो ||

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  • Опубликовано: 26 окт 2024
  • ग़ज़ल 57
    तुम हिन्दू न मुसलमाँ समझो
    इंसाँ को बस इंसाँ समझो
    मिट्टी को वो माँ कहते थे
    इस मिट्टी को बस माँ समझो
    तुम समझो मुझको जो हूँ मैं
    क्यों दुश्मन जान-ए-जाँ समझो
    ढूँढो कोई नक़्श मिरा भी
    कुछ तो मेरे अरमाँ समझो
    जो इनकार नहीं करता है
    इसको उसकी तुम हाँ समझो
    गर न अभी तक तुम हो समझे
    फिर तुम ख़ुद को नादाँ समझो
    ग़ज़लें लिखना मुश्किल 'सलमा'
    काम नहीं ये आसाँ समझो

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