Adi Keshav Ghat Varanasi | Ganga Varuna Sangam Ghat | Oldest Temple Of Kashi
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- Опубликовано: 8 фев 2025
- ऐसा माना जाता है कि भगवान शिव की आज्ञा से विष्णु जी जब सर्वप्रथम काशी में आये तो वह इसी घाट पर पधारे थे उन्होंने स्वयं की प्रतिमा इस घाट पर प्रतिस्थापित किया। वर्तमान में यह प्रतिमा आदिकेशव मंदिर में स्थापित है। जिसके कारण ही घाट का नाम आदिकेशव घाट पड़ा गंगा एवं वरूणा के संगम स्थल पर स्थित होने से इसे गंगा-वरूणा संगम घाट भी कहते हैं। घाट पर आदि केशव के अतिरिक्त ज्ञान केशव, संगमेश्वर शिव चिन्ताहरण गणेश, पंचदेवता एवं एक अन्य शिव मंदिर स्थापित है। ऐसी मान्यता है कि संगमेश्वर शिवलिंग की स्थापना स्वयं ब्रह्मा ने की है। मत्यस्यपुराण के अनुसार इस घाट को काशी के प्रमुख पांच घाट तीर्थो में स्थान प्राप्त है एवं काशी का प्रथम विष्णु तीर्थ माना जाता है। इस संदर्भ में मान्यता है कि विष्णु जी जब काशी में पधारे तो इसी गंगातट पर अपने पैर धोये।
आदि का अर्थ है "उत्पत्ति" और केशव शब्द भगवान विष्णु का एक रूप है। यह मंदिर काशी के प्राचीन मंदिरों में से एक है।
ग्यारहवीं सदी में गढ़वाल वंश के राजाओं ने आदिकेशव मंदिर व घाट का निर्माण कराया था। मान्यता है कि ब्रह्मालोक निवासी देवदास को शर्त के अनुसार ब्रह्मा जी ने काशी की राजगद्दी सौंप दिया और देवताओं को मंदराचल पर्वत जाना पड़ा। शिवजी इससे बहुत व्यथित हुये क्योंकि काशी उनको बहुत प्यारी थी। तमाम देवताओं को उन्होंने काशी भेजा ताकि वापस उन्हें मिल जाय लेकिन जो देवता यहां आते यहीं रह जाते। अखिर हारकर उन्होंने भगवान विष्णु और लक्ष्मी से अपना दर्द बताया और उन्हें काशी वापस दिलाने का अनुरोध किया। लक्ष्मी जी के साथ भगवान विष्णु काशी में वरुणा व गंगा के संगम तट पर आये। यहां विष्णु जी के पैर पड़ने से इस जगह को विष्णु पादोदक के नाम से भी जाना जाता है। यहीं पर स्नान करने के उपरान्त विष्णु जी ने तैलेक्य व्यापनी मूर्ति को समाहित करते हुये एक काले रंग के पत्थर की अपनी आकृति की मूर्ति स्थापना की और उसका नाम आदि केशव रखा। उसके बाद ब्रह्मालोक में देवदास के पास गये और उसको शिवलोक भेजा और शिवजी को काशी नगरी वापस दिलायी। कहा- अविमुक्त अमृतक्षेत्रेये अर्चनत्यादि केशवं ते मृतत्वं भजंत्यो सर्व दु:ख विवर्जितां, अर्थात अमृत स्वरूप अवमुक्त क्षेत्र काशी में जो भी हमारे आदि केशव रुप का पूजन करेगा वह सभी दु:खों से रहित होकर अमृत पद को प्राप्त होगा। स्व. झूमक महाराज के वंशज विनय कुमार त्रिपाठी के अनुसार काशी खंड के तीसरे भाग में इसकी चर्चा की गयी है। उनके अनुसार 1196 ई. में सिराबुद्दीन ने अपनी सेना के साथ इस मंदिर पर आक्रमण किया और लूटपाट और क्षतिग्रस्त करके चला गया। बाद में 18वीं शती में सिंधिया के दीवान भालो जी ने इस मंदिर का निर्माण कार्य कराया।
अठ्ठारहवीं शताब्दी में बंगाल की महारानी भवानी ने घाट का पक्का निर्माण कराया था। परन्तु कुछ वर्षो के पश्चात यह क्षतिग्रस्त हो गया जिसका पुन: निर्माण सन् 1906 में ग्वालियर राज के दीवान नरसिंह राव शितोले ने कराया।
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Shandar
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