हम सभी के प्रिय प्रोफेसर शरदेंदु सर को पटना विश्वविद्यालय से सेवानिवृत्ति की बहुत-बहुत बधाई और शुभकामना। समयाभाव के कारण मुझे अपनी बात रखने का अवसर नहीं मिला, लेकिन मैंने सभी वक्ताओं को ध्यानपूर्वक सुना और उन्हें सुनकर मुझे बहुत अच्छा लगा। उनसे मेरी पहली मुलाकात पटना कॉलेज के हिंदी विभाग में हुई थी। वे हमें मध्यकालीन कविताएं और आधुनिक कहानियां व उपन्यास पढ़ाया करते थे। कबीर की कविताओं की वे जबरदस्त और लाजबाव व्याख्या किया करते थे। वे स्वभाव से कबीर जैसे ही थे और आज भी हैं- तार्किक, स्पष्टवादी, फक्कड़, निडर और ब्राह्मणवादी संस्कृति के घोर विरोधी। कॉलेज के दिनों में मुझे मार्क्सवादी विचारधारा पसंद आने लगा था। वे भी मार्क्सवाद को सिद्धांतत: स्वीकार करते थे और शायद आज भी करते हैं, लेकिन उसके व्यवहारिक राजनीति को वे पसंद नहीं करते थे और शायद आज भी नहीं करते हैं। कॉलेज और विश्वविद्यालय छोड़ने के बाद जब कभी भी मैं वहां जाता था, तो उनसे मिलता था। वे मित्रवत शिक्षक थे। वे हमेशा बच्चों के साथ घुल-मिलकर रहते थे। हिंदी विभाग में जाते समय लगता था कि पता नहीं वे हमसे मिलेंगे भी या नहीं, लेकिन जैसे ही उनके समक्ष पहुंचता था, वे बड़े स्नेह, उत्साह और आत्मीयता से हमारा स्वागत करते थे। हमें अपने सामने की कुर्सी पर बैठने को कहकर हमारा हाल-चाल लेते थे। वे अपने साथ बैठे हुए अन्य लोगों से मेरे जीवन संघर्ष की चर्चा करते थे। उनके कहने पर ही मैंने राममनोहर लोहिया को पढ़ा था। मैं हमेशा उनसे वैचारिक बहस में उलझ जाता था। समय की कमी के कारण हमारे बीच बहुत अधिक चर्चा नहीं होती थी। वे हमेशा मुझे कहते थे कि तुम जहां हो वहीं रहो, लेकिन अपनी आंखें खोले रखो। आज यदि मैं दलित साहित्य पर शोध करने के बारे में सोच रहा हूं, तो इसके पीछे वे भी उत्प्रेरक का काम कर रहे हैं। मैं यह समझना चाहता हूं कि दलितवाद को समझने में मार्क्सवादियों से कहां चूक हुई, जिसके कारण शरदेंदु सर जैसे शिक्षक मार्क्सवाद को सैद्धांतिक रूप से स्वीकार करते हुए भी मार्क्सवादी नहीं बने। मैं यह समझना चाहता हूं कि क्यों कोई शिक्षक ब्राह्मणवाद का विरोध करते हुए भी जातीय राजनीति के दलदल में फंस जाता है ? क्या पद, प्रतिष्ठा, यश और धन की चाहत मनुष्य को उसके मनुष्यत्त्व से नीचे गिराती है ? मजदूर वर्ग की मुक्ति का कौन-सा रास्ता सही है ? ये सारे प्रश्न मेरे मन में हैं, जिनका उत्तर मैं उनसे चाहता था और आज भी चाहता हूं। कोई मनुष्य जब किसी पद पर आसीन होता है, तो उसकी बहुत सारी मजबूरियां भी होती हैं। बहुत बार मैं उनकी राजनीति समझ नहीं पाता था, क्योंकि वे मजबूरीवश समन्वयवादी रूख अपना लेते थे। अब वे स्वतंत्र हो गए हैं, तो खुलकर हमारे सामने आएंगे। मैं यह जानने के लिए इच्छुक हूं कि वे मजदूर वर्ग की मुक्ति के लिए कौन-सा रास्ता अख्तियार करते हैं। मेरी नज़र में वे एक शिक्षक के रूप में सफल रहे हैं, लेकिन एक मजदूर वर्ग के प्रतिनिधि के रूप में अपने वर्ग के प्रति अपने कर्त्तव्यों का निर्वाह करना शेष है। शेष बचे हुए जीवन में वे अपने कर्त्तव्यों का ईमानदारीपूर्वक पालन कर सकें, इसी उम्मीद के साथ मैं उन्हें पुनः बधाई और शुभकामना देता हूं।
हम सभी के प्रिय प्रोफेसर शरदेंदु सर को पटना विश्वविद्यालय से सेवानिवृत्ति की बहुत-बहुत बधाई और शुभकामना। समयाभाव के कारण मुझे अपनी बात रखने का अवसर नहीं मिला, लेकिन मैंने सभी वक्ताओं को ध्यानपूर्वक सुना और उन्हें सुनकर मुझे बहुत अच्छा लगा। उनसे मेरी पहली मुलाकात पटना कॉलेज के हिंदी विभाग में हुई थी। वे हमें मध्यकालीन कविताएं और आधुनिक कहानियां व उपन्यास पढ़ाया करते थे। कबीर की कविताओं की वे जबरदस्त और लाजबाव व्याख्या किया करते थे। वे स्वभाव से कबीर जैसे ही थे और आज भी हैं- तार्किक, स्पष्टवादी, फक्कड़, निडर और ब्राह्मणवादी संस्कृति के घोर विरोधी। कॉलेज के दिनों में मुझे मार्क्सवादी विचारधारा पसंद आने लगा था। वे भी मार्क्सवाद को सिद्धांतत: स्वीकार करते थे और शायद आज भी करते हैं, लेकिन उसके व्यवहारिक राजनीति को वे पसंद नहीं करते थे और शायद आज भी नहीं करते हैं। कॉलेज और विश्वविद्यालय छोड़ने के बाद जब कभी भी मैं वहां जाता था, तो उनसे मिलता था। वे मित्रवत शिक्षक थे। वे हमेशा बच्चों के साथ घुल-मिलकर रहते थे। हिंदी विभाग में जाते समय लगता था कि पता नहीं वे हमसे मिलेंगे भी या नहीं, लेकिन जैसे ही उनके समक्ष पहुंचता था, वे बड़े स्नेह, उत्साह और आत्मीयता से हमारा स्वागत करते थे। हमें अपने सामने की कुर्सी पर बैठने को कहकर हमारा हाल-चाल लेते थे। वे अपने साथ बैठे हुए अन्य लोगों से मेरे जीवन संघर्ष की चर्चा करते थे। उनके कहने पर ही मैंने राममनोहर लोहिया को पढ़ा था। मैं हमेशा उनसे वैचारिक बहस में उलझ जाता था। समय की कमी के कारण हमारे बीच बहुत अधिक चर्चा नहीं होती थी। वे हमेशा मुझे कहते थे कि तुम जहां हो वहीं रहो, लेकिन अपनी आंखें खोले रखो। आज यदि मैं दलित साहित्य पर शोध करने के बारे में सोच रहा हूं, तो इसके पीछे वे भी उत्प्रेरक का काम कर रहे हैं। मैं यह समझना चाहता हूं कि दलितवाद को समझने में मार्क्सवादियों से कहां चूक हुई, जिसके कारण शरदेंदु सर जैसे शिक्षक मार्क्सवाद को सैद्धांतिक रूप से स्वीकार करते हुए भी मार्क्सवादी नहीं बने। मैं यह समझना चाहता हूं कि क्यों कोई शिक्षक ब्राह्मणवाद का विरोध करते हुए भी जातीय राजनीति के दलदल में फंस जाता है ? क्या पद, प्रतिष्ठा, यश और धन की चाहत मनुष्य को उसके मनुष्यत्त्व से नीचे गिराती है ? मजदूर वर्ग की मुक्ति का कौन-सा रास्ता सही है ? ये सारे प्रश्न मेरे मन में हैं, जिनका उत्तर मैं उनसे चाहता था और आज भी चाहता हूं। कोई मनुष्य जब किसी पद पर आसीन होता है, तो उसकी बहुत सारी मजबूरियां भी होती हैं। बहुत बार मैं उनकी राजनीति समझ नहीं पाता था, क्योंकि वे मजबूरीवश समन्वयवादी रूख अपना लेते थे। अब वे स्वतंत्र हो गए हैं, तो खुलकर हमारे सामने आएंगे। मैं यह जानने के लिए इच्छुक हूं कि वे मजदूर वर्ग की मुक्ति के लिए कौन-सा रास्ता अख्तियार करते हैं। मेरी नज़र में वे एक शिक्षक के रूप में सफल रहे हैं, लेकिन एक मजदूर वर्ग के प्रतिनिधि के रूप में अपने वर्ग के प्रति अपने कर्त्तव्यों का निर्वाह करना शेष है। शेष बचे हुए जीवन में वे अपने कर्त्तव्यों का ईमानदारीपूर्वक पालन कर सकें, इसी उम्मीद के साथ मैं उन्हें पुनः बधाई और शुभकामना देता हूं।
समयाभाव की वजह से हम आपको सुन नहीं पाए । हमलोग क्षमाप्रार्थी हैं इंद्रजीत जी ।
@@957086 कोई बात नहीं, कभी-कभी ऐसा होता ही है। आपलोगों को सुनकर भी मुझे बहुत अच्छा लगा। यहां मैंने अपनी बात रख दी है।
वाह! बहुत बढिया कार्यक्रम... सभी को बधाईयां और भविष्य में भी ऐसे ही कार्यक्रम होते रहें.. इसकी शुभकामनाएं 🌺🌺