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Anandghanji Pad 002 - Re Ghariyari | Avadhu | Bhakti Pad | Stavan Stuti Sajjhay ~ SSS

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  • Опубликовано: 6 июл 2024
  • रे घरियारी
    राग: (बेलावल एकताली)
    रे घरियारी बाउरे, मत घरिय बजावे।
    नर सिर बाँधत पाघरी, तू क्यों घरीय बजावे॥
    रे घरि• ॥१॥
    केवल काल कला कले, पै तू अकल न पावे।
    अकल कला घट में घरी, मुझ सो घरी भावे॥
    रे घरि• ॥२॥
    आतम अनुभव रस भरी, यामें और न मावे।
    आनन्दघन अविचल कला, विरला कोई पावे॥
    रे घरि• ॥३॥
    भावार्थ :-
    हे घड़ी बजाने वाले पगले! तू घड़ी मत बजा, तेरा यह प्रयास व्यर्थ है। पुरुष तो घड़ी के चौथे भाग का निर्देश प्राप्त हो तथा वैराग्य का प्रभाव रहे, अतः सिर पर पगड़ी बाँधते हैं, जिससे यह निर्देश मिलता है कि जगत् में चौथाई (पाव) घड़ी के जीवन का भी भरोसा नहीं है। कोई स्वयं को अमर मत मान लेन।। मनुष्यों के सिर पर काल घूमता है। वह मनुष्यों के प्राण का अपहरण करने में पाव घड़ी का भी विलम्ब नहीं करेगा। अतः चेतना चाहो तो चेत जाओ। मस्तक पर पगड़ी बाँधने का तात्पर्य ही यह है कि वह हर दम यह जानता है कि काल मेरे सिर पर है। इसलिए है घड़ियाली! तेरे घड़ियाल बजाने का अब कोई प्रयोजन नहीं है। श्रीमद् आनन्दघनजी कहते हैं कि इस जगत् में पाव घड़ी जीने का भी भरोसा नहीं है। कौन जाने किस समय, कहाँ, कैसी स्थिति में प्राण चले जायेंगे, यह बाट मनुष्य नहीं जानते। अतः मृत्यु से पूर्व धर्म-ग्राराधना कर लेनी चाहिए। हे आत्मन्! तू सचेत हो जा।
    हे घड़ियाली! तू तो मात्र समय बताने की ही युक्ति जानता है, परन्तु तुझे तनिक भी ऐसी बुद्धि नहीं है जिससे तू समय का सदुपयोग कराने वाली ज्ञान-घड़ी को, जो अन्तर में हो है, बता सके। अन्तर में जो काल नापने की अकलकला है उसे तू नहीं जान सकता। आत्मा के ज्ञानादि गुणों की घड़ियाल प्रिय लगती है।
    मुझे तो यह घड़ो आत्मानुभव रस से भरी हुई है। इसमें अन्य कोई विजातीय वस्तु राग-द्वेष आदि का समावेश नहीं हो सकता। अतः यह अन्तर की घड़ी ही श्रेष्ठ है। श्री आनन्दघनजी कहते हैं कि अन्तर के घड़ियाल में आनन्द का समूह व्याप्त है। बाह्य घड़ियाल में आनन्द प्रतीत नहीं होता। अतः हे घड़ियाली! तू बाह्य घड़ियाल छोड़ कर अन्तर को ज्ञानादि गुण-युक्त घड़ी में प्रेम रख। वह घड़ियाल अनुभव- रस से परिपूर्ण है और अनन्त आनन्द से युक्त है। उसकी अकलकला है। तू तेरी सहज मूल आनन्द रूप घड़ियाल को बजा। श्रीमद् आनन्दघनजी कहते हैं कि इस अचल, अबाधित, आनन्ददायिनी घड़ी की कला को कोई बिरला ही प्राप्त कर सकता है।
    ( योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनके काव्य पुस्तक से )

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