सत्यापित ज्ञान- 8 रत्न चाहिये,तो तह तक जाइये

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  • Опубликовано: 20 дек 2024
  • सत्यापित ज्ञान- 8 रत्न चाहिये,तो तह तक जाइये
    लेटेन्ट लाइट कल्चर पुरातन योग एवं मानसिक, आत्मिक, आध्यात्मिक गुप्त विद्याओं की अद्वितीय संस्था अध्यात्म से परिचित अथवा अपरिचित प्रत्येक व्यक्ति कम से कम इस बात से तो अवश्य ही सहमत होंगे कि भारत गुप्त विद्याओं का महत् स्रोत रहा है। अन्य देशों में भी इन विद्याओं के ज्ञाता रहे हैं लेकिन भारत में एक ऐसा युग था जो ऋषियों-मुनियों से परिपूर्ण था और उसी युग में योगादि गुप्त विद्याएँ अपने चरमोत्कर्ष पर थीं। इस युग में निर्जीव अथवा सजीव, चर अथवा अचर, हर वस्तु को आध्यात्मिक दृष्टि से ही देखा गया लेकिन यथेष्ट साधन एवं आन्तरिक प्रेरणा के अभाव में सिद्ध पुरुष योग, मन्त्रादि चामत्कारिक विद्याओं को विज्ञान के रूप में जन-वर्ग के सम्मुख प्रस्तुत न कर सके, इसी कारण समय लेकर यह विद्याएँ लुप्त होने लगीं यद्यपि आज भी परम्परागत योगियों को यह विद्यायें सुलभ हैं जिनमें से कुछ शास्त्र कथित तथा अभ्यास से अवतरित ज्ञान द्वारा उपलब्ध साधनों का सहारा लेकर इन विद्याओं को विज्ञान का रूप देने में तत्पर हैं। हमारी दृष्टि में 'लेटेन्ट लाइट कल्चर' भी ऐसी ही एक अद्वितीय संस्था है। संस्था दक्षिण भारत के तिरुनेल्वली स्थान में, सन् 1905 में, विद्याभूषण डा० टी० आर० संजीवी द्वारा संस्थापित हुई और इस समय संस्था इलाहाबाद (उत्तर प्रदेश) से श्री अशोक कुमार की अध्यक्षता में संचालित है। मनुष्य की अन्तर्निहित गुप्त शक्तियों तथा आध्यात्मिक चेतना जागृत करने के ध्येय से योगादि विषयों पर प्रायोगिक ज्ञान (साधना-रहस्य) का शांतिपूर्ण ढंग से प्रसारण करती हुई विश्व की अति प्राचीनतम् संस्थाओं में अद्वितीय संस्था के रूप में- सदैव की भांति आज भी यह संस्था कार्यरत है। हर व्यक्ति के अन्तर में निहित किन्तु अदृश्य आत्म-आलोक को व्यक्ति के आत्मिक विकास अथवा ज्ञान-चक्षु के उन्मीलन द्वारा प्रत्यक्ष अनुभव कराना संस्था का प्रमुख उद्देश्य रहा है, आज भी है। सभी धर्म, सम्प्रदाय, पन्थ, साधु-संत, योगाचार्य एवं आध्यात्मिक पुरुष भिन्न-भिन्न मार्गों के अनुसरण द्वारा एक ही भगवत् सत्ता को प्राप्त करने की विधि बतलाते हैं- हम भी जीव के क्रमिक उत्थान द्वारा अंततः भगवत् प्राप्ति की बात कहते हैं परन्तु हमारा इस बात पर विशेष बल होता है कि कोई जीव कितना भी उत्थित क्यों न हो जाये, वह भगवान् को तब तक नहीं प्राप्त कर सकेगा जब तक भगवान् उस जीव को स्वयं प्राप्त नहीं कर लेते; ठीक वैसे ही जैसे कोई भी व्यक्ति अपने दुष्कर्मों या पापों से अपने को मुक्त नहीं कर सकेगा क्योंकि भगवान् उद्घोषित करते हैं कि जीव को पापों से मुक्त करने का कार्य मेरा है- अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः । (गीता 18.69) संस्था मूलतः दक्षिण भारत की है इसलिये इसके सभी कोर्स एवं कृतियां अंग्रेजी भाषा में ही थे जिसके कारण हिन्दी जगत् इनसे लाभान्वित नहीं हो सका था। इस बात को ध्यान में रखकर संस्था के इलाहाबाद स्थानान्तरण के साथ डा० संजीवी के प्रिय शिष्य एवं विशिष्ट योगी महासमाधिस्थ श्री यदुनाथ प्रसाद जी ने संस्था की सभी कृतियों एवं निर्देशों को हिन्दी में रूपांतरित करने का सूत्रपात सन् 1980 में किया। इस कार्य को आगे बढ़ाने का दायित्व संस्था के वर्तमान संचालक श्री अशोक कुमार पर है और वह कुशलतापूर्वक इसका निर्वाह कर रहे हैं। धीरे-धीरे संस्था के प्रायोगिक कोर्स भी अब हिन्दी में उपलब्ध हो रहे हैं जिससे हिन्दी जानने वाले विशेषरूप से लाभान्वित हो सकें। सामान्यतया लोग नहीं जानते हैं कि- 1. योग के आसनों का योग-विशेष में कोई स्थान नहीं है। 2. प्राणायाम श्वास को नियन्त्रित करने की क्रिया नहीं है क्योंकि प्राण श्वास नहीं है। 3. ध्यान केवल वे लोग ही कर सकते हैं जिन्होंने अपने मन को अपनी इच्छा (will) के अधिकृत करने का सामर्थ्य प्राप्त कर लिया है। 4. समाधि योग का अन्त नहीं है, अपितु वास्तविक योग का शुभारम्भ है। ऐसे ही गुरु और शिष्य के सम्बन्ध में भी भ्रांति है, इसलिये इस पर भी कुछ कहना समयानुरूप एवं उचित होगा। हमारी इस सम्बन्ध में ऐसी धारणा है "आश्रित शिष्य की दृष्टि का पर्दा खोल देना तथा उसको सत्य के अनावृत्त स्वरूप का दर्शन कराना, गुरु का प्रधान कार्य है। जीव का आत्मस्वरूप क्या है, यह जानना आवश्यक है क्योंकि यही सत्य का यथार्थ स्वरूप है। इस स्वरूप को दिखा देना तथा जो पथ इस स्वरूप की उपलब्धि की ओर अग्रसर होता है, उसको दिखा देना गुरु का कार्य है। परन्तु उस पथ पर चलना तथा क्रिया-कौशल, भावना अथवा संवेग के द्वारा उस पथ को पूरा करना शिष्य का काम है। गुरु की कृपा और शिष्य का आत्म-पौरुष सम्मिलित होकर असम्भव को सम्भव कर सकते हैं। शिष्य क्षण मात्र के लिये भी अपने स्वरूप को देखकर समझ सकता है कि वह आज तक अपने को जो समझता रहा है, वह नहीं है। अर्थात् वह देह, इन्द्रिय, प्राण, मन, बुद्धि आदि कुछ भी नहीं है। चिरकाल तक भोग मार्ग में चलते-चलते इन्हीं को वह अपनी सत्ता के रूप में समझने लगा था। गुरु की कृपा से वह अब समझ जाता है कि वस्तुतः वह इनमें से कोई भी नहीं है। वह इन सब अनात्म सत्ताओं से पृथक् वस्तु है, और चेतन स्वरूप है।" वर्तमान समय में विश्व में लेटेन्ट लाइट कल्चर ही एकमात्र ऐसी संस्था है जो अति प्राचीन है और अति प्राचीन मार्ग का ही अनुसरण कर रही है। जिसे हम यहां प्राचीन मार्ग कह रहे है वह वस्तुतः प्राचीन होते हुये भी अर्वाचीन है क्योंकि योग विद्या शाश्वत ज्ञान है और शाश्वत ज्ञान प्रत्येक काल में एक सा ही रहता है। पुरातन होते हुये भी नवीन होता है। जो इस पुरातन ज्ञान को तरह तरह के वाग्जाल द्वारा लोगों के मन में अर्वाचीन होने का स्वांग रच रहे है और अपनी ओर आकृष्ट करने की चेष्टा कर रहे हैं वे अपने स्वार्थवश कार्य कर रहे हैं। ऐसे ही लोग योगा सिखा रहे हैं, परन्तु हम आज भी योग की शिक्षा देते है।
    वेबसाइट लिंक: latent.in/
    श्री अशोक कुमार (अध्यक्ष)
    मोबाइल नंबर:-9958587777

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