गीता, कर्म सिद्धान्त का अग्यान : कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन। मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि।। (2/47) तेरा कर्म करने में ही अधिकार है, उसके फलों में कभी नहीं। इसलिए तू कर्मों के फल हेतु मत हो, तथा तेरी कर्म न करने में भी आसक्ति न हो।। देखे कि, दैनंदिन जीवन में आजिविका आदि के लिए कोई कर्म करना, व उसके फलाफल का नियोजन, यह कर्म के साथ जुड़ी बात होती है, अलग नहीं। मतलब, यह निसर्गतः सापेक्ष होने से, अनेकों शक्तियों पर निर्भर होने से, फलाफल की 100% निश्चितता ना होते हुए भी, इसमें फल की अपेक्षा होना, दैनंदिनी में कर्मफल के साथ अधिकार का जुडा होना, कुदरतन है। इसमें समझने की दो बातें है - 1. दैनंदिन जीवन में कर्मफल हेतु ना होने की आदर्श बात कहना; या किसी तरह से किसी के कर्मफल के अधिकार को नकारना; अहं के नाम पर किसी आदर्श की, कल्पना में होने की, बात चलाना। 2. चैतसिकतः, कर्मफल हेतु सह अहंभाव, भयानुरागादि जो भी वेदनां, भाव-पवनां मन में उभरते है यह क्या बात है, इसकी खोज के लिए खुला होना। सो भाव-पवनां का संबंध की गति में सीधे देखा जाना, और देख-समझकर, अंतर्समझ के साथ, स्पष्टता से होना। सो 1 और 2 यह अग्यान अर प्रग्यान के मूलभूत फर्क की बात है। और इस बात की अंतर्समझ गीता सहित वेद-वेदांत आदि में नहीं है। गीता, वेद-वेदांतादि यह अहंभाव या द्रष्टा को भयानुरागादि दृश्य से अलग मान कर, नित्य कालातीत सोच कर, उसके साथ आत्मा-परमात्मादि संकल्पनाएं जोड़ कर, अहंभाव द्रष्टा को उंचे पायदान पर बिठा कर, व द्रष्टा के साथ अलिप्त, अकर्मण्य आदि आदर्श जोड़ कर अनेक प्रकार से तर्क वितर्क तो कर सकते हैं; पर द्रष्टा यह दृश्य का हिस्सा है, द्रष्टा दृश्य ही है, यह देख समझकर दरसण ध्यान व काल दुख निर्जरा की जान नहीं पा सकते। काल दुख भव गति और काल दुख निर्जरा गति क्या है इसकी अंतर्समझ जरूरी है। गीता और पाप-पुण्य योनि : मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य येऽपि स्युः पापयोनयः। स्त्रियो वैश्यास्तथा शुद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम्।। 9:32 हे पार्थ, जो मेरी शरण में आते हैं, भले वह पाप योनि से है - स्त्री, वैश्य तथा शुद्र, वह भी परम गति को प्राप्त होते हैं।
गीता : एक सफेद झूठ, an arrent lie. ~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~ श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात् । स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः ॥गीता 3/35 ॥ अर्थ : अच्छी प्रकार आचरणमें लाये हुए परधर्म से, गुणरहित स्वधर्म श्रेष्ठ है । स्वधर्म में मरना भी कल्याण कारक है, पर परधर्म तो भय उपजाने वाला है ।। अभिषेक नामक मित्र ने पुछा, गीता क्या है? गीता में धरम के नाम पर जो वास्तविकता है, मूलभूत फ्लाॅ अर फ्राॅड है, इसे देखते हैं - मेरा एक धरम, व किसी पराये का दुसरा धरम, यह बात धरम के नाम पर विचार पैदाइश परंपरा, जैसे वैदिक, शैव, वैष्णव, जैन, या कुरानिक, बिब्लिकल & so on, के संदर्भ में हो सकती है; या अपनी या दुसरे की किसी व्यावसायिकता के संदर्भ में हो सकती है। इसमें धरम के नाम पर अपनी या किसी और की परंपरा में, या व्यवसाय में, बंधे रहने की वकालत कियी है। और क्या है? कोई भी आदमी धरम के नाम पर चैतसिकतः कुरानिक, जैन, वैदिक क्रिश्चियन, नाथ, बौद्ध आदि परंपरा में बंधा रहे, कोई व्यावसायिकता अपने लिए बंधन कारक माने, कोई समझ है? व्यावसायिकता को आप चाहे एक या अनेक बार बदल दे, निर्वाह का कोई भी सम्यक साधन अपनाये, कुदरतन खुली बात है। किसी व्यवसाय में किसी के नेक या गलत व्यवहार को धरम का एक अंग कहे, यह समझा जा सकता है; मगर किसी व्यवसाय को ही किसी का धरम कहे यह तो एक धरमनाम बेवकूफ़ी वा फ्राॅड से ज्यादा नहीं है। देखे कि, अपने वर्णाश्रमवाद के लिए गीता यह मानसिक मॅनेजमेंट के साथ कैसी कुटिल किताब है। और गीता में इधर उधर से कोई पश्यंति, विपश्यना, स्थितप्रज्ञ जैसी बुद्ध आदि से टैगिंग है, तो इसका मतलब यह नहीं कि इस बाबत गीता में मौलिक समझ की बात है; इस बात को आप बोधि की अगनि में, या अनालिसीस करके भी देख सकते हैं। धरम का अपना महान अस्तित्व है । धरम सार्वजनीन होत है, मेरा या आपका अलग नहीं होत है। और यह समझना काॅमन सेंस की बात है। संबंध के आइने में छह इंद्रियों में से किसी विग्यान से किसी चीज के साथ संपर्क, हर किसी की अपनी चैतसिक रेकार्डिंग/संग्या से उस इंद्रिय संपर्क की पहचान व मुल्यांकन, व तदनुसार वेदनां-भावनां का जगना यह सार्वजनीन बात है, सत धरम की बात है, कि जिसका भारतीय, चाइनीज, इसाई, मुस्लिम, या किसान, डाक्टर आदि से कोई मतलब नहीं है। और उस वेदनां-भावनां के प्रति चेतन अचेतन राग-द्वेष, या चेतन हो दरसण-ध्यान, यह इसी पल में जीने की कला है, जो धरम की सार्वजनीनता से नियमित है। ऐसे शुद्ध दरसण से धरम की, जीवन की, अनंत गहराइयां खुलने का रास्ता साफ है। अहंभाव द्रष्टा क्या है? भयानुरागदि दृश्य क्या है? काल चेतना, समाधि चेतना, शुन्य चेतना क्या है? दरसण की अगनि में बोधि का जगना व चित्त अवधूनन क्या है? दुख गामिता व दुख निर्जरा क्या है? ऐसे सार्वजनीनता धरम की बात है। भंगी-बामन, क्षत्रीय-शुद्रादि विचार पैदाइश, मानव समाज के प्रति बुद्धिभ्रम करनेवाली, लोक-परलोक आस धरमनाम सामंती धंधा व राजभोग जुगाड़ के साथ वैदिकधंधा चलाएं, किसी किताबी धर्मांध बातों को ही धरम बनाए या माने, ऐसे में बहे, भ्रमित बन क्षत्रियादि की आस लगाये, तो ये धरमनाम मुर्खताएं तो है ही, इस सामाजिक गुनहगारी का लांछन भी है ना? सारी गीता ऐसे फ्लाॅ व फ्राॅड से भरी पड़ी है। आंखे खोलकर देखे। कुदरत को भ्रमित होना मंजूर नहीं । अंधेरे में भी कांटे पर पांव पडने से कांटा चुभता है । और चेतना में झूठ प्रोपागंडा से धंसे कांटे तो बडा दुख । जागत रहे सदा सनातन धरम की बानी। जागत रहे बुद्ध गोरख सै ध्यानी ग्यानी।। सनातन = कुदरतन, अपने आप से, विचार की पैदाइश नहीं, eternal, laws of nature at all levels by itself. और सनातन धरम की बात बुद्ध बारिकि के साथ स्पष्ट रूप से करत है - ". . . एस धम्मो सनंतनो। 🌾 - योगी सूरजनाथ।
गीता, कर्म सिद्धान्त का अग्यान :
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि।। (2/47)
तेरा कर्म करने में ही अधिकार है,
उसके फलों में कभी नहीं।
इसलिए तू कर्मों के फल हेतु मत हो,
तथा तेरी कर्म न करने में भी आसक्ति न हो।।
देखे कि, दैनंदिन जीवन में आजिविका आदि के लिए कोई कर्म करना, व उसके फलाफल का नियोजन, यह कर्म के साथ जुड़ी बात होती है, अलग नहीं। मतलब, यह निसर्गतः सापेक्ष होने से, अनेकों शक्तियों पर निर्भर होने से, फलाफल की 100% निश्चितता ना होते हुए भी, इसमें फल की अपेक्षा होना, दैनंदिनी में कर्मफल के साथ अधिकार का जुडा होना, कुदरतन है। इसमें समझने की दो बातें है -
1. दैनंदिन जीवन में कर्मफल हेतु ना होने की आदर्श बात कहना; या किसी तरह से किसी के कर्मफल के अधिकार को नकारना; अहं के नाम पर किसी आदर्श की, कल्पना में होने की, बात चलाना।
2. चैतसिकतः, कर्मफल हेतु सह अहंभाव, भयानुरागादि जो भी वेदनां, भाव-पवनां मन में उभरते है यह क्या बात है, इसकी खोज के लिए खुला होना। सो भाव-पवनां का संबंध की गति में सीधे देखा जाना, और देख-समझकर, अंतर्समझ के साथ, स्पष्टता से होना।
सो 1 और 2 यह अग्यान अर प्रग्यान के मूलभूत फर्क की बात है। और इस बात की अंतर्समझ गीता सहित वेद-वेदांत आदि में नहीं है। गीता, वेद-वेदांतादि यह अहंभाव या द्रष्टा को भयानुरागादि दृश्य से अलग मान कर, नित्य कालातीत सोच कर, उसके साथ आत्मा-परमात्मादि संकल्पनाएं जोड़ कर, अहंभाव द्रष्टा को उंचे पायदान पर बिठा कर, व द्रष्टा के साथ अलिप्त, अकर्मण्य आदि आदर्श जोड़ कर अनेक प्रकार से तर्क वितर्क तो कर सकते हैं; पर द्रष्टा यह दृश्य का हिस्सा है, द्रष्टा दृश्य ही है, यह देख समझकर दरसण ध्यान व काल दुख निर्जरा की जान नहीं पा सकते। काल दुख भव गति और काल दुख निर्जरा गति क्या है इसकी अंतर्समझ जरूरी है।
गीता और पाप-पुण्य योनि :
मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य येऽपि स्युः पापयोनयः।
स्त्रियो वैश्यास्तथा शुद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम्।। 9:32
हे पार्थ, जो मेरी शरण में आते हैं, भले वह पाप योनि से है -
स्त्री, वैश्य तथा शुद्र, वह भी परम गति को प्राप्त होते हैं।
गीता : एक सफेद झूठ, an arrent lie.
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात् ।
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः ॥गीता 3/35 ॥
अर्थ :
अच्छी प्रकार आचरणमें लाये हुए परधर्म से, गुणरहित स्वधर्म श्रेष्ठ है ।
स्वधर्म में मरना भी कल्याण कारक है, पर परधर्म तो भय उपजाने वाला है ।।
अभिषेक नामक मित्र ने पुछा, गीता क्या है?
गीता में धरम के नाम पर जो वास्तविकता है, मूलभूत फ्लाॅ अर फ्राॅड है, इसे देखते हैं -
मेरा एक धरम, व किसी पराये का दुसरा धरम, यह बात धरम के नाम पर विचार पैदाइश परंपरा, जैसे वैदिक, शैव, वैष्णव, जैन, या कुरानिक, बिब्लिकल & so on, के संदर्भ में हो सकती है; या अपनी या दुसरे की किसी व्यावसायिकता के संदर्भ में हो सकती है। इसमें धरम के नाम पर अपनी या किसी और की परंपरा में, या व्यवसाय में, बंधे रहने की वकालत कियी है। और क्या है?
कोई भी आदमी धरम के नाम पर चैतसिकतः कुरानिक, जैन, वैदिक क्रिश्चियन, नाथ, बौद्ध आदि परंपरा में बंधा रहे, कोई व्यावसायिकता अपने लिए बंधन कारक माने, कोई समझ है? व्यावसायिकता को आप चाहे एक या अनेक बार बदल दे, निर्वाह का कोई भी सम्यक साधन अपनाये, कुदरतन खुली बात है। किसी व्यवसाय में किसी के नेक या गलत व्यवहार को धरम का एक अंग कहे, यह समझा जा सकता है; मगर किसी व्यवसाय को ही किसी का धरम कहे यह तो एक धरमनाम बेवकूफ़ी वा फ्राॅड से ज्यादा नहीं है। देखे कि, अपने वर्णाश्रमवाद के लिए गीता यह मानसिक मॅनेजमेंट के साथ कैसी कुटिल किताब है। और गीता में इधर उधर से कोई पश्यंति, विपश्यना, स्थितप्रज्ञ जैसी बुद्ध आदि से टैगिंग है, तो इसका मतलब यह नहीं कि इस बाबत गीता में मौलिक समझ की बात है; इस बात को आप बोधि की अगनि में, या अनालिसीस करके भी देख सकते हैं।
धरम का अपना महान अस्तित्व है । धरम सार्वजनीन होत है, मेरा या आपका अलग नहीं होत है। और यह समझना काॅमन सेंस की बात है।
संबंध के आइने में छह इंद्रियों में से किसी विग्यान से किसी चीज के साथ संपर्क, हर किसी की अपनी चैतसिक रेकार्डिंग/संग्या से उस इंद्रिय संपर्क की पहचान व मुल्यांकन, व तदनुसार वेदनां-भावनां का जगना यह सार्वजनीन बात है, सत धरम की बात है, कि जिसका भारतीय, चाइनीज, इसाई, मुस्लिम, या किसान, डाक्टर आदि से कोई मतलब नहीं है। और उस वेदनां-भावनां के प्रति चेतन अचेतन राग-द्वेष, या चेतन हो दरसण-ध्यान, यह इसी पल में जीने की कला है, जो धरम की सार्वजनीनता से नियमित है। ऐसे शुद्ध दरसण से धरम की, जीवन की, अनंत गहराइयां खुलने का रास्ता साफ है।
अहंभाव द्रष्टा क्या है? भयानुरागदि दृश्य क्या है? काल चेतना, समाधि चेतना, शुन्य चेतना क्या है? दरसण की अगनि में बोधि का जगना व चित्त अवधूनन क्या है? दुख गामिता व दुख निर्जरा क्या है? ऐसे सार्वजनीनता धरम की बात है।
भंगी-बामन, क्षत्रीय-शुद्रादि विचार पैदाइश, मानव समाज के प्रति बुद्धिभ्रम करनेवाली, लोक-परलोक आस धरमनाम सामंती धंधा व राजभोग जुगाड़ के साथ वैदिकधंधा चलाएं, किसी किताबी धर्मांध बातों को ही धरम बनाए या माने, ऐसे में बहे, भ्रमित बन क्षत्रियादि की आस लगाये, तो ये धरमनाम मुर्खताएं तो है ही, इस सामाजिक गुनहगारी का लांछन भी है ना? सारी गीता ऐसे फ्लाॅ व फ्राॅड से भरी पड़ी है। आंखे खोलकर देखे। कुदरत को भ्रमित होना मंजूर नहीं । अंधेरे में भी कांटे पर पांव पडने से कांटा चुभता है । और चेतना में झूठ प्रोपागंडा से धंसे कांटे तो बडा दुख ।
जागत रहे सदा सनातन धरम की बानी।
जागत रहे बुद्ध गोरख सै ध्यानी ग्यानी।।
सनातन = कुदरतन, अपने आप से, विचार की पैदाइश नहीं, eternal, laws of nature at all levels by itself. और सनातन धरम की बात बुद्ध बारिकि के साथ स्पष्ट रूप से करत है - ". . . एस धम्मो सनंतनो। 🌾
- योगी सूरजनाथ।