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Rita Bhandari
Добавлен 30 ноя 2019
दिग्म्बर धर्म की चर्चा
एकत्व भावना 6 द्रव्य और पर्याय एकाकार ही एकत्व भाव है।
एकत्व भावना 6 द्रव्य और पर्याय एकाकार ही एकत्व भाव है।
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एकत्व भावना 5 स्व ज्ञेय है तो पर ज्ञेय है।
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एकत्व भावना 5 स्व ज्ञेय है तो पर ज्ञेय है।
एकत्व भावना 3 पर मे एकत्व बुद्धि मिथ्यात्व है।
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एकत्व भावना 3 पर मे एकत्व बुद्धि मिथ्यात्व है।
एकत्व भावना 2 राग का भोक्ता जीव अकेला है।
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एकत्व भावना 2 राग का भोक्ता जीव अकेला है।
संसार भावना 13 संसार मे पुण्य का उदय एक जैसा नही है।
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संसार भावना 13 संसार मे पुण्य का उदय एक जैसा नही है।
संसार भावना 12 अखण्ड आत्मा को भूलना ही संसार है।
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संसार भावना 12 अखण्ड आत्मा को भूलना ही संसार है।
संसार भावना 11 हम कल्पना से अधिक दुःखी है।
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संसार भावना 11 हम कल्पना से अधिक दुःखी है।
संसार भावना 10 संसार मे मात्र दुःख है।
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संसार भावना 10 संसार मे मात्र दुः है।
संसार भावना 9। शुभ भाव का फल संसार ही है।
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संसार भावना 9। शुभ भाव का फल संसार ही है।
संसार भावना 8 अज्ञान ही संसार का कारण है।
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संसार भावना 8 अज्ञान ही संसार का कारण है।
संसार भावना 7 कर्तव्य बुद्धि ही संसार है।
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संसार भावना 6 मिथ्यात्व ही संसार है।
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संसार भावना 6 मिथ्यात्व ही संसार है।
संसार भावना 5 संसार सम्बन्धीयो का मिलना और बिछुडना निश्चित है।
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संसार भावना 4 ज्ञानी पुरुषार्थ से संसार सीमित कर्ता है।
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संसार भावना 4 ज्ञानी पुरुषार्थ से संसार सीमित कर्ता है।
अशरण भावना 3 अशुद्ध पर्याय ही संसार है।
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अशरण भावना 3 अशुद्ध पर्याय ही संसार है।
अशरण भावना 7 जन्म मरण से बचने के लिए आत्मा ही शरण है।
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अशरण भावना 7 जन्म मरण से बचने के लिए आत्मा ही शरण है।
अशरण भावना 6 क्रमबद्ध पर्याय का सिद्धांत
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अशरण भावना 6 क्रमबद्ध पर्याय का सिद्धांत
अशरण भावना 5 पुरुषार्थ से शरण होती है।
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अशरण भावना 5 पुरुषार्थ से शरण होती है।
अशरण भावना 4 त्रिकाली ध्रुव सिद्ध स्वरूप ही शरण है।
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अशरण भावना 4 त्रिकाली ध्रुव सिद्ध स्वरूप ही शरण है।
अशरण भावना 2 उपादान ही शरण है, निमित्त अशरण है।
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अशरण भावना 2 उपादान ही शरण है, निमित्त अशरण है।
अशरण भावना 1 मनुष्य भव के समय को आत्मा की शरण मे लगाए।
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अशरण भावना 1 मनुष्य भव के समय को आत्मा की शरण मे लगाए।
अनित्य भावना 15 मै सिद्ध स्वरूप नित्य हूं।
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अनित्य भावना 15 मै सिद्ध स्वरूप नित्य हूं।
अनित्य भावना 14 नित्य और अनित्य का ज्ञान अनेकांत है।
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अनित्य भावना 14 नित्य और अनित्य का ज्ञान अनेकांत है।
अनित्य भावना 12 अनित्य का परिणमन स्वंय होता है।
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अनित्य भावना 12 अनित्य का परिणमन स्वंय होता है।
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बहुत सरस
Didi suddhatma vandan
Jay Jinendra
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🙏🙏jai jinendra 🙏🙏
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Mumbai - JAI JINANDRA🙏🙏🙏
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जय जिनेंद्र रीटा बहन 🙏🏻 आपके एक शोर्ट में अनेकान्त का यह अर्थ किया है कि “आत्मा स्व को जानता है और आत्मा पर को भी जानता है यह अनेकान्त है” यह ग़लत अर्थ है समयसार परमागम की ६ वी गाथा में प.पू.श्री कुंदकुंद आचार्यजी ने फ़रमाया है कि जो पर ज्ञेयाकार है वह हक़ीक़त में ज्ञानाकार ही, तो वास्तव में हम हर समय अपने ज्ञान को ही जानते हैं, पर मानते नहीं , यही मिथ्यात्व है और भ्रांति है। यह बात स्फटिक के द्रष्टांत से साफ़ समज़ में आ जाती है जब हम स्फटिक के पास लाल फूल रखतें हैं तो हमें स्फटिक संयोग द्रष्टि से लाल दिखता है परंतु हकीकतमे स्फटिक में लाल फुल के संयोगसे लाल झलक दिखना वहाँ स्फटिक का स्वच्छ स्वभाव उजागर होता है के यह स्फटिक ही है जिसमें लाल फ़ुल का प्रतिबिम्ब पड़ सकता है , कोयले में नहीं पड़ सकता उसी तरह जब ज्ञान स्वभावि आत्मा में परदरवय के प्रतिबिंब पड़ते है तो वहाँ स्वच्छ निर्मल ज्ञान स्वभाव उजागर होता है और हमें भ्रांति से यह लगता है के परद्रव्य जानने में आया, हक़ीक़त में जनाता है ज्ञान और मानता है परद्रव्य जाननेमें आया यह भ्रांति यह मिथ्यात्व ही संसारका मूल है जो हमें पूरी ताक़त लगाके छेदना है। हकीकतमें हमने अनादि काल से अपने आत्मा को ही जाना है , वर्तमान में उसीको ही जान रहे है ओर भविष्य में उसीको ही जानेंगे। मतलब हमारा आत्मा ही ज्ञान हमारा आत्मा ही ज्ञेय और हमारा आत्मा ही ज्ञाता है , यह सीमा रेखा से पार हम कभी गये नहीं है और ना कभी जा पायेंगे। यही सनातन सत्य है और यही जैन धर्म की धरोहर है। मैं आशा रखती हुँ आपको मर्म ख़याल में आ गया होगा 🙏🏻
जय जिनेन्द्र अनेकान्त का ज्ञान आत्मानुभव के बाद नय विषय से होता है, जिसमे अस्ति और नास्ति नय होते है। आत्मा सिद्ध स्वरूप अस्ति और राग से नास्ति। ज्ञान, सिद्ध और आत्मा तीनो एक ही है ।ज्ञान स्व ज्ञेय और ज्ञाता एक है वही आत्मानुभव, सम्यक दर्शन और आनंद है। ज्ञान और राग मे एकत्व बुद्धि मिथ्यात्व है।
गुरूदेव का सिद्धांत है ,जीव विकार अपनी योग्यता से कर्ता है,कर्म विकार नही कराता ,अर्थात स्फटिक मे झलकन अपनी योग्यता से हुई है।
सारे सिद्धांत गुरूदेव के बताए हुए है ,कृपया आप विचार करे।
@@ritabhandari4617आत्मा स्व को जानता है और पर को नहीं जानता यह अस्ति नास्ति अनेकान्त हैं ।
@@ritabhandari4617यहाँ विकार कौन कराता है वह बात नहीं है, आत्मा पर को जानता नहीं है और कैसे नहीं जानता है यह बात है ।आत्मा में स्व और पर का प्रतिभास होता है ,जैसे सुई लोहचुंबक के पास खींची चली जाती है (समयसार परमागम में यह द्रष्टांत दिया गया है) वैसा ज्ञान पर द्रव्यों के पास नहीं जाता, पर द्रव्यों का प्रतिभास, प्रतिबिंब ज्ञान महासागर में पड़ता है ।समयसार परमागम में गाथा ३५६ से ३६५ सेटिका की जो गाथाएँ हैं उसका भावार्थ ( पेज नं ५१४ ) पे लाईन नं १३-१४ पे लिखा है “ आत्मा को परद्रव्य का ज्ञायक नहीं कहा जा सकता “ कृपया जरुर पढ़ियेगा 🙏🏻
Aap Abhi kaha ho?? Hume apse Milna hai Apse contact ho sakta hai kya??🙏
🙏🙏👏👏
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Jai Jinendra 🙏🏻 Thank you 🙏🏻 🙏🏻🙏🏻
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Jai Jinendra 🙏🏻 Thank you 🙏🏻🙏🏻🙏🏻
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Didi suddhatma vandan
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Jai Jinendra 🙏🏻 Thank you 🙏🏻🙏🏻🙏🏻
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