10.परम-भक्ति अधिकार श्री नियमसार हिंदी पद्धानुवाद Shri Niyamsar Hindi Gatha 133 to 140 KundKund Dev

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  • Опубликовано: 13 сен 2024
  • परम-भक्ति अधिकार श्री नियमसार हिंदी पद्धानुवाद
    उसको कहें निर्वाण-भक्ति परम जिनवर देव रे ॥१३४॥
    जो मुक्तिगत हैं उन पुरुषकी भक्ति जो गुणभेदसे ।
    करता वही व्यवहारसे निर्वाणभक्ति जान रे ॥१३५॥
    रे ! जोड़ निजको मुक्तिपथमें भक्ति निर्वृतिकी करे ।
    अतएव वह असहाय-गुण-सम्पन्न निज आत्मा वरे ॥१३६॥
    रागादिके परिहारमें जो साधु जोड़े आतमा ।
    है योगकी भक्ति उसे; नहि अन्यको सम्भावना ॥१३७॥
    सब ही विकल्प अभावमें जो साधु जोड़े आतमा ।
    है योगकी भक्ति उसे; नहिं अन्यको सम्भावना ॥१३८॥
    विपरीत आग्रह छोड़कर, श्री जिन कथित जो तत्त्व हैं ।
    जोड़े वहाँ निज आतमा, निजभाव ही वह योग है ॥१३९॥
    वृषभादि जिनवर भक्ति कर उत्तम इस तरह उत्तम योगकी ।
    निर्वृति सुख पाया, अतः धर भक्ति उत्तम योगकी ॥१४०॥

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