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  • Опубликовано: 15 окт 2024
  • Meditation,ध्यान, योग,Yoga
    21 जून को हम अंतरराष्ट्रीय योग दिवस मनाते हैं लेकिन क्या आप जानते हैं कि योग कब से शुरू हुआ है?
    या योग का कोई निर्माता भी है?
    क्या हम योग से शारीरिक, मानसिक और आत्मिक शुद्धि कर सकते हैं?
    इस विडियो में जानगे आप के सारे सवालो के जवाब। जानने के लिए पूरा वीडियो देखें या लाइक सब्सक्राइब जरूर करें
    महर्षि पतंजलि ने योग को 'चित्त की वृत्तियों के निरोध' याने विचार शून्य अवस्था
    के रूप में परिभाषित किया है। उन्होंने 'योगसूत्र' नाम से योगसूत्रों का एक संकलन किया जिसमें उन्होंने पूर्ण कल्याण तथा शारीरिक, मानसिक और आत्मिक शुद्धि के लिए अष्टांग योग (आठ अंगों वाले योग) का एक मार्ग विस्तार से बताया है। अष्टांग योग को आठ अलग-अलग चरणों वाला मार्ग नहीं समझना चाहिए; यह आठ आयामों वाला मार्ग है जिसमें आठों आयामों का अभ्यास एक साथ किया जाता है। योग के ये आठ अंग हैं:
    यम, नियम, आसन,. प्राणायाम,प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि
    अष्टांग योग के अंतर्गत प्रथम पांच अंग (यम, नियम, आसन, प्राणायाम तथा प्रत्याहार) 'बहिरंग' येने शरीर के शुद्धि के लिए
    और शेष तीन अंग (धारणा, ध्यान, समाधि) 'अंतरंग' येन मन की शुद्धि केलिए
    नाम से प्रसिद्ध हैं।
    आइये पूरे विस्तार से जानते हैं
    प्रतेक अंग
    पाहिला है यम
    यम को पांच सामाजिक नैतिकता से विभजीत किया है जैसे
    अहिंसा , सत्य, अस्तेय , ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह
    अहिंसा अर्थात् शब्दों से, विचारों से और कर्मों से किसी को अकारण हानि नहीं पहुँचाना
    सत्य- सत्य बोलना वी सत्य आचरण करना
    अस्तेय याने चोरी ना करना
    ब्रह्मचर्य ब्रह्मचर्य दो अर्थ हैं-
    चेतना को ब्रह्म के ज्ञान में स्थिर करना
    सभी इन्द्रिय जनित सुखों में संयम बरतना
    अपरिग्रह अपरिग्रह का अर्थ आवश्यकता से अधिक संचय नहीं करना और दूसरों की वस्तुओं की इच्छा नहीं करना
    नियम
    नियम पाँच व्यक्तिगत नैतिकता संबंधित है इनमें
    शौच याने शरीर और मन की शुद्धि
    संतोष याने संतुष्ट और प्रसन्न रहना
    तप याने स्वयं से अनुशाषित रहना
    स्वाध्याय याने आत्मचिंतन करना
    ईश्वर-प्रणिधान याने ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण, पूर्ण श्रद्धा होनी चाहिए
    तिसरा है आसन ।
    योगासनों द्वारा शरीरिक नियंत्रण होता है।
    आसनों में जहां मांसपेशियों को तानने, सिकोड़ने वाली क्रियायें करनी पड़ती है। वहीं दूसरी ओर साथ-साथ तनाव-खिंचाव दूर करनेवाली क्रियायें भी होती रहती हैं, जिससे शरीर की थकान मिट जाती है और आसनों से व्यय शक्ति वापस मिल जाती है। शरीर और मन को तरोताजा करने, उनकी खोई हुई शक्ति की पूर्ति कर देने और आध्यात्मिक लाभ की दृष्टि से भी योगासनों का अपना अलग महत्त्व है।
    जैसे पद्मासन, वज्रासन, सिद्धासन, मत्स्यासन, वक्रासन, अर्ध-मत्स्येन्द्रासन, प्राणायाम इत्त्यादि
    चौथा है प्राणायाम ।
    प्राण याने हवा जिसे हम ऑक्सीजन के रूप में जानते हैं
    और याम याने व्यायाम जो कि हम नाक से करते है । आसन के सिद्ध होने पर श्वास और प्रश्वास की गति को रोकना प्राणायाम है । श्वास और प्रश्वास का नियमन प्राणायाम है । जैसे अनुलोम-विलोम, कपालभाति इत्त्यादि
    पाचवा है प्रत्याहार ।
    मन को एकाग्र करनेसे इन्द्रियां वश में रहती हैं और उन पर पूर्ण विजय प्राप्त हो जाती है। इसिको हम प्रत्याहार कहते हैं ।
    छटा है धारणा ।
    पतंजलि के अष्टांग योग का यह छठा अंग है। मन को एकाग्रचित्त करके ध्येय विषय पर लगाना पड़ता है। किसी एक विषय को ध्यान में बनाए रखना।चित्त को किसी एक विचार में बांध लेने की क्रिया को धारणा कहा जाता है। यम, नियम, आसन, प्राणायाम और प्रत्याहार द्वारा इंद्रियों को उनके विषयों (रूप, रस, गंध, शब्द और स्पर्श) से हटाकर चित्त में स्थिर किया जाता है, स्थिर एवं एकाग्र किये गए चित्त को एक ‘स्थान विशेष ’ पर रोक लेना ही धारणा है।
    सातवा है ध्यान ।
    चित्त को एकाग्र करके किसी एक वस्तु पर केन्द्रित कर देना ध्यान कहलाता है। प्राचीन काल में ऋषि मुनि भगवान का ध्यान करते थे। ध्यान की अवस्था में ध्यान करने वाला अपने आसपास के वातावरण को तथा स्वयं को भी भूल जाता है। ध्यान करने से आत्मिक तथा मानसिक शक्तियों का विकास होता है। जिस वस्तु को चित में बांधा जाता है उस में इस प्रकार से लगा दें कि बाह्य प्रभाव होने पर भी वह वहाँ से अन्यत्र न हट सके, उसे ध्यान कहते है।
    ध्यान से लाभ भी मिलते है जैसे बेहतर स्वास्थ्य, उत्पादकता में वृद्धि, आत्मज्ञान की प्राप्ति, चिंता से छुटकारा इत्यादि
    आठवा है समाधि ।
    योग की अन्तिम अवस्था है। योग और समाधि पर्यायवाची शब्द हैं । चित्त की समस्त वृत्तियों के निरोध होने पर चित्त की स्थिर एवं उत्कृष्ट अवस्था होती है। यही समाधि की अवस्था कहलाती है।
    हिन्दू, जैन, बौद्ध तथा योगी आदि सभी धर्मों में इसका महत्व बताया गया है। जब साधक ध्येय वस्तु के ध्यान मे पूरी तरह से डूब जाता है और उसे अपने अस्तित्व का ज्ञान नहीं रहता है तो उसे समाधि कहा जाता है। पतंजलि के योगसूत्र में समाधि को आठवाँ (अन्तिम) अवस्था बताया गया है। समाधि के बाद प्रज्ञा का उदय होता है और यही योग का अंतिम लक्ष्य है।
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