🙏उत्तरैणी कौतिक 2025 || बुराड़ी दिल्ली 110084 || Uttrakhandi कौतिक 💫
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- Опубликовано: 7 фев 2025
- By @NeerajBajeli
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UTRAINI KAUTIK KE BAARE ME KUCH BAATE :-
उतरैणी कौतिक' इस शब्द में उतरैणी का अर्थ है कि सूर्य देव का उत्तर दिशा की ओर बढ़ना है और कौतिक का अर्थ है मेंला, हर वर्ष सूर्य देव छः माह उत्तरायण में रहते है और छः माह दक्षरायण में, मकर संक्रांति से सूर्य उत्तरायण में प्रवेश करते है इस घटना को कुमाऊनी में उत्तरायणी कहा जाता है उत्तर और पूरब दिशा को धर्म शास्त्रों के अनुसार शुभ माना गया है, अनेकानेक शुभ कार्यों की सुरुआत भी इसी दिन से शुरू होती है। उत्तराणी के मेले अवधि में खास तौर से बागेश्वर में तट पर दूर-दूर से श्रद्धालु, भक्तजन आकर मुडंन, यग्योपवीत (जनेऊ धारण करना), पूजा अर्चना, करने आते हैं | उतरैणी का भी गौरवमय इतिहास है। प्राप्त प्रमाणों के आधार पर माना जाता है कि चंद वंशीय राजाओं के शासनकाल में ही माघ मेले की नींव पड़ी थी, चंद राजाओं ने ऐतिहासिक बागनाथ मंदिर में पुजारी भी नियुक्त किय थे ।
हमारे बडे बताते हैं कि महीनों पूर्व से कौतिक में चलने का
क्रम क्रम घटित होता है। धीरे-धीरे सब जगह के लोग मिलके हुडके और अन्य बाध्य यंत्रों से सबका मन मोह लेते थे । फलस्वरुप लोकगीतों और नृत्य का आयोजन होने लगा, हुड़के की थाप पर कुमाऊनी नृत्य, हाथ में हाथ डाल लोग मिलने की खुशी से नृत्य-गीतों के बोल का क्रम मेले का अनिवार्य अंग बन गया । आज भी हमारे आमा बूबू याद करते है उस समय मेले की रातें किस तरह अपने आपमे अनोखी लुभावनी हुआ करती थी । प्रकाश की व्यवस्था अलाव जलाकर होती थी। काँपती सर्द रातों में अलाव जलते ही ढोड़े, चांचरी, भगनौले, छपेली जैसे नृत्यों का अलाव के चारों ओर स्वयं ही विस्तार होता जाता था।
नुमाइश खेत में रांग-बांग होता जिसमें जगह जगह के लोग अपने यहाँ के गीत गाते । सबके अपने-अपने नियत स्थान थे । परम्परागत गायकी में प्रश्नोत्तर करने वाले बैरिये भी न जाने कहाँ-कहाँ से इकट्ठे हो जाते। काली कुमाऊँ, मुक्तेश्वर, रीठआगाड़, सोमेश्वर और कव्यूर के बैरिये झुटपूटा शुरु होने का ही जैसे इन्तजार करते। इनकी कहफिलें भी बस सूरज की किरणें ही उखाड़ पातीं । कौतिक आये लोगों की रात कब कट जाती मालूम ही नहीं पड़ता था ।
धीरे-धीरे धार्मिक और आर्थिक रुप से समृद्ध यह मेला व्यापारिक गतिविधियों का भी प्रमुख केन्द्र बन गया । भारत और नेपाल के व्यापारिक सम्बन्धों के कारण दोनों ही ओर के व्यापारी इसका इन्तजार तरते। तिब्बती व्यापारी यहाँ ऊनी माल, चंवर, नमक व जानवरों की खालें लेकर आते । भोटिया-जौहारी लोग गलीचे, दन, चुटके, ऊनी कम्बल, जड़ी बूटियाँ लेकर आते । नेपाल के व्यापारी लाते शिलाजीत, कस्तूरी, शेर व बाघ की खालें । स्थानीय व्यापार भी अपने चरमोत्कर्ष पर था । दानपुर की चटाइयाँ, नाकुरी के डाल- सूपे, खरदी के ताँबे के बर्तन, काली कुमाऊँ के लोहे के भदेले, गढ़वाल और लोहाघाट के जूते आदि सामानों का तब यह प्रमुख बाजार था । गुड़ की भेली से लेकर मिश्री और चूड़ी चरेऊ से लेकर टिकूली बिन्दी तक की खरीद फरोख्त होती । माघ मेला तब डेढ़ माह चलता । दानपुर के सन्तरों, केलों व बागेश्वर के गन्नों का भी बाजार लगता और इनके साथ ही साल भर के खेती के औजारों का भी मोल भाव होता । बीस बाईस वर्ष पहले तक करनाल, ब्यावर, लुधियाना और अमृतसर के व्यापारी यहाँ ऊनी माल खरीदने आते थे ।
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Kya baat Hai Jai Uttrakhand dev Bhoomi ❤❤❤
@@Niks007Agent thanks
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Foji Lalit Mohan Joshi da bahut acha gate Hain❤
Wo Hai 💯❤ best song ❤
Very nice bhai
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Bhut acha 😊😊😊😊
@Geetkargeti thank you didi ✌️😎
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Bahut Sundar Program Bhai 🥰😇😊😊
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Wow very nice 🙏❣️👍
Thank you! Cheers!
Bahut sundar 😊
Sukriya
Very good morning sir
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