जग्गनाथ रथ यात्रा के रथ और प्रतिमाएं , कैसे तैयार किये जाते हैं?

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  • Опубликовано: 13 сен 2024
  • यात्रा के लिए रथों के निर्माण की प्रक्रिया सबसे खास है. पहले ये जान लीजिए कि भगवान जगन्नाथ, देवी सुभद्रा और भगवान बलभद्र तीनों के लिए अलग-अलग रथ होते हैं. हर रथ की ऊंचाई, लंबाई चौड़ाई और रंग अलग होता है. इसके अलावा तीनों रथों के नाम भी अलग-अलग होते हैं. इन रथों के निर्माण में काष्ठ की संख्या, पहियों की संख्या भी अलग-अलग होती है.
    भगवान जगन्नाथ जी के रथ का नाम नंदीघोष है. इसे बनाने में कारीगर लकड़ी के 832 टुकड़ों का प्रयोग करते हैं. 16 चक्कों पर खड़े इस रथ की ऊंचाई 45 फीट होती है तो वहीं इसकी लंबाई 34 फीट होती है. रथ के सारथी का नाम दारुक, रक्षक गरुण, रथ की रस्सी शंखचूर्ण नागुनी और रथ पर त्रैलोक्य मोहिनी पताका फहराती है. इस रथ को जो चार घोड़े खींचते हैं, उनके नाम शंख, बहालक, सुवेत और हरिदश्व हैं. जगन्नाथ जी के रथ पर नौ देवता भी सवार होते हैं. इनमें वराह, गोवर्धन, कृष्णा, गोपीकृष्णा, नृसिंह, राम, नारायण, त्रिविक्रम, हनुमान और रुद्र शामिल होते हैं. जगन्नाथ जी के रथ को गरुणध्वज और कपिध्वज भी कहा जाता है.बहन सुभद्रा जी के रथ का नाम देवदलन रथ है. इसे दर्पदलन भी कहते हैं. इसमें कुल काष्ठ खंडों की संख्या 593 होती है और 12 चक्कों पर खड़ा यह रथ महज 31 फीट लंबा 43 फीट ऊंचा होता है. खुद अर्जुन ही इस रथ के सारथी हैं और रथ की रक्षिका जयदुर्गा देवी हैं. रथ में लगे रस्से का नाम स्वर्णचूड़ नागुनी है और इस रथ की पताका नदंबिका कहलाती है. देवी सुभद्रा के रथ को जो चार घोड़े खींचते हैं उनके नाम रुचिका, मोचिका, जीत और अपराजिता हैं.
    बलभद्र जी का रथ तालध्वज कहलाता है जो कि सबसे अधिक काष्ठ खंडों 763 टुकड़ों से बनता है. इसमें कुल चक्के 14 होते हैं और इसकी ऊंचाई, 44 फीट होती है. रथ की लंबाई 33 फ़ीट है. इसके सारथि का नाम मातली, रक्षक का नाम वासुदेव, रस्से का नाम वासुकि नाग, पताका उन्नानी कहलाती है. रथ में चार घोड़े हैं जिनके नाम तीव्र, घोर, दीर्घाश्रम, स्वर्ण नाभ हैं.पुरी में रथनिर्माण का का उत्सव बसंत पंचमी से ही शुरू हो जाता है. इस दिन रथखला जिसे रथ निर्माण शाला कहते हैं, उसकी पूजा होती है और एक दल पेड़ों को चुनने के लिए निकल जाता है. यह दल महाराणा कहलाता है. पेड़ों का चुना जाना और उन्हें काटकर लाने की भी प्रक्रिया में बहुत संजीदगी बरती जाती है. पुरी के पास स्थित जिले दसपल्ला के जंगलों से ही पेड़ चुने जाते हैं. इसके लिए नारियल और नीम के पेड़ ही काटकर लाए जाते हैं. नारियल के तने लंबे होते हैं. इनकी लकड़ी हल्की होती है, लेकिन इससे पहले यहां एक वनदेवी की पूजा होती है. उस जंगल के गांव की देवी की अनुमति के बाद ही लकड़ियां लाई जाती हैं. पहला पेड़ काटने के बाद पूजा होती है. फिर गांव के मंदिर में पूजा के बाद ही लकड़ियां पुरी लाई जाती हैं. जब प्रतिमा बनाने के लिए नीम के पेड़ खोजे जाते हैं, तो उनकी कुछ खासियत और शर्तें भी होती हैं. सभी शर्तें पूरी होने पर ही उस पेड़ की लकड़ी से प्रतिमा निर्माण हो सकता है. भगवान जगन्नाथ का रंग सांवला है इसलिए उनकी मूर्ति के लिए गहरे रंग की लकड़ी खोजी जाती है. जबकि बलराम तथा सुभद्रा के लिए हल्के रंग की लकड़ी की खोज होती है. जिस वृक्ष से भगवान जगन्नाथ की मूर्ति बननी है उसमे चार शाखाएं होनी चाहिए. इसके साथ ही वृक्ष में पद्म, शंख, चक्र और गदा के चिह्न भी होने चाहिए. वृक्ष ऐसी जगह हो जहां पास ही एक जलाशय, शमशान और चीटियों का बनाया मिट्टी का ढेर हो. वृक्ष की शाखाएं कटी हुई या टूटी नहीं होनी चाहिए, और इसकी डाल कोई घोंसला भी नहीं होना चाहि।
    इसके अलावा जहां पर ऐसा पेड़ मिले, वह स्थान या तो तीन ओर से पहाड़ियों से घिरा हो, या फिर वहां तिराहा होना चाहिए. उस वृक्ष से लता न लिपटी हो, उस के पास ही बेल का पेड़ भी हो. आसपास शिवमंदिर की मौजूदगी भी होनी चाहिए. वृक्ष खोजने की यह प्रक्रिया बहुत कठिन और लम्बी है. वृक्ष मिल जाने पर मंत्रो के उच्चारण के साथ उसे काटा जाता है.​​ इसके बाद इन वृक्षों की लकडिय़ों को दइतापति जगन्नाथ मंदिर लाते हैं, जहां उन्हें तराशकर मूर्तियां बनाई जाती हैं.आप सभी पर भगवान् जग्गनाथ और गौ माता का आशीर्वाद सदा बना रहे।

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