Ishtopadesh Ji इष्टोपदेश जी हिंदी गाथाएँ Aacharya Pujyapad Swami Virachit आचार्य पूज्यपाद स्वामी

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  • Опубликовано: 28 авг 2024
  • प्रगटा सहज स्वभाव निज, किए कर्म-अरि नाश ।
    ज्ञानरूप परमात्म को, प्रणहूँ मिले प्रकाश ॥१॥
    उपादान के योग से, उपल कनक हो जाय ।
    निज द्रव्यादि चतुष्कवश, शुद्ध आत्मपद पाय ॥२॥
    आतप छाया स्तिथ पुरुष , के दुःख-सुख की भाँति ।
    व्रत से पाता स्वर्ग अरु, अव्रत से नरकादि ॥३॥
    जिन भावों से मुक्तिपद, कौन कठिन है स्वर्ग ।
    वहन करे जो कोश दो, कठिन कोश क्या अर्ध॥४॥
    भोगें सुरगण स्वर्ग में, अनुपमैय सुख-भोग ।
    निरातंक चिरकाल तक, हो अनन्य उपभोग ॥५॥
    सुख-दु:ख केवल देह की, मात्र वासना जान ।
    करें भोग भी विपत्ति में, व्याकुल रोग-समान ॥६॥
    ज्ञानमोह संवृत्त को, नहीं स्वरूप का पहचान ।
    ज्यों मद से उन्मत्त नर, खो देता सब भान ॥७॥
    तन धन घर तिय मित्र अरि, पुत्र आदि सब अन्य ।
    परस्वभाव से मूढ़ नर, माने उन्हें अनन्य ॥८॥
    चहुँदिशि से आकर विहग, रैन बसे तरु-डाल ।
    उड़े प्रातः निज कार्यवश, यही जगतजन चाल ॥९॥
    त्रास दिया तब त्रस्त अब, क्यों हन्ता पर कोप? ।
    अंगुल गिरा स्वयं गिरे, हो जब दण्ड-प्रयोग ॥१०॥
    राग-द्वेष रस्सी बँधा, भव-सर घूमे आप ।
    आत्म-भ्रान्तिवश आप ही, सहे महा सन्ताप ॥११॥
    विपदा एक टले नहीं, बाट बहुत-सी जोय ।
    रहट बँधा घटकूप से, कभी न खाली होय ॥१२॥
    अर्जन रक्षण है कठिन, फिर भी सत्वर नाश ।
    रे! धनादि का सुख यथा, घृत से ज्चर ना नाश ॥१३॥
    कष्ट अन्य के देखता, पर अपनी सुध नाहिं ।
    तरु पर बैठा नर कहे, हिरण जले वन मांहि ॥१४॥
    आयुक्षय, धनवृद्धि का, कारण जानो काल ।
    धन, प्राणों से प्रिय लगे, अतः धनिक बेहाल ॥१५॥
    निर्धन धन चाहे कहे, कहें पुण्य दूँ दान ।
    कीच लिपे पर मानता, मूढ़ किया मैं स्नान ॥१६॥
    भोगार्जन दु:खद महा, प्राप्ति समय अतृप्ति ।
    भोग-त्याग के समय कष्ट, सुधी छोड़ आसक्ति ॥१७॥
    हो जाते शुचि भी अशुचि ,जिसको छूकर अर्थ ।
    काया है अति विघ्नमय, उस हित भोग अनर्थ ॥१८॥
    करें आत्म-उपकार जो, उनसे तन-अपकार ।
    जो उपकारक देह के, उनसे आत्म-विकार ॥१९॥
    चिन्तामणि-सा दिव्यमणि, और काँच के टूक ।
    सम्भव है सब ध्यान से, किसे मान दें बुद्ध? ॥२०॥
    नित्य अतुल सुख पुंज जीव, जाने लोक अलोक ।
    तन प्रमाण अनुभव करे, निज बल से मुनिलोक॥२१॥
    कर मन की एकाग्रता, अक्ष प्रसार निवार।
    रुके वृत्ति स्वच्छन्दता, निज में आत्म निहार ॥२२॥
    जड़ से जड़ता ही मिले, ज्ञानी से निज ज्ञान ।
    जो कुछ जिसके पास वह, करे उसी का दान ॥२३॥
    निज को निज में चिन्तवे, टले परीषह लक्ष ।
    हो आस्रव अवरोध अरु, जगे निर्जरा कक्ष ॥२४॥
    में कट का कर्ता' यही, करे द्वैत को सिद्ध ।
    ध्यान-ध्येय-एकत्व में, द्वैत सर्वदा अस्त ॥२५॥
    ममता बंधन मूल है, ममताहीन विमुक्त ।
    प्रतिपल जाग्रत ही रहे, निर्ममता का लक्ष्य ॥२६॥
    निर्मम एक विशुद्ध मैं, केवलज्ञानी गम्य ।
    को तन वच को विषय अरु, है विभाव सब अन्य ॥२७॥
    देहादिक संयोग से, होते दुःख संदोह ।
    मन वच तन सम्बन्ध को, मन वच तन से छोड़ ॥२८॥
    किसका भय जब अमर मैं, व्याधि बिना क्या पीड़? ।
    बाल-वृद्ध-यौवन नहीं, यह पुद्गल की भीड़ ॥२९॥
    पुनः पुनः भोगे सभी, पुद्गल मोहाधीन ।
    क्या चाहूँ उच्छिष्ट को, मैं ज्ञानी अक्षीण ॥३०॥
    जीव, जीव का हित करे; कर्म, कर्म की वृद्धि ।
    निज-बल सत्ता सब चहे, कौन चहे नहिं रिद्धि ॥३१॥
    परहित अज्ञ रहे वृथा , पर उपवृत्ति छोड़ ।
    लोकतुल्य निज हित करो , निज को निज में जोड़ ॥३२॥
    गुरु उपदेशाभ्यास से, निज-पर भेदविज्ञान ।
    स्वसंबेदन बल करे, अनुभव मुक्ति महान ॥३३॥
    निज-हित अभिलाषी स्वयं, निज-हित ज्ञायक आप ।
    निज-हित प्रेरक है स्वयं, आत्मा का गुरु आप ॥३४॥
    अज्ञ न पावे विज्ञता, नहीं विज्ञता अज्ञ ।
    पर तो मात्र निमित्त है, ज्यों गति में धर्मास्ति ॥३५॥
    हो विक्षेप विहीन, तज आलस और प्रमाद ।
    निर्जन में स्वस्थित करे, योगी तत्वभ्यास ॥३६॥
    ज्यों-ज्यों अनुभव में निकट, आता उत्तम तत्व ।
    नहिं सुलभ्य भी विषय फिर, लगे योगी को भव्य ॥३७॥
    जब सुलभ्य भी विषय नहीं, लगें योगी को भव्य ।
    आता अनुभव में निकट, त्यों-त्यों उत्तम तत्त्व ॥३८॥
    इन्द्रजाल सम जग दिखे, करे आत्म-अभिलाष ।
    अन्य विकल्पों में करे, योगी पश्चाताप ॥३९॥
    योगी निर्जन वन बसे, चहे सदा एकान्त ।
    यदि प्रसंग-वश कुछ कहे, विस्मृत हो उपरान्त ॥४०॥
    भाषण अवलोकन गमन, करते दिखे मुनीश ।
    किंतु अकर्ता ही रहे, लक्ष्य स्वरुप विशेष ॥४१॥
    कैसा किसका क्यों कहाँ ?, प्रवृत्ति विकल्प विहीन ।
    तन को भी नहीं जानते, योगी अन्तर्लीन ॥४२॥
    जहाँ वास करने लगे, रमे उसी में चित्त ।
    जहाँ चित्त रमने लगे, हटे नहीं फिर प्रीत ॥४३॥
    आत्मा से अन्यत्र नहीं, कायादिक में वृत्ति ।
    रमे ना पर पर्याय में, बने न किंतु विमूढ़ ॥४४॥
    पर तो पर है दु:खद है, आत्मा सुखमय आप ।
    योगी करते हैं अतः, निज-उपलब्धि प्रयास ॥४५॥
    करता पुद्गल द्रव्य का, अज्ञ समादर आप ।
    तजे न चतुर्गति में अतः, पुद्गल चेतन-साथ ॥४६॥
    ग्रहण-त्याग व्यवहार बिन, जो निज में लवलीन ।
    होता योगी को कोई, परमानन्द नवीन ॥४७॥
    साधु बहिर्दु:ख में रहे, दुःख-संवेदन हीन ।
    करते परमानन्द से, कर्म प्रचुर प्रक्षीण ॥४८॥
    करे अविद्या-नाश वह, ज्ञान-ज्योति उत्कृष्ट ।
    तत प्रक्षा इक्छा अनुभव, है मुमुक्षु को इष्ट ॥४९॥
    चेतन पुद्गल भिन्न है, यही तत्त्व संक्षेप ।
    अन्य कथन सब है इसी, के बिस्तार विशेष ॥५०॥
    विधिवत नगर विपिन बसे, तजि हठ माना मान ।
    भव्य इष्ट उपदेश पड़, ले अनुपम निर्वाण ॥५१॥

Комментарии • 6

  • @jainism6893
    @jainism6893 2 года назад

    bahut bahut bahut sunder arth bhi aur singing bhi

  • @VIJAYJAIN-zt2jb
    @VIJAYJAIN-zt2jb 3 года назад

    🙏🏿🙏🏿🙏🏿🙏🏿🙏🏿

  • @jainism6893
    @jainism6893 2 года назад

    🙏❤️👍

  • @dr.meenaljain7590
    @dr.meenaljain7590 Год назад

    🙏🪔🙏🪔🙏यह इष्टोपदेश ग्रंथ - आत्म कल्याण का श्रेष्टतम मार्गदर्शक है। यह लघु ग्रन्थ गागर में सागर सम अत्यंत गुड़ मर्म लिए है। समयसरजी ग्रंथराज का सारभुत सार है । आचार्य पूज्यपाद् स्वामी द्वारा सम्प्रेषित भव्य आत्माओं की आत्म उन्नति हेतु । The Divine Discourse in this is so beautiful would connect Soul to higher self. 🙏🪔

  • @shaileshmehta298
    @shaileshmehta298 6 лет назад

    📣📣📣🚩