भारत के अक्साई चीन वाली गलवान घाटी का इतिहास।

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  • Опубликовано: 18 окт 2024
  • #गलवान घाटी का इतिहास।
    वास्तव में इस विवादित इतिहास की शुरुआत 1958 ईस्वी मे तब हुई , जब चीन ने भारत , पाकिस्तान के लिए सामरिक महत्व के इस इलाके में सड़क और सैनिक अड्डों का निर्माण करना शुरु किया था । तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री स्व. #जवाहरलाल_नेहरू ने चीन की इस शरारत पर कड़ी आपत्ति जताई , लेकिन जब भारतसरकार को लगा कि हम युद्ध में चीन से जीत नहीं सकते हैं तो सरकार ने चुप्पी साध ली । भारत की संसद में भी इसको लेकर बहुत बहस हुई , किन्तु प्रधानमंत्री श्री नेहरु जी ने यह कहकर टाल दिया था कि यह बंजर बियावान इलाका है । इसे तत्कालीन परिस्थिति की मजबूरी कहा जा सकता है , लेकिन भारत ने इस 75हजार वर्ग किमी अक्साई चीन इलाके पर से अपना दावा कभी नहीं छोड़ा था । इस विवाद के बीच भारत की उदासीनता के कारण चीन ने यहाँ पूरी तरह से सामरिक तैयारियां कर रखा है ।
    भारत मे भाजपानीत एनडीए की सरकार बनने के बाद प्रधानमंत्री श्री #नरेन्द्र_मोदी ने भारतीय सेना और अर्थव्यवस्था को मजबूत करने के बाद अपनी सीमाओं को सुदृढ़ करना शुरू किया । बगैर किसी हो हल्ले के सीमाओं की सुरक्षा और वास्तविक सीमा रेखा तक सैनिकों एवं सैनिक साजो सामान को द्रुतगति से पहुँचाने के लिये ऐसे इलाकों में सड़कों , पुलों , सुरंगों , हवाई अड्डों का निर्माण बहुत तेजी से कराया है ।
    इसी कड़ी मे अक्साई चीन सीमा पर #श्योक - #शोक नदी के किनारे सड़क का निर्माण किया है , इसी को लेकर चीन की ओर से आपत्ति की जारही है । यथार्थ यह है कि भारत ने इस सड़क का निर्माण कार्य पूरा कर लिया है और अब भारतीय सेना 1958 मे चीन द्वारा अवैध रूप से हथियाये गए अक्साई चीन पर दृढता से दृष्टि जमाये हुयें है ।
    #नामकरण -
    भारत-चीन सीमा पर मौजूद इस घाटी का इतिहास देखें तो पता चलता है कि गलवन समुदाय और सर्वेंटस ऑफ साहिब किताब के लेखक #गुलाम_रसूल_गलवन इसके असली नायक हैं। उन्होंने ही ब्रिटिश काल के दौरान वर्ष 1899 में सीमा पर मौजूद नदी के स्रोत का पता लगाया था। उन्हीं के नाम पर इस नदी का नाम गलवन पड़ा। इसी इलाके को गलवन घाटी कहा जाता है। नदी के स्रोत का पता लगाने वाले दल का नेतृत्व गुलाम रसूल ने किया था। इसलिए नदी और उसकी घाटी को गलवन बोला जाता है। वह उस दल का हिस्सा थे । जो #चांगछेन्मो_घाटी के उत्तर में स्थित इलाकों का पता लगाने के लिए तैनात किया गया था।
    गलवन #कश्मीर में घोड़ों का व्यापार करने वाले समुदाय को बोला जाता है। कुछ समाजशास्त्रियों के मुताबिक घोड़ों को लूटने और उन पर सवारी करते हुए व्यापारियों के काफिलों को लूटने वालों को गलवन बोला जाता रहा है। कश्मीर में जिला बड़गाम में आज भी गलवनपोरा नामक एक गांव है। गुलाम रसूल गलवन का मकान आज भी लेह में मौजूद है। अंग्रेज और अमेरिकी यात्रियों के साथ काम करने के बाद उसे तत्कालिक ब्रिटिश ज्वाइंट कमिश्नर का लद्दाख में मुख्य सहायक नियुक्त किया था। उसे अकासकल की उपाधि दी थी। ब्रिटिश सरकार और जम्मू कश्मीर के तत्कालीन डोगरा शासकों के बीच समझौते के तहत ब्रिटिश ज्वाइंट कमिश्नर व उसके सहायक को भारत, तिब्बत और तुर्कीस्तान से लेह आने वाले व्यापारिक काफिलों के बीच होने वाली बैठकों व उनमें व्यापारिक लेन देन पर शुल्क वसूली का अधिकार था।
    गुलाम रसूल की मौत 1925 में हुई थी। गुलाम रसूल की किताब सर्वेंटस ऑफ साहिब की प्रस्तावना अंग्रेज खोजी फ्रांसिक यंगहस्बैंड ने लिखी है। वादी के कई विद्वानों का मत है कि अक्साई चिन से निकलने वाली नदी का स्नोत गुलाम रसूल ने तलाशा था। यह #सिंधु_नदी की प्रमुख सहायक नदियों में शामिल #श्योक_नदी में आकर मिलती है।
    अलीगढ़ मुसलिम विश्वविद्यालय में इतिहास में पीएचडी कर रहे शोधकर्ता वारिस उल अनवर के मुताबिक, गलवन कश्मीर में रहने वाला पुराना कबीला है। गुलाम रसूल के पिता कश्मीरी और मां बाल्तिस्टान की रहने वाली थी। गुलाम रसूल अंग्रेज शासकों द्वारा भारत के उत्तरी इलाकों की खोज के लिए नियुक्त किए जाने वाले खोजियों के साथ बतौर सहायक काम करता था। रसूल का मकान आज भी लेह में उसकी कहानी सुनाता है।
    यंग हसबैंड ने रसूल की किताब में लिखा है कि हिमालय के क्षेत्रों में रहने वाले लोग मेहनती और निडर होते हैं। वह दिन में आठ घंटे काम करते हैं। वह कई बार जान खतरे में डालने को तैयार रहते हैं। रसूल ने अपनी किताब में बताया है कि उसके पूर्वज कश्मीर के थे। उनके बुजुर्ग जिसे काला गलवान अथवा काला लुटेरा कहते थे, काफी चालाक और बहादुर थे। वह किसी भी भवन की दीवार पर बिल्ली की भांति चढ़ जाते। वह कभी एक जगह मकान बनाकर नहीं रहे। गुलाम रसूल ने दावा किया कि उसके पूर्वज अमीरों को लूट गरीबों की मदद करते थे। किताब में एक वाक्य का जिक्र करते हुए गुलाम रसूल ने लिखा है कि एक बार महाराजा ने विश्वस्त के साथ मिलकर मेरे (पूर्वज जोकि मेरे पिता का दादा था) को पकड़ने की योजना बनाई। उन्हें एक मकान में बुलाया गया जहां वह एक कुएं में गिर गए और पकड़ में आ गए। काला को फांसी दे दी। हमारे समुदाय के बहुत से लोग जान बचाने भाग निकले। मेरे दादा बाल्तिस्तान पहुंच गए। मेरे दादा का नाम महमूद गलवन था।
    इनटू द अनट्रैवल्ड हिमालय ट्रैवल्स, टैक्स एंड कलाइंब के लेखक हरीश कपाडिया ने अपनी किताब में लिखा है कि गुलाम रसूल गलवन उन स्थानीय घोड़ों वालों में शामिल था जिन्हें लार्ड डूनमोरे अपने साथ 1890 में पामिर ले गया था। वर्ष 1914 में उसे इटली के एक वैज्ञानिक और खोजी फिलिप डी ने कारवां का मुखिया बनाया था। इसी दल ने रीमो ग्लेशियर का पता लगाया था। लद्दाख में कई लोग दावा करते हैं कि गलवन जाति के लोग आज की गलवन घाटी से गुजरने वाले काफिलों को लूटते थे। इसलिए इलाके का नाम गलवन पड़ गया।
    ‪@shivkumarsinghkaushikey2877‬

Комментарии • 2

  • @anujboyz8994
    @anujboyz8994 3 месяца назад +1

    Nice jankari guru dev ji❤

    • @Balliainfo
      @Balliainfo  3 месяца назад

      धन्यवाद आभार 🙏🙏