माँभगवती राजराजेश्वरी का 9 दिवसीय महायज्ञ Day1

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  • Опубликовано: 20 сен 2024
  • देवलगढ़ का उत्तराखण्ड के इतिहास में अपना एक अलग ही महत्व है। प्राचीन समय में उत्तराखण्ड ५२ छोटे-छोटे सूबों में बंटा था जिन्हें गढ़ के नाम से जाना जाता था और इन्ही ने नाम पर देवभूमि का यह भूभाग गढ़वाल कहलाया। १४वीं शताब्दी में जब राजा अजयपाल चांदपुर गढ़ में सिंहासनारुढ़ हुये तो उन्होने देवलगढ़ जो कि सामरिक दृष्टि से बहुत ही सुरक्षित स्थान था को १५१२ में अपनी राजधानी बनाया। किंतु लगभग ६ वर्ष पश्चात अलकनन्दा के तट पर श्रीनगर में स्थापित किया था । अपने १९ वर्षों के शासनकाल में राजा अजयपाल ने देवभूमि के ४८ गढ़ों को जीतकर अपने राज्य का विस्तार किया था। राज राजेश्वरी गढ़वाल के राजवंश की कुलदेवी थी । राज राजेश्वरी मन्दिर देवलगढ़ का सबसे अधिक प्रसिद्ध ऐतिहासिक मन्दिर है। इसका निर्माण १४वीं शताब्दी के राजा अजयपाल द्वारा ही करवाया गया था । गढ़वाली शैली में बने इस मन्दिर में तीन मंजिलें हैं । तीसरी मंजिल के दाहिने कक्ष में वास्तविक मंदिर है। यहां देवी की विभिन्न मुद्राओं में प्रतिमायें हैं। इनमें राज-राजेश्वरी कि स्वर्ण प्रतिमा सबसे सुन्दर है।
    इस मन्दिर में यन्त्र पूजा का विधान है। यहां कामख्या यन्त्र, महाकाली यन्त्र, बगलामुखी यन्त्र, महालक्ष्मी यन्त्र व श्रीयन्त्र की विधिवत पूजा होती है। संपूर्ण उत्तराखण्ड में उन्नत श्रीयन्त्र केवल इसी मन्दिर में स्थापित है। मन्दिर के पुजारी द्वारा आज भी यहां दैनिक प्रात:काल यज्ञ किया जाता है। नवरात्रों में रात्रि के समय राजराजेश्वरी यज्ञ का आयोजन किया जाता है। इस सिद्धपीठ में अखण्ड ज्योति की परम्परा पीढ़ियों से चली आ रही है। अत: इसे जागृत शक्तिपीठ भी कहा जाता है।
    पौड़ी जनपद में पुरातात्विक दृष्टि से यह सबसे अवलोकनीय स्थान है। यहां पर कई मन्दिर समाधियां और द्वार हैं। इन मन्दिरों का जीर्णोद्धार कांगड़ा से आये राजा देवल ने करवाया था। इसके अलावा यहां नाथ सम्प्रदाय के लोगों की भी समाधियां भी हैं। जिन पर खुदे शिलालेख इनकी प्राचीनता को सिद्ध करते हैं। इस दुर्लभ मन्दिर समूह को देखकर स्वत: प्रमाणित हो जाता है कि गढ़वाल के राजाओं के समय वास्तुकला, विशेष रूप से मन्दिरों की निर्माण कला अपने चरम उत्कर्ष पर थी।

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