हम तौ एक करि जांनानं जांनां । दोइ कहैं तिनहीं कौं दोजग जिन नाहिंन पहिचांनां। जैसे बढ़ी काष्ट ही कार्ट अगिनि न काटे कोई। सब घटि अंतरि तूही व्यापक धरै सरूपै सोई। एकै पवन एक ही पानीं एकै जाेति समांनां। एकै खाक गढ़े सब भांडै एकै काेंहरा सांनां। माया देखि के जगत लुभांनां कह रे नर गरबांनां निरभै भया कछू नहि ब्यापै कहैं कबीर दिवांनां। (पृष्ठ 131) शब्दार्थ एक-परमात्मा, एक। दोई-दो। तिनहीं-उनको। दोजग-नरक। नाहिंन-नहीं। एकै-एक। पवन-हवा। जोति-प्रकाश। समाना-व्याप्त। खाक-मिट्टी। गढ़े-रचे हुए। भांड़े-बर्तन। कोहरा-कुम्हार। सांनां-एक साथ मिलकर। बाढ़ी-बढ़ई। काष्ट-लकड़ी। अगिनि-आग। घटि-घड़ा, हृदय। अंतरि-भीतर, अंदर। व्यापक-विस्तृत। धरे-रखे। सरूपै-स्वरूप। सोई-वही। जगत-संसार। लुभाना-मोहित होना। नर-मनुष्य। गरबानां-गर्व करना। निरभै-निडरा भया-हुआ। दिवानां-बैरागी। प्रसंग-प्रस्तुत पद पाठ्यपुस्तक आरोह भाग-1 में संकलित निर्गुण परंपरा के सर्वश्रेष्ठ कवि कबीर के पदों से उद्धृत है। इस पद में, कबीर ने एक ही परम तत्व की सत्ता को स्वीकार किया है, जिसकी पुष्टि वे कई उदाहरणों से करते हैं। व्याख्या-कबीरदास कहते हैं कि हमने तो जान लिया है कि ईश्वर एक ही है। इस तरह से मैंने ईश्वर के अद्वैत रूप को पहचान लिया है। हालाँकि कुछ लोग ईश्वर को अलग-अलग बताते हैं; उनके लिए नरक की स्थिति है, क्योंकि वे वास्तविकता को नहीं पहचान पाते। वे आत्मा और परमात्मा को अलग-अलग मानते हैं। कवि ईश्वर की अद्वैतता का प्रमाण देते हुए कहता है कि संसार में एक जैसी हवा बहती है, एक जैसा पानी है तथा एक ही प्रकाश सबमें समाया हुआ है। कुम्हार भी एक ही तरह की मिट्टी से सब बर्तन बनाता है, भले ही बर्तनों का आकार-प्रकार अलग-अलग हो। बढ़ई लकड़ी को तो काट सकता है, परंतु आग को नहीं काट सकता। इसी प्रकार शरीर नष्ट हो जाता है, परंतु उसमें व्याप्त आत्मा सदैव रहती है। परमात्मा हरेक के हृदय में समाया हुआ है भले ही उसने कोई भी रूप धारण किया हो। यह संसार माया के जाल में फैसा हुआ है। और वही संसार को लुभाता है। इसलिए मनुष्य को किसी भी बात को लेकर घमंड नहीं करना चाहिए। प्रस्तुत पद के अंत में कबीर दास कहते हैं कि जब मनुष्य निर्भय हो जाता है तो उसे कुछ नहीं सताता। कबीर भी अब निर्भय हो गया है तथा ईश्वर का दीवाना हो गया है।
पूर्ण बृहम परमेश्वर साहेब कबीर परमेश्वर ही मौजूद हैं संत रामपाल जीमहाराज जी के रूप मेंजगत के तारणहार हैंअबिलमब आंन लाइन निशुल्क नाम दीक्षित होकर मर्यादित रह कर भक्तीकर संसार के सभी भाइओंंऔर और बहनों सच कर मांननां। ।
हम तौ एक करि जांनानं जांनां । दोइ कहैं तिनहीं कौं दोजग जिन नाहिंन पहिचांनां। जैसे बढ़ी काष्ट ही कार्ट अगिनि न काटे कोई। सब घटि अंतरि तूही व्यापक धरै सरूपै सोई। एकै पवन एक ही पानीं एकै जाेति समांनां। एकै खाक गढ़े सब भांडै एकै काेंहरा सांनां। माया देखि के जगत लुभांनां कह रे नर गरबांनां निरभै भया कछू नहि ब्यापै कहैं कबीर दिवांनां। (पृष्ठ 131) शब्दार्थ एक-परमात्मा, एक। दोई-दो। तिनहीं-उनको। दोजग-नरक। नाहिंन-नहीं। एकै-एक। पवन-हवा। जोति-प्रकाश। समाना-व्याप्त। खाक-मिट्टी। गढ़े-रचे हुए। भांड़े-बर्तन। कोहरा-कुम्हार। सांनां-एक साथ मिलकर। बाढ़ी-बढ़ई। काष्ट-लकड़ी। अगिनि-आग। घटि-घड़ा, हृदय। अंतरि-भीतर, अंदर। व्यापक-विस्तृत। धरे-रखे। सरूपै-स्वरूप। सोई-वही। जगत-संसार। लुभाना-मोहित होना। नर-मनुष्य। गरबानां-गर्व करना। निरभै-निडरा भया-हुआ। दिवानां-बैरागी। प्रसंग-प्रस्तुत पद पाठ्यपुस्तक आरोह भाग-1 में संकलित निर्गुण परंपरा के सर्वश्रेष्ठ कवि कबीर के पदों से उद्धृत है। इस पद में, कबीर ने एक ही परम तत्व की सत्ता को स्वीकार किया है, जिसकी पुष्टि वे कई उदाहरणों से करते हैं। व्याख्या-कबीरदास कहते हैं कि हमने तो जान लिया है कि ईश्वर एक ही है। इस तरह से मैंने ईश्वर के अद्वैत रूप को पहचान लिया है। हालाँकि कुछ लोग ईश्वर को अलग-अलग बताते हैं; उनके लिए नरक की स्थिति है, क्योंकि वे वास्तविकता को नहीं पहचान पाते। वे आत्मा और परमात्मा को अलग-अलग मानते हैं। कवि ईश्वर की अद्वैतता का प्रमाण देते हुए कहता है कि संसार में एक जैसी हवा बहती है, एक जैसा पानी है तथा एक ही प्रकाश सबमें समाया हुआ है। कुम्हार भी एक ही तरह की मिट्टी से सब बर्तन बनाता है, भले ही बर्तनों का आकार-प्रकार अलग-अलग हो। बढ़ई लकड़ी को तो काट सकता है, परंतु आग को नहीं काट सकता। इसी प्रकार शरीर नष्ट हो जाता है, परंतु उसमें व्याप्त आत्मा सदैव रहती है। परमात्मा हरेक के हृदय में समाया हुआ है भले ही उसने कोई भी रूप धारण किया हो। यह संसार माया के जाल में फैसा हुआ है। और वही संसार को लुभाता है। इसलिए मनुष्य को किसी भी बात को लेकर घमंड नहीं करना चाहिए। प्रस्तुत पद के अंत में कबीर दास कहते हैं कि जब मनुष्य निर्भय हो जाता है तो उसे कुछ नहीं सताता। कबीर भी अब निर्भय हो गया है तथा ईश्वर का दीवाना हो गया है।
हम तौ एक करि जांनानं जांनां । दोइ कहैं तिनहीं कौं दोजग जिन नाहिंन पहिचांनां। जैसे बढ़ी काष्ट ही कार्ट अगिनि न काटे कोई। सब घटि अंतरि तूही व्यापक धरै सरूपै सोई। एकै पवन एक ही पानीं एकै जाेति समांनां। एकै खाक गढ़े सब भांडै एकै काेंहरा सांनां। माया देखि के जगत लुभांनां कह रे नर गरबांनां निरभै भया कछू नहि ब्यापै कहैं कबीर दिवांनां। (पृष्ठ 131) शब्दार्थ एक-परमात्मा, एक। दोई-दो। तिनहीं-उनको। दोजग-नरक। नाहिंन-नहीं। एकै-एक। पवन-हवा। जोति-प्रकाश। समाना-व्याप्त। खाक-मिट्टी। गढ़े-रचे हुए। भांड़े-बर्तन। कोहरा-कुम्हार। सांनां-एक साथ मिलकर। बाढ़ी-बढ़ई। काष्ट-लकड़ी। अगिनि-आग। घटि-घड़ा, हृदय। अंतरि-भीतर, अंदर। व्यापक-विस्तृत। धरे-रखे। सरूपै-स्वरूप। सोई-वही। जगत-संसार। लुभाना-मोहित होना। नर-मनुष्य। गरबानां-गर्व करना। निरभै-निडरा भया-हुआ। दिवानां-बैरागी। प्रसंग-प्रस्तुत पद पाठ्यपुस्तक आरोह भाग-1 में संकलित निर्गुण परंपरा के सर्वश्रेष्ठ कवि कबीर के पदों से उद्धृत है। इस पद में, कबीर ने एक ही परम तत्व की सत्ता को स्वीकार किया है, जिसकी पुष्टि वे कई उदाहरणों से करते हैं। व्याख्या-कबीरदास कहते हैं कि हमने तो जान लिया है कि ईश्वर एक ही है। इस तरह से मैंने ईश्वर के अद्वैत रूप को पहचान लिया है। हालाँकि कुछ लोग ईश्वर को अलग-अलग बताते हैं; उनके लिए नरक की स्थिति है, क्योंकि वे वास्तविकता को नहीं पहचान पाते। वे आत्मा और परमात्मा को अलग-अलग मानते हैं। कवि ईश्वर की अद्वैतता का प्रमाण देते हुए कहता है कि संसार में एक जैसी हवा बहती है, एक जैसा पानी है तथा एक ही प्रकाश सबमें समाया हुआ है। कुम्हार भी एक ही तरह की मिट्टी से सब बर्तन बनाता है, भले ही बर्तनों का आकार-प्रकार अलग-अलग हो। बढ़ई लकड़ी को तो काट सकता है, परंतु आग को नहीं काट सकता। इसी प्रकार शरीर नष्ट हो जाता है, परंतु उसमें व्याप्त आत्मा सदैव रहती है। परमात्मा हरेक के हृदय में समाया हुआ है भले ही उसने कोई भी रूप धारण किया हो। यह संसार माया के जाल में फैसा हुआ है। और वही संसार को लुभाता है। इसलिए मनुष्य को किसी भी बात को लेकर घमंड नहीं करना चाहिए। प्रस्तुत पद के अंत में कबीर दास कहते हैं कि जब मनुष्य निर्भय हो जाता है तो उसे कुछ नहीं सताता। कबीर भी अब निर्भय हो गया है तथा ईश्वर का दीवाना हो गया है।
हम तौ एक करि जांनानं जांनां । दोइ कहैं तिनहीं कौं दोजग जिन नाहिंन पहिचांनां। जैसे बढ़ी काष्ट ही कार्ट अगिनि न काटे कोई। सब घटि अंतरि तूही व्यापक धरै सरूपै सोई। एकै पवन एक ही पानीं एकै जाेति समांनां। एकै खाक गढ़े सब भांडै एकै काेंहरा सांनां। माया देखि के जगत लुभांनां कह रे नर गरबांनां निरभै भया कछू नहि ब्यापै कहैं कबीर दिवांनां। (पृष्ठ 131) शब्दार्थ एक-परमात्मा, एक। दोई-दो। तिनहीं-उनको। दोजग-नरक। नाहिंन-नहीं। एकै-एक। पवन-हवा। जोति-प्रकाश। समाना-व्याप्त। खाक-मिट्टी। गढ़े-रचे हुए। भांड़े-बर्तन। कोहरा-कुम्हार। सांनां-एक साथ मिलकर। बाढ़ी-बढ़ई। काष्ट-लकड़ी। अगिनि-आग। घटि-घड़ा, हृदय। अंतरि-भीतर, अंदर। व्यापक-विस्तृत। धरे-रखे। सरूपै-स्वरूप। सोई-वही। जगत-संसार। लुभाना-मोहित होना। नर-मनुष्य। गरबानां-गर्व करना। निरभै-निडरा भया-हुआ। दिवानां-बैरागी। प्रसंग-प्रस्तुत पद पाठ्यपुस्तक आरोह भाग-1 में संकलित निर्गुण परंपरा के सर्वश्रेष्ठ कवि कबीर के पदों से उद्धृत है। इस पद में, कबीर ने एक ही परम तत्व की सत्ता को स्वीकार किया है, जिसकी पुष्टि वे कई उदाहरणों से करते हैं। व्याख्या-कबीरदास कहते हैं कि हमने तो जान लिया है कि ईश्वर एक ही है। इस तरह से मैंने ईश्वर के अद्वैत रूप को पहचान लिया है। हालाँकि कुछ लोग ईश्वर को अलग-अलग बताते हैं; उनके लिए नरक की स्थिति है, क्योंकि वे वास्तविकता को नहीं पहचान पाते। वे आत्मा और परमात्मा को अलग-अलग मानते हैं। कवि ईश्वर की अद्वैतता का प्रमाण देते हुए कहता है कि संसार में एक जैसी हवा बहती है, एक जैसा पानी है तथा एक ही प्रकाश सबमें समाया हुआ है। कुम्हार भी एक ही तरह की मिट्टी से सब बर्तन बनाता है, भले ही बर्तनों का आकार-प्रकार अलग-अलग हो। बढ़ई लकड़ी को तो काट सकता है, परंतु आग को नहीं काट सकता। इसी प्रकार शरीर नष्ट हो जाता है, परंतु उसमें व्याप्त आत्मा सदैव रहती है। परमात्मा हरेक के हृदय में समाया हुआ है भले ही उसने कोई भी रूप धारण किया हो। यह संसार माया के जाल में फैसा हुआ है। और वही संसार को लुभाता है। इसलिए मनुष्य को किसी भी बात को लेकर घमंड नहीं करना चाहिए। प्रस्तुत पद के अंत में कबीर दास कहते हैं कि जब मनुष्य निर्भय हो जाता है तो उसे कुछ नहीं सताता। कबीर भी अब निर्भय हो गया है तथा ईश्वर का दीवाना हो गया है।
हम तौ एक करि जांनानं जांनां । दोइ कहैं तिनहीं कौं दोजग जिन नाहिंन पहिचांनां। जैसे बढ़ी काष्ट ही कार्ट अगिनि न काटे कोई। सब घटि अंतरि तूही व्यापक धरै सरूपै सोई। एकै पवन एक ही पानीं एकै जाेति समांनां। एकै खाक गढ़े सब भांडै एकै काेंहरा सांनां। माया देखि के जगत लुभांनां कह रे नर गरबांनां निरभै भया कछू नहि ब्यापै कहैं कबीर दिवांनां। (पृष्ठ 131) शब्दार्थ एक-परमात्मा, एक। दोई-दो। तिनहीं-उनको। दोजग-नरक। नाहिंन-नहीं। एकै-एक। पवन-हवा। जोति-प्रकाश। समाना-व्याप्त। खाक-मिट्टी। गढ़े-रचे हुए। भांड़े-बर्तन। कोहरा-कुम्हार। सांनां-एक साथ मिलकर। बाढ़ी-बढ़ई। काष्ट-लकड़ी। अगिनि-आग। घटि-घड़ा, हृदय। अंतरि-भीतर, अंदर। व्यापक-विस्तृत। धरे-रखे। सरूपै-स्वरूप। सोई-वही। जगत-संसार। लुभाना-मोहित होना। नर-मनुष्य। गरबानां-गर्व करना। निरभै-निडरा भया-हुआ। दिवानां-बैरागी। प्रसंग-प्रस्तुत पद पाठ्यपुस्तक आरोह भाग-1 में संकलित निर्गुण परंपरा के सर्वश्रेष्ठ कवि कबीर के पदों से उद्धृत है। इस पद में, कबीर ने एक ही परम तत्व की सत्ता को स्वीकार किया है, जिसकी पुष्टि वे कई उदाहरणों से करते हैं। व्याख्या-कबीरदास कहते हैं कि हमने तो जान लिया है कि ईश्वर एक ही है। इस तरह से मैंने ईश्वर के अद्वैत रूप को पहचान लिया है। हालाँकि कुछ लोग ईश्वर को अलग-अलग बताते हैं; उनके लिए नरक की स्थिति है, क्योंकि वे वास्तविकता को नहीं पहचान पाते। वे आत्मा और परमात्मा को अलग-अलग मानते हैं। कवि ईश्वर की अद्वैतता का प्रमाण देते हुए कहता है कि संसार में एक जैसी हवा बहती है, एक जैसा पानी है तथा एक ही प्रकाश सबमें समाया हुआ है। कुम्हार भी एक ही तरह की मिट्टी से सब बर्तन बनाता है, भले ही बर्तनों का आकार-प्रकार अलग-अलग हो। बढ़ई लकड़ी को तो काट सकता है, परंतु आग को नहीं काट सकता। इसी प्रकार शरीर नष्ट हो जाता है, परंतु उसमें व्याप्त आत्मा सदैव रहती है। परमात्मा हरेक के हृदय में समाया हुआ है भले ही उसने कोई भी रूप धारण किया हो। यह संसार माया के जाल में फैसा हुआ है। और वही संसार को लुभाता है। इसलिए मनुष्य को किसी भी बात को लेकर घमंड नहीं करना चाहिए। प्रस्तुत पद के अंत में कबीर दास कहते हैं कि जब मनुष्य निर्भय हो जाता है तो उसे कुछ नहीं सताता। कबीर भी अब निर्भय हो गया है तथा ईश्वर का दीवाना हो गया है।
हम तौ एक करि जांनानं जांनां । दोइ कहैं तिनहीं कौं दोजग जिन नाहिंन पहिचांनां। जैसे बढ़ी काष्ट ही कार्ट अगिनि न काटे कोई। सब घटि अंतरि तूही व्यापक धरै सरूपै सोई। एकै पवन एक ही पानीं एकै जाेति समांनां। एकै खाक गढ़े सब भांडै एकै काेंहरा सांनां। माया देखि के जगत लुभांनां कह रे नर गरबांनां निरभै भया कछू नहि ब्यापै कहैं कबीर दिवांनां। (पृष्ठ 131) शब्दार्थ एक-परमात्मा, एक। दोई-दो। तिनहीं-उनको। दोजग-नरक। नाहिंन-नहीं। एकै-एक। पवन-हवा। जोति-प्रकाश। समाना-व्याप्त। खाक-मिट्टी। गढ़े-रचे हुए। भांड़े-बर्तन। कोहरा-कुम्हार। सांनां-एक साथ मिलकर। बाढ़ी-बढ़ई। काष्ट-लकड़ी। अगिनि-आग। घटि-घड़ा, हृदय। अंतरि-भीतर, अंदर। व्यापक-विस्तृत। धरे-रखे। सरूपै-स्वरूप। सोई-वही। जगत-संसार। लुभाना-मोहित होना। नर-मनुष्य। गरबानां-गर्व करना। निरभै-निडरा भया-हुआ। दिवानां-बैरागी। प्रसंग-प्रस्तुत पद पाठ्यपुस्तक आरोह भाग-1 में संकलित निर्गुण परंपरा के सर्वश्रेष्ठ कवि कबीर के पदों से उद्धृत है। इस पद में, कबीर ने एक ही परम तत्व की सत्ता को स्वीकार किया है, जिसकी पुष्टि वे कई उदाहरणों से करते हैं। व्याख्या-कबीरदास कहते हैं कि हमने तो जान लिया है कि ईश्वर एक ही है। इस तरह से मैंने ईश्वर के अद्वैत रूप को पहचान लिया है। हालाँकि कुछ लोग ईश्वर को अलग-अलग बताते हैं; उनके लिए नरक की स्थिति है, क्योंकि वे वास्तविकता को नहीं पहचान पाते। वे आत्मा और परमात्मा को अलग-अलग मानते हैं। कवि ईश्वर की अद्वैतता का प्रमाण देते हुए कहता है कि संसार में एक जैसी हवा बहती है, एक जैसा पानी है तथा एक ही प्रकाश सबमें समाया हुआ है। कुम्हार भी एक ही तरह की मिट्टी से सब बर्तन बनाता है, भले ही बर्तनों का आकार-प्रकार अलग-अलग हो। बढ़ई लकड़ी को तो काट सकता है, परंतु आग को नहीं काट सकता। इसी प्रकार शरीर नष्ट हो जाता है, परंतु उसमें व्याप्त आत्मा सदैव रहती है। परमात्मा हरेक के हृदय में समाया हुआ है भले ही उसने कोई भी रूप धारण किया हो। यह संसार माया के जाल में फैसा हुआ है। और वही संसार को लुभाता है। इसलिए मनुष्य को किसी भी बात को लेकर घमंड नहीं करना चाहिए। प्रस्तुत पद के अंत में कबीर दास कहते हैं कि जब मनुष्य निर्भय हो जाता है तो उसे कुछ नहीं सताता। कबीर भी अब निर्भय हो गया है तथा ईश्वर का दीवाना हो गया है।
🔮भारत में उत्पन्न वह पूर्ण संत गौर वर्ण के हैं, उनके न दाढ़ी है, ना मूछें हैं और उनके सर पर सफेद बाल हैं। - फ्लोरेंस अमेरिका की इस प्रसिद्ध भविष्यवक्ता की उपरोक्त भविष्यवाणी संत रामपाल जी महाराज पर बिल्कुल खरी उतरती है।
बिस्व के पवित्र सभी धर्म ग्रंथ साक्क्षी हैंऔर श्रीमद्भागवतगीता पबित्र पुस्तक चारों बेदों का सार ग्रंथ है और पवित्र कुरांन सरीफ बाईबिल मेंभी बरिणित है आयत 25में 52 से 59मेंऔर पवित्र पुस्तक गुरु गृंथ साहेब में बरिणित नानक देव ने कहा अल्लाह बड़ा कबीर है पढिए पबित्र पुस्तक ज्ञांन गंगा इति सिद्धम। ।
हम तौ एक करि जांनानं जांनां । दोइ कहैं तिनहीं कौं दोजग जिन नाहिंन पहिचांनां। जैसे बढ़ी काष्ट ही कार्ट अगिनि न काटे कोई। सब घटि अंतरि तूही व्यापक धरै सरूपै सोई। एकै पवन एक ही पानीं एकै जाेति समांनां। एकै खाक गढ़े सब भांडै एकै काेंहरा सांनां। माया देखि के जगत लुभांनां कह रे नर गरबांनां निरभै भया कछू नहि ब्यापै कहैं कबीर दिवांनां। (पृष्ठ 131) शब्दार्थ एक-परमात्मा, एक। दोई-दो। तिनहीं-उनको। दोजग-नरक। नाहिंन-नहीं। एकै-एक। पवन-हवा। जोति-प्रकाश। समाना-व्याप्त। खाक-मिट्टी। गढ़े-रचे हुए। भांड़े-बर्तन। कोहरा-कुम्हार। सांनां-एक साथ मिलकर। बाढ़ी-बढ़ई। काष्ट-लकड़ी। अगिनि-आग। घटि-घड़ा, हृदय। अंतरि-भीतर, अंदर। व्यापक-विस्तृत। धरे-रखे। सरूपै-स्वरूप। सोई-वही। जगत-संसार। लुभाना-मोहित होना। नर-मनुष्य। गरबानां-गर्व करना। निरभै-निडरा भया-हुआ। दिवानां-बैरागी। प्रसंग-प्रस्तुत पद पाठ्यपुस्तक आरोह भाग-1 में संकलित निर्गुण परंपरा के सर्वश्रेष्ठ कवि कबीर के पदों से उद्धृत है। इस पद में, कबीर ने एक ही परम तत्व की सत्ता को स्वीकार किया है, जिसकी पुष्टि वे कई उदाहरणों से करते हैं। व्याख्या-कबीरदास कहते हैं कि हमने तो जान लिया है कि ईश्वर एक ही है। इस तरह से मैंने ईश्वर के अद्वैत रूप को पहचान लिया है। हालाँकि कुछ लोग ईश्वर को अलग-अलग बताते हैं; उनके लिए नरक की स्थिति है, क्योंकि वे वास्तविकता को नहीं पहचान पाते। वे आत्मा और परमात्मा को अलग-अलग मानते हैं। कवि ईश्वर की अद्वैतता का प्रमाण देते हुए कहता है कि संसार में एक जैसी हवा बहती है, एक जैसा पानी है तथा एक ही प्रकाश सबमें समाया हुआ है। कुम्हार भी एक ही तरह की मिट्टी से सब बर्तन बनाता है, भले ही बर्तनों का आकार-प्रकार अलग-अलग हो। बढ़ई लकड़ी को तो काट सकता है, परंतु आग को नहीं काट सकता। इसी प्रकार शरीर नष्ट हो जाता है, परंतु उसमें व्याप्त आत्मा सदैव रहती है। परमात्मा हरेक के हृदय में समाया हुआ है भले ही उसने कोई भी रूप धारण किया हो। यह संसार माया के जाल में फैसा हुआ है। और वही संसार को लुभाता है। इसलिए मनुष्य को किसी भी बात को लेकर घमंड नहीं करना चाहिए। प्रस्तुत पद के अंत में कबीर दास कहते हैं कि जब मनुष्य निर्भय हो जाता है तो उसे कुछ नहीं सताता। कबीर भी अब निर्भय हो गया है तथा ईश्वर का दीवाना हो गया है।
सभी तीनों देवताओं की, दुर्गा माता व गणेश जी की पूजा करते हैं। जबकि इसका प्रमाण किसी भी शास्त्र में नहीं है। यह शास्त्र विरुद्ध है। क्योंकि गीता अध्याय 9 श्लोक 23 में देवताओं की पूजा शास्त्रों के विरुद्ध बताई गई है।
हम तौ एक करि जांनानं जांनां । दोइ कहैं तिनहीं कौं दोजग जिन नाहिंन पहिचांनां। जैसे बढ़ी काष्ट ही कार्ट अगिनि न काटे कोई। सब घटि अंतरि तूही व्यापक धरै सरूपै सोई। एकै पवन एक ही पानीं एकै जाेति समांनां। एकै खाक गढ़े सब भांडै एकै काेंहरा सांनां। माया देखि के जगत लुभांनां कह रे नर गरबांनां निरभै भया कछू नहि ब्यापै कहैं कबीर दिवांनां। (पृष्ठ 131) शब्दार्थ एक-परमात्मा, एक। दोई-दो। तिनहीं-उनको। दोजग-नरक। नाहिंन-नहीं। एकै-एक। पवन-हवा। जोति-प्रकाश। समाना-व्याप्त। खाक-मिट्टी। गढ़े-रचे हुए। भांड़े-बर्तन। कोहरा-कुम्हार। सांनां-एक साथ मिलकर। बाढ़ी-बढ़ई। काष्ट-लकड़ी। अगिनि-आग। घटि-घड़ा, हृदय। अंतरि-भीतर, अंदर। व्यापक-विस्तृत। धरे-रखे। सरूपै-स्वरूप। सोई-वही। जगत-संसार। लुभाना-मोहित होना। नर-मनुष्य। गरबानां-गर्व करना। निरभै-निडरा भया-हुआ। दिवानां-बैरागी। प्रसंग-प्रस्तुत पद पाठ्यपुस्तक आरोह भाग-1 में संकलित निर्गुण परंपरा के सर्वश्रेष्ठ कवि कबीर के पदों से उद्धृत है। इस पद में, कबीर ने एक ही परम तत्व की सत्ता को स्वीकार किया है, जिसकी पुष्टि वे कई उदाहरणों से करते हैं। व्याख्या-कबीरदास कहते हैं कि हमने तो जान लिया है कि ईश्वर एक ही है। इस तरह से मैंने ईश्वर के अद्वैत रूप को पहचान लिया है। हालाँकि कुछ लोग ईश्वर को अलग-अलग बताते हैं; उनके लिए नरक की स्थिति है, क्योंकि वे वास्तविकता को नहीं पहचान पाते। वे आत्मा और परमात्मा को अलग-अलग मानते हैं। कवि ईश्वर की अद्वैतता का प्रमाण देते हुए कहता है कि संसार में एक जैसी हवा बहती है, एक जैसा पानी है तथा एक ही प्रकाश सबमें समाया हुआ है। कुम्हार भी एक ही तरह की मिट्टी से सब बर्तन बनाता है, भले ही बर्तनों का आकार-प्रकार अलग-अलग हो। बढ़ई लकड़ी को तो काट सकता है, परंतु आग को नहीं काट सकता। इसी प्रकार शरीर नष्ट हो जाता है, परंतु उसमें व्याप्त आत्मा सदैव रहती है। परमात्मा हरेक के हृदय में समाया हुआ है भले ही उसने कोई भी रूप धारण किया हो। यह संसार माया के जाल में फैसा हुआ है। और वही संसार को लुभाता है। इसलिए मनुष्य को किसी भी बात को लेकर घमंड नहीं करना चाहिए। प्रस्तुत पद के अंत में कबीर दास कहते हैं कि जब मनुष्य निर्भय हो जाता है तो उसे कुछ नहीं सताता। कबीर भी अब निर्भय हो गया है तथा ईश्वर का दीवाना हो गया है।
इस नवरात्रि पर जानिए कौन है वह पूर्ण परमेश्वर जो सभी कष्टों को दूर करके दुखों का अंत कर सकता है। उस पूर्ण परमेश्वर की जानकारी के लिये अवश्य पढ़ें ज्ञान गंगा।
He Devi Om Om Om maha ommaha DURGA mahamaya trimaya maha Devi subhankar ARDHANGINI Devi adi SAKTI NOMO NAMAHA NOMOSTUTE 21 bar ye mantra ko 21 din pat Karo UCCHARAn k sath
pavitra shridevi bhagwat mahapuran jismein chauthe skand mein Diya hua hai prakaran ki Shri Durga ji khud Apne se Kisi Anya dusre parmatma ke Sharan mein jaane ke liye kahati aur kahate ki meri bhakti bhi mat karo aur iska Om mantra hai aur braham antriksh mein brahmalok mein rahata hai aur keval aur sabhi bhakti chhodkar keval usi ki bhakti karo aur tumhara Kalyan hoga aur ISI sabit hota hai ki Durga ji jo hai sherawali man purn parmatma Nahin hai arthat janm mein aati hai dhanyvad
Pakhandi hain dekho toh sahi kaise logo ko murkh bana raha hain 😂jabki devi mata Durga ji utpati mahisasur ki badh ke liye bhram Vishnu mahesh aur saare devtawo ne apni sakti se utpan kiya lekin ye swamghoshit nalayak shant Jo ki dhogi hain sidh karne pe laga hain😅😅😅😅
Sat SahebJi🙏🙏🌹🌹🌺🌺🌺
very very great ,informative Tatva gyaan by jagat Guru Sant Rampal ji Maharaj
Sat SahebJi 🙏🙏🌹🌹🌺🌺🌺
Sat guru sant Rampal Mahraj ki ki jai ho👏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏💓💓💓💓🌻🌷🌼🏵🏵🏵🌹🌹🌹🥀🥀🥀💐💐🌸💮💮💮🏵🏵🌹🌹🥀🥀🐚
हम तौ एक करि जांनानं जांनां ।
दोइ कहैं तिनहीं कौं दोजग जिन नाहिंन पहिचांनां।
जैसे बढ़ी काष्ट ही कार्ट अगिनि न काटे कोई।
सब घटि अंतरि तूही व्यापक धरै सरूपै सोई।
एकै पवन एक ही पानीं एकै जाेति समांनां।
एकै खाक गढ़े सब भांडै एकै काेंहरा सांनां।
माया देखि के जगत लुभांनां कह रे नर गरबांनां
निरभै भया कछू नहि ब्यापै कहैं कबीर दिवांनां। (पृष्ठ 131)
शब्दार्थ
एक-परमात्मा, एक। दोई-दो। तिनहीं-उनको। दोजग-नरक। नाहिंन-नहीं। एकै-एक। पवन-हवा। जोति-प्रकाश। समाना-व्याप्त। खाक-मिट्टी। गढ़े-रचे हुए। भांड़े-बर्तन। कोहरा-कुम्हार। सांनां-एक साथ मिलकर। बाढ़ी-बढ़ई। काष्ट-लकड़ी। अगिनि-आग। घटि-घड़ा, हृदय। अंतरि-भीतर, अंदर। व्यापक-विस्तृत। धरे-रखे। सरूपै-स्वरूप। सोई-वही। जगत-संसार। लुभाना-मोहित होना। नर-मनुष्य। गरबानां-गर्व करना। निरभै-निडरा भया-हुआ। दिवानां-बैरागी।
प्रसंग-प्रस्तुत पद पाठ्यपुस्तक आरोह भाग-1 में संकलित निर्गुण परंपरा के सर्वश्रेष्ठ कवि कबीर के पदों से उद्धृत है। इस पद में, कबीर ने एक ही परम तत्व की सत्ता को स्वीकार किया है, जिसकी पुष्टि वे कई उदाहरणों से करते हैं।
व्याख्या-कबीरदास कहते हैं कि हमने तो जान लिया है कि ईश्वर एक ही है। इस तरह से मैंने ईश्वर के अद्वैत रूप को पहचान लिया है। हालाँकि कुछ लोग ईश्वर को अलग-अलग बताते हैं; उनके लिए नरक की स्थिति है, क्योंकि वे वास्तविकता को नहीं पहचान पाते। वे आत्मा और परमात्मा को अलग-अलग मानते हैं। कवि ईश्वर की अद्वैतता का प्रमाण देते हुए कहता है कि संसार में एक जैसी हवा बहती है, एक जैसा पानी है तथा एक ही प्रकाश सबमें समाया हुआ है। कुम्हार भी एक ही तरह की मिट्टी से सब बर्तन बनाता है, भले ही बर्तनों का आकार-प्रकार अलग-अलग हो। बढ़ई लकड़ी को तो काट सकता है, परंतु आग को नहीं काट सकता। इसी प्रकार शरीर नष्ट हो जाता है, परंतु उसमें व्याप्त आत्मा सदैव रहती है। परमात्मा हरेक के हृदय में समाया हुआ है भले ही उसने कोई भी रूप धारण किया हो। यह संसार माया के जाल में फैसा हुआ है। और वही संसार को लुभाता है। इसलिए मनुष्य को किसी भी बात को लेकर घमंड नहीं करना चाहिए। प्रस्तुत पद के अंत में कबीर दास कहते हैं कि जब मनुष्य निर्भय हो जाता है तो उसे कुछ नहीं सताता। कबीर भी अब निर्भय हो गया है तथा ईश्वर का दीवाना हो गया है।
Sat saheb ji sat🙏 saheb😊🙏🙏🙏🙏🙏 sat saheb🙏
Anmol Gyan 👌
Satguru dev ki jay
Sat saheb Sat guru rampal ji maharaj ki jay
Bahut achha satsang h
very nice and powerful satsang
bandi chor sat guru Rampal ji maharaj ki jai jo
sat saheb
Sat Saheb Ji
Way of worship
Sat Sahib Ji bhole satguru Dev ki Jay Bandi chhod satguru Rampal Ji Bhagwan ki
पूर्ण बृहम परमेश्वर साहेब कबीर परमेश्वर ही मौजूद हैं संत रामपाल जीमहाराज जी के रूप मेंजगत के तारणहार हैंअबिलमब आंन लाइन निशुल्क नाम दीक्षित होकर मर्यादित रह कर भक्तीकर संसार के सभी भाइओंंऔर और बहनों सच कर मांननां। ।
Satguru Rampal Ji Maharaj
केवल एक मात्र सत आध्यात्मिक ज्ञान 🙇🙇🙇🙇🙏🙏🙏🙏🤲🤲🤲🤲
Sat saheb ji 🙏
Sant Rampal Ji Maharaj Achcha Gyan Dete Hain
सत साहेब
🙏🙏🙏🙏sat guru dev ji ki jai ho 🙏
🙏🌺🙏Bandi chod sat guru Rampal ji bhagwan ki jai 🙏🌺🙏Sat Saheb 🙏🌺🙏
जगत गुरु तत्व दर्शी संत रामपाल जी को कोटि कोटि दंडवत प्रणाम जी👋👋 जय बंदी छोड़ की सत साहेब जी🙏🙏
हम तौ एक करि जांनानं जांनां ।
दोइ कहैं तिनहीं कौं दोजग जिन नाहिंन पहिचांनां।
जैसे बढ़ी काष्ट ही कार्ट अगिनि न काटे कोई।
सब घटि अंतरि तूही व्यापक धरै सरूपै सोई।
एकै पवन एक ही पानीं एकै जाेति समांनां।
एकै खाक गढ़े सब भांडै एकै काेंहरा सांनां।
माया देखि के जगत लुभांनां कह रे नर गरबांनां
निरभै भया कछू नहि ब्यापै कहैं कबीर दिवांनां। (पृष्ठ 131)
शब्दार्थ
एक-परमात्मा, एक। दोई-दो। तिनहीं-उनको। दोजग-नरक। नाहिंन-नहीं। एकै-एक। पवन-हवा। जोति-प्रकाश। समाना-व्याप्त। खाक-मिट्टी। गढ़े-रचे हुए। भांड़े-बर्तन। कोहरा-कुम्हार। सांनां-एक साथ मिलकर। बाढ़ी-बढ़ई। काष्ट-लकड़ी। अगिनि-आग। घटि-घड़ा, हृदय। अंतरि-भीतर, अंदर। व्यापक-विस्तृत। धरे-रखे। सरूपै-स्वरूप। सोई-वही। जगत-संसार। लुभाना-मोहित होना। नर-मनुष्य। गरबानां-गर्व करना। निरभै-निडरा भया-हुआ। दिवानां-बैरागी।
प्रसंग-प्रस्तुत पद पाठ्यपुस्तक आरोह भाग-1 में संकलित निर्गुण परंपरा के सर्वश्रेष्ठ कवि कबीर के पदों से उद्धृत है। इस पद में, कबीर ने एक ही परम तत्व की सत्ता को स्वीकार किया है, जिसकी पुष्टि वे कई उदाहरणों से करते हैं।
व्याख्या-कबीरदास कहते हैं कि हमने तो जान लिया है कि ईश्वर एक ही है। इस तरह से मैंने ईश्वर के अद्वैत रूप को पहचान लिया है। हालाँकि कुछ लोग ईश्वर को अलग-अलग बताते हैं; उनके लिए नरक की स्थिति है, क्योंकि वे वास्तविकता को नहीं पहचान पाते। वे आत्मा और परमात्मा को अलग-अलग मानते हैं। कवि ईश्वर की अद्वैतता का प्रमाण देते हुए कहता है कि संसार में एक जैसी हवा बहती है, एक जैसा पानी है तथा एक ही प्रकाश सबमें समाया हुआ है। कुम्हार भी एक ही तरह की मिट्टी से सब बर्तन बनाता है, भले ही बर्तनों का आकार-प्रकार अलग-अलग हो। बढ़ई लकड़ी को तो काट सकता है, परंतु आग को नहीं काट सकता। इसी प्रकार शरीर नष्ट हो जाता है, परंतु उसमें व्याप्त आत्मा सदैव रहती है। परमात्मा हरेक के हृदय में समाया हुआ है भले ही उसने कोई भी रूप धारण किया हो। यह संसार माया के जाल में फैसा हुआ है। और वही संसार को लुभाता है। इसलिए मनुष्य को किसी भी बात को लेकर घमंड नहीं करना चाहिए। प्रस्तुत पद के अंत में कबीर दास कहते हैं कि जब मनुष्य निर्भय हो जाता है तो उसे कुछ नहीं सताता। कबीर भी अब निर्भय हो गया है तथा ईश्वर का दीवाना हो गया है।
Bandi chhod sadguru rampal mahraj ji ki jai ho
satgur dev ki jai🙏🙇♂️🙏🙇♂️
Sat saheb ji
Jay Ho Jagat Guru Sant Sahib
Jay bandichor ke
बंदी छोड़ परमपिता परमेश्वर जी के संत रामपाल जी भगवान जी के चरणों में कॉल रिकॉर्डिंग प्रणाम परमेश्वर जी संत रामपाल जी महाराजदूर देखें एक बार
Supreme God is Kabir
हम तौ एक करि जांनानं जांनां ।
दोइ कहैं तिनहीं कौं दोजग जिन नाहिंन पहिचांनां।
जैसे बढ़ी काष्ट ही कार्ट अगिनि न काटे कोई।
सब घटि अंतरि तूही व्यापक धरै सरूपै सोई।
एकै पवन एक ही पानीं एकै जाेति समांनां।
एकै खाक गढ़े सब भांडै एकै काेंहरा सांनां।
माया देखि के जगत लुभांनां कह रे नर गरबांनां
निरभै भया कछू नहि ब्यापै कहैं कबीर दिवांनां। (पृष्ठ 131)
शब्दार्थ
एक-परमात्मा, एक। दोई-दो। तिनहीं-उनको। दोजग-नरक। नाहिंन-नहीं। एकै-एक। पवन-हवा। जोति-प्रकाश। समाना-व्याप्त। खाक-मिट्टी। गढ़े-रचे हुए। भांड़े-बर्तन। कोहरा-कुम्हार। सांनां-एक साथ मिलकर। बाढ़ी-बढ़ई। काष्ट-लकड़ी। अगिनि-आग। घटि-घड़ा, हृदय। अंतरि-भीतर, अंदर। व्यापक-विस्तृत। धरे-रखे। सरूपै-स्वरूप। सोई-वही। जगत-संसार। लुभाना-मोहित होना। नर-मनुष्य। गरबानां-गर्व करना। निरभै-निडरा भया-हुआ। दिवानां-बैरागी।
प्रसंग-प्रस्तुत पद पाठ्यपुस्तक आरोह भाग-1 में संकलित निर्गुण परंपरा के सर्वश्रेष्ठ कवि कबीर के पदों से उद्धृत है। इस पद में, कबीर ने एक ही परम तत्व की सत्ता को स्वीकार किया है, जिसकी पुष्टि वे कई उदाहरणों से करते हैं।
व्याख्या-कबीरदास कहते हैं कि हमने तो जान लिया है कि ईश्वर एक ही है। इस तरह से मैंने ईश्वर के अद्वैत रूप को पहचान लिया है। हालाँकि कुछ लोग ईश्वर को अलग-अलग बताते हैं; उनके लिए नरक की स्थिति है, क्योंकि वे वास्तविकता को नहीं पहचान पाते। वे आत्मा और परमात्मा को अलग-अलग मानते हैं। कवि ईश्वर की अद्वैतता का प्रमाण देते हुए कहता है कि संसार में एक जैसी हवा बहती है, एक जैसा पानी है तथा एक ही प्रकाश सबमें समाया हुआ है। कुम्हार भी एक ही तरह की मिट्टी से सब बर्तन बनाता है, भले ही बर्तनों का आकार-प्रकार अलग-अलग हो। बढ़ई लकड़ी को तो काट सकता है, परंतु आग को नहीं काट सकता। इसी प्रकार शरीर नष्ट हो जाता है, परंतु उसमें व्याप्त आत्मा सदैव रहती है। परमात्मा हरेक के हृदय में समाया हुआ है भले ही उसने कोई भी रूप धारण किया हो। यह संसार माया के जाल में फैसा हुआ है। और वही संसार को लुभाता है। इसलिए मनुष्य को किसी भी बात को लेकर घमंड नहीं करना चाहिए। प्रस्तुत पद के अंत में कबीर दास कहते हैं कि जब मनुष्य निर्भय हो जाता है तो उसे कुछ नहीं सताता। कबीर भी अब निर्भय हो गया है तथा ईश्वर का दीवाना हो गया है।
Bandi chhod satguru Rampal Ji Bhagwan Ji ki Jay Ho
Sat Saheb guru ji Maharaj ke charano me dandvat pranam gareeb das ko 🙏🙏🙏🙏🙏🙏
जय सतगुरू देव जी की
Sat Sahib ji 🙇
❤❤ संत साहेब कबीर दास जी महाराज कोटी कोटी परनाम
Anmol satsang
Aap sabhi bhai aur bahno ko sat saheb ji
Jaisatguru dev ki❤
सत्य ज्ञान है
Rampal Ji Bhagwan ki Jay Sat Sahib
🙏❤🙏
That's true srishti rachana.
True spiritual knowledge
Bandi Chhod Rampal Ji Maharaj ki Jay Ho
Sat sahib
Sat Saheb ji 🌹🙏🏻
True knowledge 💯
हम तौ एक करि जांनानं जांनां ।
दोइ कहैं तिनहीं कौं दोजग जिन नाहिंन पहिचांनां।
जैसे बढ़ी काष्ट ही कार्ट अगिनि न काटे कोई।
सब घटि अंतरि तूही व्यापक धरै सरूपै सोई।
एकै पवन एक ही पानीं एकै जाेति समांनां।
एकै खाक गढ़े सब भांडै एकै काेंहरा सांनां।
माया देखि के जगत लुभांनां कह रे नर गरबांनां
निरभै भया कछू नहि ब्यापै कहैं कबीर दिवांनां। (पृष्ठ 131)
शब्दार्थ
एक-परमात्मा, एक। दोई-दो। तिनहीं-उनको। दोजग-नरक। नाहिंन-नहीं। एकै-एक। पवन-हवा। जोति-प्रकाश। समाना-व्याप्त। खाक-मिट्टी। गढ़े-रचे हुए। भांड़े-बर्तन। कोहरा-कुम्हार। सांनां-एक साथ मिलकर। बाढ़ी-बढ़ई। काष्ट-लकड़ी। अगिनि-आग। घटि-घड़ा, हृदय। अंतरि-भीतर, अंदर। व्यापक-विस्तृत। धरे-रखे। सरूपै-स्वरूप। सोई-वही। जगत-संसार। लुभाना-मोहित होना। नर-मनुष्य। गरबानां-गर्व करना। निरभै-निडरा भया-हुआ। दिवानां-बैरागी।
प्रसंग-प्रस्तुत पद पाठ्यपुस्तक आरोह भाग-1 में संकलित निर्गुण परंपरा के सर्वश्रेष्ठ कवि कबीर के पदों से उद्धृत है। इस पद में, कबीर ने एक ही परम तत्व की सत्ता को स्वीकार किया है, जिसकी पुष्टि वे कई उदाहरणों से करते हैं।
व्याख्या-कबीरदास कहते हैं कि हमने तो जान लिया है कि ईश्वर एक ही है। इस तरह से मैंने ईश्वर के अद्वैत रूप को पहचान लिया है। हालाँकि कुछ लोग ईश्वर को अलग-अलग बताते हैं; उनके लिए नरक की स्थिति है, क्योंकि वे वास्तविकता को नहीं पहचान पाते। वे आत्मा और परमात्मा को अलग-अलग मानते हैं। कवि ईश्वर की अद्वैतता का प्रमाण देते हुए कहता है कि संसार में एक जैसी हवा बहती है, एक जैसा पानी है तथा एक ही प्रकाश सबमें समाया हुआ है। कुम्हार भी एक ही तरह की मिट्टी से सब बर्तन बनाता है, भले ही बर्तनों का आकार-प्रकार अलग-अलग हो। बढ़ई लकड़ी को तो काट सकता है, परंतु आग को नहीं काट सकता। इसी प्रकार शरीर नष्ट हो जाता है, परंतु उसमें व्याप्त आत्मा सदैव रहती है। परमात्मा हरेक के हृदय में समाया हुआ है भले ही उसने कोई भी रूप धारण किया हो। यह संसार माया के जाल में फैसा हुआ है। और वही संसार को लुभाता है। इसलिए मनुष्य को किसी भी बात को लेकर घमंड नहीं करना चाहिए। प्रस्तुत पद के अंत में कबीर दास कहते हैं कि जब मनुष्य निर्भय हो जाता है तो उसे कुछ नहीं सताता। कबीर भी अब निर्भय हो गया है तथा ईश्वर का दीवाना हो गया है।
Great spiritual knowledge
सभी भाइयों और बहनों को दास का सत साहेब
Anmol vachan
❤ Thanks Universe Thanks gaid
Amazing🙏🙏👍
मानुष जन्म दुर्लभ है, मिले ना बारम्बार। ज्यों तरुवर से पत्ता टूट गिरे, बहुर ना लगता डार।।
Sat saheb ji ki jai
🙏🙏🙏
Satya gyan
🥀🌹🥀🥀🙏🙏🙏
🎉🎉🎉🎉🎉🎉🎉🎉🎉🎉🎉🎉🎉🎉🎉🎉🎉🎉🎉🎉🎉🎉🎉
Sat saheb sabko ji
Sat guru rampal Maraj ji kabir rup mai aai hai
Devi Durga represents as cosmic energy
सत् साहेब जी
काग चेष्टा बको ध्यानम स्वांन निंद्य तथैब च।
अल्पाहारी ग्रह त्यागी बिद्यारथी पंच लक्ष्मणम। ।
👏👏
Satguru, rampal, ji, kokoti, ko to, dandvat, pranam, karti hu, 😂😂😂😂😂😂
Jai Mata di 🙏 🙏
Sant guru ram pal mahraj tavt gnani Dand vand kotee kotee parnam sad guruji me appse diksh Leana chaha tacho
Great knowledge pramatma S
Kabir is supremo good
हम तौ एक करि जांनानं जांनां ।
दोइ कहैं तिनहीं कौं दोजग जिन नाहिंन पहिचांनां।
जैसे बढ़ी काष्ट ही कार्ट अगिनि न काटे कोई।
सब घटि अंतरि तूही व्यापक धरै सरूपै सोई।
एकै पवन एक ही पानीं एकै जाेति समांनां।
एकै खाक गढ़े सब भांडै एकै काेंहरा सांनां।
माया देखि के जगत लुभांनां कह रे नर गरबांनां
निरभै भया कछू नहि ब्यापै कहैं कबीर दिवांनां। (पृष्ठ 131)
शब्दार्थ
एक-परमात्मा, एक। दोई-दो। तिनहीं-उनको। दोजग-नरक। नाहिंन-नहीं। एकै-एक। पवन-हवा। जोति-प्रकाश। समाना-व्याप्त। खाक-मिट्टी। गढ़े-रचे हुए। भांड़े-बर्तन। कोहरा-कुम्हार। सांनां-एक साथ मिलकर। बाढ़ी-बढ़ई। काष्ट-लकड़ी। अगिनि-आग। घटि-घड़ा, हृदय। अंतरि-भीतर, अंदर। व्यापक-विस्तृत। धरे-रखे। सरूपै-स्वरूप। सोई-वही। जगत-संसार। लुभाना-मोहित होना। नर-मनुष्य। गरबानां-गर्व करना। निरभै-निडरा भया-हुआ। दिवानां-बैरागी।
प्रसंग-प्रस्तुत पद पाठ्यपुस्तक आरोह भाग-1 में संकलित निर्गुण परंपरा के सर्वश्रेष्ठ कवि कबीर के पदों से उद्धृत है। इस पद में, कबीर ने एक ही परम तत्व की सत्ता को स्वीकार किया है, जिसकी पुष्टि वे कई उदाहरणों से करते हैं।
व्याख्या-कबीरदास कहते हैं कि हमने तो जान लिया है कि ईश्वर एक ही है। इस तरह से मैंने ईश्वर के अद्वैत रूप को पहचान लिया है। हालाँकि कुछ लोग ईश्वर को अलग-अलग बताते हैं; उनके लिए नरक की स्थिति है, क्योंकि वे वास्तविकता को नहीं पहचान पाते। वे आत्मा और परमात्मा को अलग-अलग मानते हैं। कवि ईश्वर की अद्वैतता का प्रमाण देते हुए कहता है कि संसार में एक जैसी हवा बहती है, एक जैसा पानी है तथा एक ही प्रकाश सबमें समाया हुआ है। कुम्हार भी एक ही तरह की मिट्टी से सब बर्तन बनाता है, भले ही बर्तनों का आकार-प्रकार अलग-अलग हो। बढ़ई लकड़ी को तो काट सकता है, परंतु आग को नहीं काट सकता। इसी प्रकार शरीर नष्ट हो जाता है, परंतु उसमें व्याप्त आत्मा सदैव रहती है। परमात्मा हरेक के हृदय में समाया हुआ है भले ही उसने कोई भी रूप धारण किया हो। यह संसार माया के जाल में फैसा हुआ है। और वही संसार को लुभाता है। इसलिए मनुष्य को किसी भी बात को लेकर घमंड नहीं करना चाहिए। प्रस्तुत पद के अंत में कबीर दास कहते हैं कि जब मनुष्य निर्भय हो जाता है तो उसे कुछ नहीं सताता। कबीर भी अब निर्भय हो गया है तथा ईश्वर का दीवाना हो गया है।
Kabir is Supreme God
चुक गई तो चुक जान दे // कर सतगुरु से हेत , सतगुरु दीन दयाल है // फिर उपजा दे खेत🙏🙏↪️ बंदी छोड़ सतगुरु रामपाल जी भगवान जी की जय हो
Kabir is Supreme power
हम तौ एक करि जांनानं जांनां ।
दोइ कहैं तिनहीं कौं दोजग जिन नाहिंन पहिचांनां।
जैसे बढ़ी काष्ट ही कार्ट अगिनि न काटे कोई।
सब घटि अंतरि तूही व्यापक धरै सरूपै सोई।
एकै पवन एक ही पानीं एकै जाेति समांनां।
एकै खाक गढ़े सब भांडै एकै काेंहरा सांनां।
माया देखि के जगत लुभांनां कह रे नर गरबांनां
निरभै भया कछू नहि ब्यापै कहैं कबीर दिवांनां। (पृष्ठ 131)
शब्दार्थ
एक-परमात्मा, एक। दोई-दो। तिनहीं-उनको। दोजग-नरक। नाहिंन-नहीं। एकै-एक। पवन-हवा। जोति-प्रकाश। समाना-व्याप्त। खाक-मिट्टी। गढ़े-रचे हुए। भांड़े-बर्तन। कोहरा-कुम्हार। सांनां-एक साथ मिलकर। बाढ़ी-बढ़ई। काष्ट-लकड़ी। अगिनि-आग। घटि-घड़ा, हृदय। अंतरि-भीतर, अंदर। व्यापक-विस्तृत। धरे-रखे। सरूपै-स्वरूप। सोई-वही। जगत-संसार। लुभाना-मोहित होना। नर-मनुष्य। गरबानां-गर्व करना। निरभै-निडरा भया-हुआ। दिवानां-बैरागी।
प्रसंग-प्रस्तुत पद पाठ्यपुस्तक आरोह भाग-1 में संकलित निर्गुण परंपरा के सर्वश्रेष्ठ कवि कबीर के पदों से उद्धृत है। इस पद में, कबीर ने एक ही परम तत्व की सत्ता को स्वीकार किया है, जिसकी पुष्टि वे कई उदाहरणों से करते हैं।
व्याख्या-कबीरदास कहते हैं कि हमने तो जान लिया है कि ईश्वर एक ही है। इस तरह से मैंने ईश्वर के अद्वैत रूप को पहचान लिया है। हालाँकि कुछ लोग ईश्वर को अलग-अलग बताते हैं; उनके लिए नरक की स्थिति है, क्योंकि वे वास्तविकता को नहीं पहचान पाते। वे आत्मा और परमात्मा को अलग-अलग मानते हैं। कवि ईश्वर की अद्वैतता का प्रमाण देते हुए कहता है कि संसार में एक जैसी हवा बहती है, एक जैसा पानी है तथा एक ही प्रकाश सबमें समाया हुआ है। कुम्हार भी एक ही तरह की मिट्टी से सब बर्तन बनाता है, भले ही बर्तनों का आकार-प्रकार अलग-अलग हो। बढ़ई लकड़ी को तो काट सकता है, परंतु आग को नहीं काट सकता। इसी प्रकार शरीर नष्ट हो जाता है, परंतु उसमें व्याप्त आत्मा सदैव रहती है। परमात्मा हरेक के हृदय में समाया हुआ है भले ही उसने कोई भी रूप धारण किया हो। यह संसार माया के जाल में फैसा हुआ है। और वही संसार को लुभाता है। इसलिए मनुष्य को किसी भी बात को लेकर घमंड नहीं करना चाहिए। प्रस्तुत पद के अंत में कबीर दास कहते हैं कि जब मनुष्य निर्भय हो जाता है तो उसे कुछ नहीं सताता। कबीर भी अब निर्भय हो गया है तथा ईश्वर का दीवाना हो गया है।
Jai mata di 🙏
Sat saheb ji 🌹🌹🌹🙏🙏🙏⚘⚘⚘🙏🙏🙏🥀🥀🥀🙏🏼🙏🏼🙏🏼🌺🌺🌺🙏🏼🙏🏼🙏🏼
Bahut Achcha
Sat sahib ji 🙏🙏
गरीब तीनों देवा कमल दल बसे बमहा विष्णु महेश पहले इनकी वदना फिर सुन सतगुरु उपदेश
Narayan hi saty hai
🔮भारत में उत्पन्न वह पूर्ण संत गौर वर्ण के हैं, उनके न दाढ़ी है, ना मूछें हैं और उनके सर पर सफेद बाल हैं। - फ्लोरेंस
अमेरिका की इस प्रसिद्ध भविष्यवक्ता की उपरोक्त भविष्यवाणी संत रामपाल जी महाराज पर बिल्कुल खरी उतरती है।
🙏🙏🙏🙏
Sat saheb
बिस्व के पवित्र सभी धर्म ग्रंथ साक्क्षी हैंऔर श्रीमद्भागवतगीता पबित्र पुस्तक चारों बेदों का सार ग्रंथ है और पवित्र कुरांन सरीफ बाईबिल मेंभी बरिणित है आयत 25में 52 से 59मेंऔर पवित्र पुस्तक गुरु गृंथ साहेब में बरिणित नानक देव ने कहा अल्लाह बड़ा कबीर है पढिए पबित्र पुस्तक ज्ञांन गंगा इति सिद्धम। ।
Sat saheb ji
👏🙏🏻
Kabeer is supreme power of god
हम तौ एक करि जांनानं जांनां ।
दोइ कहैं तिनहीं कौं दोजग जिन नाहिंन पहिचांनां।
जैसे बढ़ी काष्ट ही कार्ट अगिनि न काटे कोई।
सब घटि अंतरि तूही व्यापक धरै सरूपै सोई।
एकै पवन एक ही पानीं एकै जाेति समांनां।
एकै खाक गढ़े सब भांडै एकै काेंहरा सांनां।
माया देखि के जगत लुभांनां कह रे नर गरबांनां
निरभै भया कछू नहि ब्यापै कहैं कबीर दिवांनां। (पृष्ठ 131)
शब्दार्थ
एक-परमात्मा, एक। दोई-दो। तिनहीं-उनको। दोजग-नरक। नाहिंन-नहीं। एकै-एक। पवन-हवा। जोति-प्रकाश। समाना-व्याप्त। खाक-मिट्टी। गढ़े-रचे हुए। भांड़े-बर्तन। कोहरा-कुम्हार। सांनां-एक साथ मिलकर। बाढ़ी-बढ़ई। काष्ट-लकड़ी। अगिनि-आग। घटि-घड़ा, हृदय। अंतरि-भीतर, अंदर। व्यापक-विस्तृत। धरे-रखे। सरूपै-स्वरूप। सोई-वही। जगत-संसार। लुभाना-मोहित होना। नर-मनुष्य। गरबानां-गर्व करना। निरभै-निडरा भया-हुआ। दिवानां-बैरागी।
प्रसंग-प्रस्तुत पद पाठ्यपुस्तक आरोह भाग-1 में संकलित निर्गुण परंपरा के सर्वश्रेष्ठ कवि कबीर के पदों से उद्धृत है। इस पद में, कबीर ने एक ही परम तत्व की सत्ता को स्वीकार किया है, जिसकी पुष्टि वे कई उदाहरणों से करते हैं।
व्याख्या-कबीरदास कहते हैं कि हमने तो जान लिया है कि ईश्वर एक ही है। इस तरह से मैंने ईश्वर के अद्वैत रूप को पहचान लिया है। हालाँकि कुछ लोग ईश्वर को अलग-अलग बताते हैं; उनके लिए नरक की स्थिति है, क्योंकि वे वास्तविकता को नहीं पहचान पाते। वे आत्मा और परमात्मा को अलग-अलग मानते हैं। कवि ईश्वर की अद्वैतता का प्रमाण देते हुए कहता है कि संसार में एक जैसी हवा बहती है, एक जैसा पानी है तथा एक ही प्रकाश सबमें समाया हुआ है। कुम्हार भी एक ही तरह की मिट्टी से सब बर्तन बनाता है, भले ही बर्तनों का आकार-प्रकार अलग-अलग हो। बढ़ई लकड़ी को तो काट सकता है, परंतु आग को नहीं काट सकता। इसी प्रकार शरीर नष्ट हो जाता है, परंतु उसमें व्याप्त आत्मा सदैव रहती है। परमात्मा हरेक के हृदय में समाया हुआ है भले ही उसने कोई भी रूप धारण किया हो। यह संसार माया के जाल में फैसा हुआ है। और वही संसार को लुभाता है। इसलिए मनुष्य को किसी भी बात को लेकर घमंड नहीं करना चाहिए। प्रस्तुत पद के अंत में कबीर दास कहते हैं कि जब मनुष्य निर्भय हो जाता है तो उसे कुछ नहीं सताता। कबीर भी अब निर्भय हो गया है तथा ईश्वर का दीवाना हो गया है।
❤bandi chchod satguru rampal jee bhagwan jee ki jai ho sat saheb guru jee❤
सभी तीनों देवताओं की, दुर्गा माता व गणेश जी की पूजा करते हैं। जबकि इसका प्रमाण किसी भी शास्त्र में नहीं है। यह शास्त्र विरुद्ध है। क्योंकि गीता अध्याय 9 श्लोक 23 में देवताओं की पूजा शास्त्रों के विरुद्ध बताई गई है।
Abhishek kumar das
मनुष्य जन्म में आकर पूर्ण गुरु के चरण नहीं लोगे तो हर एक आत्मा का यह दशा होगा जो इस गोडे पशु के हो रहा है
आप में विद्वता है... लेकिन महोदय कबीरदास संत थे नकि कोई ब्रह्म। आप वेद और भागवत को कबीर जी से क्यों जोड़कर बतातें है?
Sahi bola apne
Aap ne pura Gyan nhai suna ji
Aap gyan ganga pade
🙏🙏🙏🙏🙏🥀🥀🥀🥀🥀🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🙏🙏🌷🌷🌷🌷🌷🌷🙏🙏🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌺🌷🌷🌺🌺🥀🥀🥀🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏
राम नाम कड़वा लगे, मीठे लागे दाम। दुविधा में दोनों गए, माया मिली न राम।।
हम तौ एक करि जांनानं जांनां ।
दोइ कहैं तिनहीं कौं दोजग जिन नाहिंन पहिचांनां।
जैसे बढ़ी काष्ट ही कार्ट अगिनि न काटे कोई।
सब घटि अंतरि तूही व्यापक धरै सरूपै सोई।
एकै पवन एक ही पानीं एकै जाेति समांनां।
एकै खाक गढ़े सब भांडै एकै काेंहरा सांनां।
माया देखि के जगत लुभांनां कह रे नर गरबांनां
निरभै भया कछू नहि ब्यापै कहैं कबीर दिवांनां। (पृष्ठ 131)
शब्दार्थ
एक-परमात्मा, एक। दोई-दो। तिनहीं-उनको। दोजग-नरक। नाहिंन-नहीं। एकै-एक। पवन-हवा। जोति-प्रकाश। समाना-व्याप्त। खाक-मिट्टी। गढ़े-रचे हुए। भांड़े-बर्तन। कोहरा-कुम्हार। सांनां-एक साथ मिलकर। बाढ़ी-बढ़ई। काष्ट-लकड़ी। अगिनि-आग। घटि-घड़ा, हृदय। अंतरि-भीतर, अंदर। व्यापक-विस्तृत। धरे-रखे। सरूपै-स्वरूप। सोई-वही। जगत-संसार। लुभाना-मोहित होना। नर-मनुष्य। गरबानां-गर्व करना। निरभै-निडरा भया-हुआ। दिवानां-बैरागी।
प्रसंग-प्रस्तुत पद पाठ्यपुस्तक आरोह भाग-1 में संकलित निर्गुण परंपरा के सर्वश्रेष्ठ कवि कबीर के पदों से उद्धृत है। इस पद में, कबीर ने एक ही परम तत्व की सत्ता को स्वीकार किया है, जिसकी पुष्टि वे कई उदाहरणों से करते हैं।
व्याख्या-कबीरदास कहते हैं कि हमने तो जान लिया है कि ईश्वर एक ही है। इस तरह से मैंने ईश्वर के अद्वैत रूप को पहचान लिया है। हालाँकि कुछ लोग ईश्वर को अलग-अलग बताते हैं; उनके लिए नरक की स्थिति है, क्योंकि वे वास्तविकता को नहीं पहचान पाते। वे आत्मा और परमात्मा को अलग-अलग मानते हैं। कवि ईश्वर की अद्वैतता का प्रमाण देते हुए कहता है कि संसार में एक जैसी हवा बहती है, एक जैसा पानी है तथा एक ही प्रकाश सबमें समाया हुआ है। कुम्हार भी एक ही तरह की मिट्टी से सब बर्तन बनाता है, भले ही बर्तनों का आकार-प्रकार अलग-अलग हो। बढ़ई लकड़ी को तो काट सकता है, परंतु आग को नहीं काट सकता। इसी प्रकार शरीर नष्ट हो जाता है, परंतु उसमें व्याप्त आत्मा सदैव रहती है। परमात्मा हरेक के हृदय में समाया हुआ है भले ही उसने कोई भी रूप धारण किया हो। यह संसार माया के जाल में फैसा हुआ है। और वही संसार को लुभाता है। इसलिए मनुष्य को किसी भी बात को लेकर घमंड नहीं करना चाहिए। प्रस्तुत पद के अंत में कबीर दास कहते हैं कि जब मनुष्य निर्भय हो जाता है तो उसे कुछ नहीं सताता। कबीर भी अब निर्भय हो गया है तथा ईश्वर का दीवाना हो गया है।
इस का किसी भी शास्त्र में उल्लेख नहीं कि नशा करें।
यह मानव समाज को बर्बाद कर रहा है।
❤❤❤❤sat😂 saheb 😂je 🎉🎉🎉🎉🎉🎉🎉🎉🎉🎉❤❤❤❤❤❤❤❤❤❤😂😂😂😂😂😂😂😂😂😂
इस नवरात्रि पर जानिए कौन है वह पूर्ण परमेश्वर जो सभी कष्टों को दूर करके दुखों का अंत कर सकता है। उस पूर्ण परमेश्वर की जानकारी के लिये अवश्य पढ़ें ज्ञान गंगा।
Kabir is god
माता दुर्गा को प्रसन्न करने का वास्तविक मंत्र क्या है।।
He Devi Om Om Om maha ommaha DURGA mahamaya trimaya maha Devi subhankar ARDHANGINI Devi adi SAKTI NOMO NAMAHA NOMOSTUTE 21 bar ye mantra ko 21 din pat Karo UCCHARAn k sath
😂🎉😊😊
Book is naam koi bata sktaa haii ki ye kaha sey vyakhyaa rkhii huii a
जेल से बाहर ना आने पाये😂
pavitra shridevi bhagwat mahapuran jismein chauthe skand mein Diya hua hai prakaran ki Shri Durga ji khud Apne se Kisi Anya dusre parmatma ke Sharan mein jaane ke liye kahati aur kahate ki meri bhakti bhi mat karo aur iska Om mantra hai aur braham antriksh mein brahmalok mein rahata hai aur keval aur sabhi bhakti chhodkar keval usi ki bhakti karo aur tumhara Kalyan hoga aur ISI sabit hota hai ki Durga ji jo hai sherawali man purn parmatma Nahin hai arthat janm mein aati hai dhanyvad
जेल वाले बाबब
संत रामपाल 😛😛🤧👻💀👏👏
Pakhandi hain dekho toh sahi kaise logo ko murkh bana raha hain 😂jabki devi mata Durga ji utpati mahisasur ki badh ke liye bhram Vishnu mahesh aur saare devtawo ne apni sakti se utpan kiya lekin ye swamghoshit nalayak shant Jo ki dhogi hain sidh karne pe laga hain😅😅😅😅
Guru ji mortii puja❌❌❌galat