#प्रवचन
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- Опубликовано: 29 окт 2024
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🙏श्री ध्यावहु फूलना जी जहां गुरुदेव उपदेश दे रहे हैं ध्याने योग्य सिर्फ मेरा चिदानंद मय ज्ञायक स्वभाव है, स्वयं जिनेंद्र परमात्मा ने कहा है,"चिदानंद जिनु कहिउ परम जिनु" हे अंतरात्मा! तुम चिदानंद स्वभावी भगवान आत्मा हो.. "सुकिय सुभाव सुदिट्ठी" अपने स्व-कृत स्वभाव को अपनी दृष्टि में देखो, स्व-कृत अर्थात जो किसी के द्वारा बनाया या उत्पन्न किया गया नहीं है,मैं भी उसे बना नहीं सकता, अंतरंग में ही गुप्त है उसे प्रकट कर सकता हूं, गुरुदेव कहते हैं कि "अर्थति अर्थह कमलह सहियो" वह स्वभाव तिअर्थ से संयुक्त है प्रयोजनीय है ज्ञायक स्वरूप है, हे भव्य आत्मा इसको अनुभव में प्रकट करो, इस स्वभाव को अपने हृदय में देखोगे तो, "सहजनंद जिन दिट्ठी" सहज आनंदमय अपना वीतराग जिन स्वभाव, साधु दशा अरिहंत दशा शीघ्र प्रकट हो जाएगी और यह आत्मा संसार के जन्म मरण से छूटकर परमात्म पद को प्राप्त कर लेगा।
🙏गुरुदेव की बात अचूक है यदि इनकी बात को कोई स्वीकार करे जैसा कह रहे हैं वैसा आचरण करें तो उसको वह उपलब्धि होनी ही है जो गुरुदेव ने कही है, जैसे दो और दो चार होते हैं वैसे ही जो आचार्य देव कह रहे हैं वह सत्य है ध्रुव है प्रमाण है एकदम सीधी बात है उसमें कोई संशय विभ्रम नहीं है कि अनंत दर्शन ज्ञान सुख वीर्य मय तुम्हारा स्वयं का स्व-कृत स्वभाव है, तुम परम जिन हो, अपने तिअर्थ मय स्वभाव में आचरण करो, कमल भाव में खिले रहो, तो सहजानंद मय अपना जिन स्वभाव दृष्टि में प्रकट हो जाएगा। यदि मोक्ष जाना है तो जिनेंद्र देव के वचनों को अनुभव पूर्वक स्वीकार करना पड़ेगा, अपन बोलते तो है कि हम रत्नत्रय मय ज्ञायक स्वभाव के धारी है, आत्मा स्वयं सुखकंद है आनंद का पिंड है आत्मा में अनंत गुण है लेकिन उन गुणों को अपनी दृष्टि में देखते नहीं हैं, जो जीव उन गुणों को अपनी दृष्टि में देखते हैं, अपने आप को तिअर्थमयी ज्ञायक आत्मा अनुभव करते हैं उन्हें अपना सहजानंद मयी स्वभाव,आत्म रमणता प्रकट होती है और वह जन्म मरण के बंधन से छूटते हैं
🙏भव्य आत्मा सावधान! भगवान कह रहे हैं कि तुम भगवान हो, तुम्हें विश्वास होता है कि नहीं होता? अंतर से श्रद्धान का जाग जाना, परमात्मा की वाणी को स्वीकार कर लेना बहुत बड़ा पुरुषार्थ है, अपन पूछते हैं कि पुरुषार्थ क्या है? हम रोज प्रवचन सुन रहे हैं फूलना सुन रहे हैं, क्या यह सुनना समझना ही पुरुषार्थ है? सुनना पुरुषार्थ है या नहीं इसके पहले समझे कि सुनना क्या है? भगवान की वाणी सुनकर अपने अंतरंग का क्रोधादि , कर्तत्वादि की भावना, अंतरंग की जो विभाव रूप परिणति रहती है इसका अभाव होना इसका नाम सुनना है।
🙏गुरुवर अगली गाथा में कर्म का मर्म बता रहे हैं, अपन जानते हैं कि कर्म पुद्गल जड़ हैं पूर्व में अज्ञान भाव के द्वारा हमसे बंधे थे, अब हमारे ज्ञान भाव से क्षय हो जाएंगे, आप और हम कर्मों के प्रति कितनी कल्पनाएं करके बैठे हैं कि घातिया कर्म कैसे हैं और अघातिया कर्म कैसे हैं, या जिनवाणी से हमने इन कर्मों का स्वभाव समझा है कि ज्ञानवर्णीय का स्वभाव ज्ञान को आवरण करने का है, दर्शनावर्णीय का स्वभाव दर्शन पर आवरण करने का है, सुना है कि हमारे विभाव परिणामों का निमित्त पा कर हमारे आत्म प्रदेशों को ढकने का काम इन कर्मों का है, आपने ऐसे कर्मों का सुना है लेकिन कर्मों के मर्म को सुना है कि नहीं सुना? तो तारण स्वामी सुना रहे हैं कि कर्म का मर्म क्या है आप और हम कर्म की चर्चा करते हैं कि कर्म क्या है और गुरुदेव कर्म के मर्म की चर्चा कर रहे हैं यही अंतर है
🙏"जिनवर उत्तउ" जिनेंद्र परमात्मा कहते हैं,"सुद्ध परम जिनु" हे जीवात्मा तुम शुद्ध हो, परम वीतराग ज्ञायक स्वभाव के धारी हो,ज्ञानमयी परमात्मा हो, परम जिन हो, तीन लोक के नाथ हो। लेकिन जीव को इसका श्रद्धान नहीं हो रहा तो जीव संसार में भटक रहा है, यह पूछ रहा है कि यदि हम वीतराग स्वभाव वाले हैं तो फिर कर्म क्या है? गुरुदेव कर्म के मर्म को कहते हैं कि "मर्म कम्मु सु जिनेई"इन कर्मों का मर्म तो यह है कि तुम अपने जिन स्वभाव को स्वीकार करके, ममल भाव को स्वीकार करके स्वयं इन कर्मों को जीत लो, कर्मों से हारना नहीं कि अनादि काल से संसार में रह रहे हैं, हमारा राग मोह भाव नहीं छूट रहा, हमारी कषाय नहीं गल रहीं, क्रोध लोभ तो शांत ही नहीं हो रहा, पुत्र परिवार की चिंता खत्म नहीं हो रही। यह नहीं चाहिए। फिर?
*🙏तुम शुद्ध हो, वीतराग स्वभावी हो,अपने जिन स्वभाव के बल पर वीतरागता के बल पर, ज्ञायक भाव के बल पर इन कर्मों को जीत लो यही कर्म का मर्म है। कैसे जीत ले आप उपाय बताओ? "जह जह समयह कम्मु उपज्जइ"देखो कहां-कहां कर्म उपजते हैं, इन पुण्य पाप कर्मों का आश्रव कब-कब होता है, तुम ऐसा क्या-क्या करते हो, किस-किस समय इन कर्मों का बंध होता है? 24 घंटे ही होता है, हमारे संसार का मिथ्या अभिप्राय निरंतर पड़ा ही रहता है, हम तो निरंतर कर्म बांधते हैं। सतगुरु देव समझते हैं अरे भव्य! जब जब राग आदि मोह आदि परिणाम दिखाई दें, अशुभ भाव से तीव्र कर्म का आश्रव हो रहा हो, तो तुम "न्यान अन्मोय षिपेई" उसी समय अपने ज्ञायक स्वभाव की अनुमोदना करो, कि इन विकार परिणामों से भिन्न मैं तो अभेद ज्ञानमयी वीतराग सत्ता हूं, अपने ज्ञान स्वभाव का आश्रय लेकर इन कर्मों का नाश करो। व्यर्थ में यहां वहां की चर्चा करके कर्मों पर कर्म बढ़ाते जा रहे हो, मूल पर ब्याज, ब्याज पर चक्रवर्ती ब्याज, तुम अनंतानुबंधी कषाय के साथ, व्यर्थ संसार की रुचि से कर्मों से कर्मों का कर्म भाव बढ़ाते जा रहे हो, तुम्हें अपने स्वभाव का बोध नहीं आ रहा। जीव अपने शुद्ध स्वरूप को भूलकर ही इस संसार में जन्म- मरण कर रहा है यदि जीव पुरुषार्थ पूर्वक अपने ममल स्वभाव का ध्यान करे, तो वह इन कर्मों पर विजय प्राप्त कर "स्वयं जिनेन्द्र" हो जाता है।।
जय हो जय हो जय हो अम्रतमयी शुद्ध जिनदेशना की जय हो जय हो जय हो 🙏🙏🙏🙏🙏
Jay Ho Jay Ho Jay Ho koti koti anumodna hai
जय हो जय हो जय हो जय हो जय हो
जय हो
Jay ho jay ho अमृत वर्षा से परिपूर्ण जिन देशना
बहुत-बहुत अनुमोदना
धन्य है सदगुरुदेव की दिव्य वाणी, और धन्य है ज्ञानीसाधक की ज्ञानसाधना जो शुद्ध गुरुवाणी को इतनी सहजता से बखारने में सक्षम है।
जय हो
Jay ho Jay ho Jay ho
क्या अनुभव प्रमाण उपदेश दिया मेरे गुरूदेव ने,
जिसकी महिमा शब्दो मे नही हम कह सकते है,
🙏🙏🙏🙏
जो दिया मेरे गुरूदेव ने,
उन वचनो की महिमा इतनी अनंत है कि,
बस अनुभव से ही आप सब भी जान सकते है,👏👏👏👏
Jay ho...what I say I don't have words to express...most amazing deshna it was
♥️
अमृत मयी शुद्ध जिन देशना की जय हो जय हो जय हो 🙏🙏🙏🙏🙏